ब्लॉग: जिस सिस्टम को तोड़ने के इरादे से मोदी सत्ता में आए थे आज उसी में फंसे हैं
मोदी सरकार के चार साल पूरे हो रहे हैं और सभी सर्वे बता रहे हैं कि मोदी की लोकप्रियता 2014 जैसी ही बरकरार है. सर्वे बताते हैं कि आमतौर पर लोग मोदी सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं. लोगों को उम्मीद है कि मोदी सरकार देश को सही दिशा में ले जा रही है. लेकिन इसके साथ-साथ सभी सर्वै बता रहे हैं कि लोग महंगाई की मार से दुखी हैं. सभी सर्वे बता रहे हैं कि बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं लोग. सभी सर्वे बता रहे हैं भले ही सत्ता के गलियारों से दलाल गायब हो गये हों लेकिन रोजमर्रा के काम में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है.
कुल मिलाकर सभी सर्वे बता रहे हैं कि है कि जिस सिस्टम को तोड़ने के इरादे से मोदी सत्ता में आए थे आज मोदी सरकार उसी सिस्टम को तोड़ नहीं पाई है उल्टे उसी सिस्टम का अंग बनती नजर आ रही है. मोदी लोकप्रिय तो हैं और लोगों ने उनसे उम्मीद भी नहीं छोड़ी है लेकिन लोग अब सवाल उठाने लगे हैं. लोग पूछने लगे हैं कि जिन योजनाओं का इतना गुणगान किया जा रहा है क्या वाकई में आम आम गरीब, दलित, मजदूर, किसान, महिला को उतना फायदा मिल रहा है या नहीं.
पिछले दिनों प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत राजस्थान के जैसलमेर जिले जाना हुआ. वहां हाईवे पर एक छोटे से कस्बे पर चाय पीने के लिए रुका. लोगों से बात होने लगी. एक ने कहा कि वह पास के गांव का रहने वाला है. गांव में करीब 290 घर हैं जिसमें से अभी सवा सौ में शौचालय बनने बाकी हैं लेकिन कलेक्टर साहब ने पूरे गांव को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है. ऐसे में सवा सौ घरों के लोग सुबह लोटा लेकर निकलते हैं तो पुलिस प्रशासन के लोग पीछे पड़ जाते हैं.
आगे वह आदमी जानना चाहता था कि उसने अखबारों और टीवी चैनलों में शौचालय बनाने की दिशा में हो रहे काम की बहुत तारीफ पढ़ी और देखी है क्या वास्तव में पूरे देश में ऐसा हो रहा है और उनका गांव ही हाशिए पर छूट गया है या फिर दूसरे गांवों की भी यही हालत है .सब कुछ क्या आंकड़ेबाजी तक सिमट कर रह गया है. आगे उसी आदमी ने कहा कि उसने पिछली बार मोदी के नाम पर वोट दिया था, वह इस बार भी मोदी के नाम पर ही वोट देने की सोच रहा है लेकिन वह सच जानना चाहता है. वह जानना चाहता है कि स्वच्छता अभियान और शौचालय निर्माण की दिशा में कितना कुछ हो गया है और कितना कुछ होना बाकी है.
बीजेपी के लिए राहत की बात है कि वह आदमी रोज सुबह शौच के लिए जाते समय पुलिस प्रशासन के डंडे सहता है, कलेक्टर को कोसता है लेकिन फिर भी मोदी को ही वोट देने की तमन्ना भी रखता है. उसका मोदी में चार साल बाद भी विश्वास बना हुआ है यह बीजेपी के लिए अच्छा संकेत है लेकिन योजनाओं के सच पर उठ रहे सवाल उसके लिए चिंता का सबब होना चाहिए. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना की बात करें तो बताया जा रहा है कि पांच करोड़ लोगों को ग्यारह लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज दिया जा चुका है लेकिन हकीकत यही है कि इस योजना के तहत 91 फीसद लोगों को पचास हजार रुपये तक का ही कर्ज दिया गया. यहां भी औसत रुप से 23 हजार का कर्ज ही मिला. इस 23 हजार में भी दस फीसद का ब्याज देना होगा यानि दो हजार तीन सौ रुपये ब्याज में निकल जाएंगे. बाकि के बचे करीब 21 हजार रुपये में कौन सा नया धंधा शुरु किया जा सकता है और कितने लोगों को रोजगार दिया जा सकता है यह बात नीति आयोग बेहतर ढंग से बता सकता है.
