बीते कुछ दिनों से बिहार की राजनीति राष्ट्रीय सुर्खियों में है. नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं हो रही है. लेकिन इन सबके बीच जो सबसे ख़ास पहलू है, वो है आरजेडी नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का बढ़ता कद.


लंबे वक्त तक तेजस्वी यादव की पहचान बिहार की राजनीति के शूरमा रहे लालू यादव के बेटे के तौर पर होते रही, लेकिन पिछले चार साल में तेजस्वी यादव इस छवि से निकलकर खुद की अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे हैं. 


बिहार की राजनीति को बेहतर तरीके से समझने वाले लोग इस बात को अब महसूस करने लगे हैं कि आने वाला वक्त न तो नीतीश का है और न ही उपेन्द्र कुशवाहा का. सूबे की जनता के बीच बढ़ता जनाधार और चुनावी नतीजों के लिहाज से तेजस्वी बिहार की राजनीति के चमकते सितारे हैं. ये सिर्फ अटकल या अनुमान भर नहीं है. तेजस्वी यादव ने इसे 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में साबित भी किया है.


जब 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी ने जीत का परचम लहराते हुए लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन का अंत कर दिया था, तो सबके ज़ेहन में यही सवाल कौंध रहा था कि भविष्य में लालू के बाद आरजेडी का क्या हश्र होगा. इस सवाल का जवाब 15 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में तेजस्वी ने सूबे की जनता के साथ ही राजनीतिक विश्लेषकों को भी दे दिया.


उम्र के लिहाज से भी अभी तेजस्वी काफी युवा हैं. 33 साल के तेजस्वी ने प्रदेश की राजनीति में दखल देना तो 21-22 साल में ही शुरू कर दिया था. 2010 के चुनाव में वे पार्टी के लिए प्रचार अभियान में शामिल हुए थे. लेकिन सियासी फैसलों में उनका पुरज़ोर दखल 2015 के चुनाव में देखने को मिला. जब 2015 में विधानसभा चुनाव होना था, तो उस वक्त नीतीश की राहें बीजेपी से अलग हो चुकी थी. लालू और नीतीश दोनों के सामने 2014 के लोकसभा चुनाव का सबक था. इसमें आरजेडी और जेडीयू अलग-अलग चुनाव लड़ी थी, जिसका फायदा बीजेपी गठबंधन को मिला था. आरजेडी को महज़ 4 और जेडीयू को तो सिर्फ 2 लोक सभा सीटों पर ही जीत मिली थी. एनडीए गठबंधन ने 31 सीटों पर कब्जा कर लिया था.


लालू को नीतीश से गठबंधन की दी सलाह


ऐसे में 2015 विधानसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू अगर अलग-अलग चुनाव लड़ते तो बीजेपी गठबंधन के लिए राह काफी आसान हो जाती. कहा जाता है कि तेजस्वी यादव ही वो शख्स थे, जिन्होंने इस बात को भांपते हुए अपने पिता लालू यादव को नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया. इसी के बाद जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने महागठबंधन बनाकर बीजेपी को चुनौती दी. इसका असर ये हुआ कि महागठबंधन दो तिहाई से ज्यादा बहुमत लाकर बिहार में सरकार बनाने में कामयाब रहा. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और महज 26 साल की उम्र में तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी तो बनी ही, उसे पिछली बार के मुकाबले 58 सीटों का फायदा भी हुआ. ये एक तरह से आरजेडी की खिसकती सियासी जमीन की घर वापसी भी थी.


