अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में किसी भी देश को अपना अस्तित्व बनाए रखना बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है. आज के वैश्विक परिदृश्य में यह किसी छोटे देश के लिए और भी महत्व का विषय हो गया है. चूंकि फिनलैंड रूस के साथ लगभग 1300 किमी का बॉर्डर शेयर करता है और इस वक्त जो रूस और यूक्रेन के साथ युद्ध चल रहा है और रूस का जो रवैया रहा है यूक्रेन के प्रति उसके परिणाम स्वरूप भी फिनलैंड नाटो का सदस्य बन रहा है.


जो भी रूस के पड़ोसी देश हैं, वे इससे अपने आप को असहज महसूस कर रहे हैं. जो बड़े देश या शक्तियां हैं, वे तो एक-दूसरे को संतुलित करने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन जो छोटे देश हैं, जिनके पास मिलिट्री पावर बहुत ज्यादा नहीं हैं और चूंकि फिनलैंड एक नॉर्डिक देश है और वहां पर डेवलपमेंट और सोशल रिसोर्सेज बहुत अच्छा है लेकिन उनका जो मिलिट्री पहलू है वो उतना सक्षम नहीं है कि वो अकेले रूस से लड़ पाए. इसलिए उसने अपनी सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए नाटो को ज्वाइन किया है.


जैसा कि हम सब जानते हैं कि नाटो एक सामूहिक सुरक्षा से जुड़ी हुए एक बड़ी व्यवस्था है, जिसमें 30 देश पहले से हैं और 31वां फिनलैंड बन गया है. एक छोटे देश को शक्ति संतुलन में अपने आप को व्यवस्थित करने के लिए या कह लीजिए कि अपने आप का बचाव करने का पूरा अधिकार है. रूस की जो हाल की गतिविधियां हैं और खासकर पुतिन के समय में रूस अपनी पुरानी ग्लोरी को रिवाइज करने की कोशिश कर रहा है. अब यह माना जा रहा है कि आज का जो विश्व है उसमें केवल एक ध्रुवीय विश्व नहीं रह गया है, जैसा कि 1990 के दशक में था, जब अमेरिका केवल एक सर्वशक्ति हुआ करता था. आज कई ध्रुव हैं जिसमें एक रूस है, दूसरा चीन है और खासकर जब पुतिन ने अपनी नई विदेश नीति में साफ कह दिया है कि उनको जो मुख्य चुनौती मिल रही है वो अटलांटिक ओशियन के आस-पास के देशों से मिल रही है. इनमें भी अमेरिका सबसे प्रमुख है.


ऐसे में फिनलैंड जैसे देश जब अपने आप को असहज महसूस करेंगे तो उन्हें किसी न किसी के साथ तो जाना पड़ेगा. इसलिए फिनलैंड ने नाटो को ज्वाइन किया है. आम तौर से फिनलैंड और स्वीडन जैसे देशों की पॉलिसी नॉन एलाइनमेंट (गुट निरपेक्ष) वाली नीति थी, लेकिन आज के विश्व में जो स्थिति है उस हिसाब से वे अपनी नीति में बदलाव करने को मजबूर हुए हैं. आपको पता है कि फिनलैंड में हाल ही में कंजरवेटिव पार्टी की जीत हुई है. वो हमेशा ये चाहती है कि अपनी सुरक्षा को बनाए रखें और इसलिए फिनलैंड ने ये फैसला किया है.


भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से भी फिनलैंड का ये उचित कदम है क्योंकि अंततः किसी भी सरकार की यह प्राथमिक जिम्मेवारी होती है कि राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता को बनाए रखें, अपनी सीमाओं को सुरक्षित रखें. इसे दो तरह से देखा जा सकता है. तुर्किेए को इनसिक्योरिटी या असुरक्षा की भावना होती है. आपको पता होगा कि तुर्किए, फिनलैंड से पहले से नाटो का सदस्य देश है और फिनलैंड नया है. ऐसे में जब कोई भी नया मेंबर समूह से जुड़ता है तो उसमें असहजता की भावना होती है, प्रतिस्पर्धा की भावना होती है. तुर्किए, फिनलैंड और स्वीडन दोनों के एंट्री पर बाधा बनने की कोशिश कर रहा है तो हम ये मान सकते हैं कि उनके बीच जो द्विपक्षीय संबंध है, उसकी छाया इस पर पड़ रही है. तुर्किए इसलिए भी विरोध कर रहा है कि क्योंकि वह नया सदस्य है. दूसरा कारण है कि आतंकवाद के मुद्दे पर तुर्किए का संबंध फिनलैंड से बहुत अच्छा नहीं रहा है. लेकिन आखिर में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि फिनलैंड को नाटो में शामिल होने को लेकर बड़े देश जैसे अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश कैसे देखते हैं. जब सारे देश एक साथ हैं तो फिर तुर्किए का विरोध करने का कोई मतलब नहीं है.


भारत की जो पारंपरिक विदेश नीति रही है उसके मुताबिक हमने अब तक किसी भी गुट को ज्वाइन नहीं किया है, जिससे  विदेश नीति में जो स्ट्रैटेजिक रणनीति होती है, स्वतंत्रता होती है और डिसीजन मेकिंग हो, वो प्रभावित नहीं हो, इन सबके के बावजूद अमेरिका और कुछ अन्य देश चाहते हैं कि भारत नाटो में शामिल हो. लेकिन भारत की जो आज की विदेश नीति है वो बहुत ही संतुलित नीति है. इसमें हम यह चाहते हैं कि हम किसी भी गुट में नहीं रहे. हम किसी के छत्रछाया में नहीं रहे.


ये कतई नहीं है कि अगर हम नाटो में शामिल हो जाएं तो रूस हम पर आक्रमण कर देगा. भारत अभी चाहता है कि वह अधिक से अधिक देशों के साथ जुड़ जाए. लेकिन अगर भारत नाटो का सदस्य हो जाएगा, तो प्रत्यक्ष रूप से उसके टच में आ जाएगा. इससे भारत के लिए फिर मुश्किल होगा रूस जैसे देशों को यह समझा पाना कि हम किसी गुट का हिस्सा नहीं हैं. हम जानते हैं कि रूस पारंपरिक रूप से भारत का एक पुराना साथी रहा है. हाल के वर्षों में रूस का संबंध चाहे चीन के साथ जैसा भी हो गया है लेकिन भारत के साथ भी रूस का संबंध बहुत अच्छा रहा है. इसलिए मुझे नहीं लगता है कि भारत कभी भी नाटो में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो पाएगा और यह भू-राजनीति दृष्टिकोण से भी संभव नहीं है. रूस से भारत को कोई डायरेक्ट थ्रेट भी नहीं है. इसलिए भारत को एक संतुलित विदेश नीति की तरफ ही देखना चाहिए जहां पर दोनों को ही इंगेज करके रखे.  किसी के साथ इस हद तक करीब नहीं चले जाएं कि लोग हमको ये कहे कि हम उसके साथ हो गए. हां ये हो सकता है कि हम सामरिक मुद्दों पर या फिर आतंकवाद के मुद्दे पर नाटो के साथ सहयोग कर सकते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भारत को नाटो की सदस्यता ले लेनी चाहिए. मुझे नहीं लगता है कि निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना भी है.


(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)