मनरेगा के तहत चार फीसद लोगों को भी सौ दिनों का रोजगार नहीं मिल पाता. यह आंकड़ा यूपीए सरकार के समय भी था और एनडीए सरकार के समय भी आंकड़ा आगे नहीं खिसका है. तब गड्ढे खोदे और भरे जाने के आरोप लगते थे. आज भी उसी तरह गड्ढे खोदे जा रहे हैं और गड्ढे भरे जा रहे हैं. लाखों की संख्या में खेत तालाब बनाने, मनरेगा को ग्रामीण सड़क संपर्क योजना के साथ जोड़ने, परिसंपत्ति निर्माण पर जोर देने की बातें तो बहुत हुई हैं लेकिन हकीकत में मनरेगा मजदूरी को आधार और उसके जरिए सीधे बैंकों से लिंक करने की दिशा में ही काम हो सका है. पहले भी मजदूरी पूरी नहीं मिलती थी, देर से मिलती थी. आज भी वही हालत है. पहले भी राज्यों के करोड़ों रुपये केन्द्र रोक लेता था आज भी कुछ बदला नहीं है. सिस्टम सरकारी बाबू चला रहे हैं और अपनी मर्जी से चला रहे हैं.
हाल ही में नोएडा में एक सिपाही ने थाने की उगाही की पूरी लिस्ट जारी कर दी. फलाना होटल वाले से पांच हजार रुपये महीना, फलाना दुकान गोदाम वाले से सात हजार रुपये महीना आदि. यूपी में तो एनडीए के ही एक साथी दल के नेता राजभर कह चुके हैं कि थानों के रेट दोगुने हो गये हैं. कुल मिलाकर कहना यही है कि आम आदमी को पुलिस, कचहरी, अस्पताल, लाइसेंस बनवाने, जन्म मुत्यु प्रमाण पत्र, पटवारी के यहां से जमीन का खसरा नंबर निकलवाने में जैसी दिक्कतें पहले आती थीं कमोबेश वैसी ही आ रही हैं. इस दिशा में बहुत काम हो सकता था. सूचना के अधिकार को यहां मजबूती से लागू किया जा सकता था, नागरिकों के काम तय समय में हो और न होने पर जवाबदेही तय हो और आर्थिक दंड की व्यवस्था हो ऐसी पुख्ता व्यवस्था की जा सकती थी लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ होना बाकी है.
एक अध्ययन बताता है कि सूचना के अधिकार के तहत समय पर जवाब नहीं देने पर किसी भी अधिकारी पर जुर्माना नहीं लगाया गया है. यहां वैसे नागरिक भी कम दोषा नहीं हैं. उन्हें काम के बदले पैसा देने की ऐसी आदत लग गयी है कि वह शिकायत करने के बजाए ले दे कर काम करवाने में ज्यादा यकीन करने लगे हैं. यहां भी सिस्टम को न तो तोड़ा जा सका है और न ही बदला जा सका है. आज बीजेपी की केन्द्र में सरकार है, देश के बीस राज्यों में सरकार है. अगर केन्द्र और बीस राज्यों में ही इस दिशा में प्रयास किए गये होते तो कहानी दूसरी होती. न खाऊंगा और न खाने दूंगा का नारा सार्थक साबित हो पाता.
हम बड़ी बड़ी बातें नहीं कर रहे हैं. मोदी ने दुनिया भर में भारत का मान बढ़ाया, मोदी ने दिल्ली के गलियारों से दलालों का बाहर कर दिया, मोदी ने स्टार्ट अप से लेकर कौशल विकास की नयी नयी योजनाएं शुरु की, मोदी के जन धन बैंक खातों में 80 हजार करोड़ से ज्यादा रुपया आया, मोदी ने टैक्स रिटर्न भरने वालों का दायरा दोगुना कर दिया, मोदी ने नीम कोटिंग यूरिया के जरिए किसानों को राहत दी आदि आदि और आदि. हम आम आदमी के जिंदगी आसान होने या नहीं होने या यूं कहे कि होने न होने के बीच क्या कसर रह गयी की बात कर रहे हैं. मोदी आम भारतीय परिवार से आते हैं. उन्होंने आम आदमी को ऐसे मोर्चों पर परेशान होते देखा है.
ऐसे में आम आदमी उनसे उम्मीद रखता ही है. आखिर वह कौन सी मशीन है जो आधार कार्ड और अन्य तमाम जरुरी कागजात होने के बावजूद बीस लाख लोगों को उनके राशन से महरुम कर देती है. हाल की एक स्टडी बताती है देश में बीस लाख लोग अंगुली की छाप पकड़ नहीं पाने की वजह से राशन की दुकान से खाली हाथ लौट आते हैं. एक गांव में एक राशन डीलर का कहा याद आता है. साहब, मैं तो इन राशन कार्ड धारकों को पहचानता हूं, बीस साल से पहचानता हूं लेकिन मैं क्या करुं यह मशीन (पीओएस मशीन) नहीं पहचानती. अब जिसे मशीन नहीं पहचानती उसे मैं राशन कैसे दे सकता हूं. पहचान का यह संकट 2019 में अपना कितना असर दिखाएगा यह देखना दिलचस्प रहेगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)