बुरे वक्त में भी नहीं खोया धैर्य


जुलाई 2017 में बिहार की राजनीति ने फिर से करवट ली और तेजस्वी के सामने नई चुनौती खड़ी हो गई. नीतीश ने एक बार फिर से लालू का साथ छोड़ते हुए बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. ये वो वक्त था, जब लालू यादव उम्र, बीमारी और चारा घोटाले में जेल की सज़ा और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य होने की वजह से धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से अलग हो चुके थे. लेकिन तेजस्वी यादव ने हार नहीं मानी. मार्च 2018 आते-आते तक आरजेडी की कमान पूरी तरह से तेजस्वी यादव ने संभाल ली. नीतीश-बीजेपी के गठबंधन के सामने आरजेडी को फिर से खड़ा करने की चुनौती उनके सामने थी. सबसे बड़ी परीक्षा 2019 के लोकसभा चुनाव में होनी थी. इसमें आरजेडी का प्रदर्शन सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया. पार्टी को एक भी लोकसभा सीट पर जीत नहीं मिली. उसके वोट शेयर में भी करीब 5 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. ये लालू और आरजेडी के इतिहास के लिए पहला मौका था जब उनकी पार्टी को लोकसभा चुनाव में कोई भी सीट हासिल नहीं हुई थी. दरअसल ये पहला चुनाव था जिसमें तेजस्वी यादव अपने पिता लालू यादव की छत्र-छाया से पूरी तरह से बाहर निकल कर आरजेडी को फिर से बिहार में एक नई पहचान दिलाना चाहते थे. हालांकि इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली. इन नतीजों से सियासी गलियारे में आरजेडी के अस्तित्व को लेकर सवालिया निशान भी खड़े किए जाने लगे. फिर भी तेजस्वी ने आस नहीं छोड़ी और पार्टी को मजबूत करने में जुटे रहे, जिसका असर अगले साल ही हुए विधानसभा चुनाव में दिखा. 


2020 विधानसभा चुनाव में दिखाया दमखम


अक्टूबर-नवंबर 2020 में विधानसभा चुनाव हुआ. तेजस्वी को बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के तौर पर मौजूद अकाट्य चुनौती से निपटना था. ये हम सब जानते हैं कि बिहार की राजनीति में ख़ासकर विधानसभा चुनाव में जातिगत समीकरणों का कितना महत्व है और इस लिहाज से बीजेपी-जेडीयू के साथ होने से बनने वाले समीकरण की काट खोजना काफी मुश्किल है. यही वजह थी कि उस वक्त के तमाम चुनाव पूर्व सर्वे में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को आसानी से जीतता हुआ बताया गया था. लेकिन तेजस्वी यादव ने इस चुनाव में अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ से परिचय कराया और बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को बहुमत हासिल करने में नाकों चने चबवा दिए. तेजस्वी ने कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. बीजेपी की अगुवाई में एनडीए गठबंधन 125 सीटें जीतकर किसी तरह से बहुमत का आंकड़ा पाने में कामयाब रहा. इन सबके बीच महागठबंधन को 110 सीटें हासिल हुई. 


2020 में अभिमन्यु साबित हुए तेजस्वी


2020 में बिहार में सरकार भले ही बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की बनी, लेकिन तेजस्वी यादव ने साबित कर दिया कि आने वाले वक्त में आरजेडी फिर से बिहार की जनता के लिए विकल्प बनने को पूरी तरह से तैयार है. तेजस्वी ने आरजेडी को 75 सीटों पर जीत दिलाकर सबसे बड़ी पार्टी बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आरजेडी के वोट शेयर में भी करीब 5 फीसदी का इजाफा हुआ. हालांकि कुछ लोग कह सकते हैं कि पिछले चुनाव के मुकाबले आरजेडी को 5 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि उस वक्त आरजेडी और जेडीयू मिलकर चुनाव लड़े थे. विधानसभा चुनाव के नजरिए से ये पहला मौका था जब तेजस्वी स्वतंत्र होकर हर फैसले कर रहे थे और नतीजों ने ये साबित भी कर दिया कि तेजस्वी ही बिहार की राजनीति के अभिमन्यु हैं. इस चुनाव में तेजस्वी बिहार के सियासी रण को भेदते-भेदते रह गए, जबकि उनके खिलाफ नरेन्द्र मोदी और नीतीश जैसे राजनीति के माहिर खिलाड़ी हुंकार भर रहे थे. कहां 2019 के लोकसभा चुनाव में आरडेजी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी, वहीं 2020 में नीतीश-बीजेपी के साथ रहने के बावजूद आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बन गई. ये तेजस्वी यादव के राजनीतिक दूरदर्शिता का ही परिणाम था.


बिहार की राजनीति के चमकते सितारे


हर कोई जानता है कि लंबे वक्त से बिहार के सियासी दांव-पेंच में नीतीश को कोई टक्कर नहीं दे पा रहा है. यही वजह है कि 17 साल से नीतीश बिहार की राजनीति के सिरमौर बने हुए हैं. इसके बावजूद भी तेजस्वी यादव ने अगस्त 2022 में नया सियासी दांव खेला. उन्होंने बीजेपी से अलग कर नीतीश को अपने पाले में मिला लिया. तेजस्वी एक बार फिर से 10 अगस्त 2022 को बिहार के उपमुख्यमंत्री बन गए. तेजस्वी पर भले ही कम पढ़े-लिखे होने का तमगा लगा हो, लेकिन वो कम उम्र में ही राजनीतिक बारीकियों को बेहद अच्छे से समझने लगे हैं. उन्हें पता है कि आरजेडी और जेडीयू का मिश्रण बिहार के सियासी समीकरणों के लिहाज से अचूक है. यहीं वजह है कि लालू के खिलाफ नीतीश के तमाम विरोधी बयानों के बावजूद तेजस्वी ने 2015 की तरह ही 2022 में हाथ मिलाकर पार्टी को मजबूत करने का काम किया. तेजस्वी ये भी समझते हैं कि अगर ये गठबंधन इसी तरह जारी रहा तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार में ज्यादा सीटें जीतने की बीजेपी के मंसूबे पर पानी फिर सकता है. इतना ही नहीं पिछले कुछ महीनों से नीतीश भी बार-बार इस तरह का बयान और संकेत दे रहे हैं कि भविष्य में बिहार की कमान तेजस्वी ही संभालने वाले हैं. इन बातों से जाहिर है कि बिहार में अगला विधानसभा चुनाव 2025 में होना है और आरजेडी के साथ अगर नीतीश बने रहते हैं, तो तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने की प्रबल संभावना है.


पार्टी की छवि बदलने में कामयाब


बिहार में लालू यादव की एक अलग छवि थी. पिछड़े, दलितों और मुस्लिमों के वोट समीकरणों को साधते हुए लालू-राबड़ी ने 15 साल सत्ता चलाया. इस दौरान लालू यादव पर चारा घोटाले में शामिल होने और अपराधियों को शह देने के भी आरोप लगते रहे. बाद में लालू चारा घोटाले से जुड़े कई मामलों दोषी भी साबित हुए और जेल भी गए. जब 2005 में बिहार की सत्ता पर से आरजेडी का कब्जा हटा, तो उस वक्त पार्टी की छवि किसी लिहाज से उतनी अच्छी नहीं थी. पिछले 8 साल में तेजस्वी यादव ने इस छवि को बदलने की पूरी कोशिश की है. इसके लिए उन्होंने अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी बार-बार धैर्य और संयम रखने की अपील की है. साथ ही किसी भी तरह के हुड़दंग और हिंसा से दूर रहने को कहते रहे हैं. वे बड़ी ही बेबाकी से बीजेपी के खिलाफ मुखर भी रहते हैं. चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो या केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी नेता के तौर पर उनके खिलाफ आग उगलने में वे कभी भी पीछे नहीं रहते हैं. तेजस्वी पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं और केंद्रीय जांच एजेंसियों की तरफ से कार्रवाई भी होते रही है, इन सबके बावजूद भी तेजस्वी यादव के तेवर में कभी भी कोई कमी नज़र नहीं आई है.


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