रेवड़ी कल्चर से आर्थिक और सामाजिक स्थिरता पर बढ़ता खतरा

देश में चुनावी राजनीति का स्तर लगातार बदलता जा रहा है. बीते कुछ वर्षों में फ्रीबीज यानी रेवड़ी कल्चर यानी चुनाव के समय जनता को मुफ्त सुविधाएं और योजनाएं देने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है. मंगलवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवृत्ति पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में मुफ्त की घोषणाएं करना सही नहीं है. इससे समाज में कार्यसंस्कृति प्रभावित होती है और लोग मेहनत करने की बजाय मुफ्त की योजनाओं पर निर्भर होने लगते हैं. अदालत ने यह भी कहा कि सरकारों को मुफ्त राशन और पैसे देने की बजाय रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए ताकि लोग मुख्यधारा में शामिल हो सकें और आत्मनिर्भर बन सकें.
रेवड़ी कल्चर से तात्पर्य उस सिस्टम से है जिसमें राजनीतिक दल चुनाव से पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की योजनाओं की घोषणा करते हैं. इसमें मुफ्त राशन, बिजली, पानी, लैपटॉप, मोबाइल फोन, स्कूटी, साइकिल और यहां तक कि नकद राशि भी शामिल होती है. हालांकि, इन योजनाओं से अल्पकालिक लाभ तो होता है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह आर्थिक विकास को बाधित कर सकता है. जब लोगों को बिना मेहनत किए ही सुविधाएं मिलने लगती हैं, तो उनमें काम न करने की प्रवृत्ति विकसित होती होती है, इससे उनकी कार्यक्षमता और उत्पादकता प्रभावित होती है. सरकार द्वारा मुफ्त योजनाओं पर भारी खर्च किया जाता है, जिससे देश और राज्यों की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता है.
उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश में 2022 में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद, मार्च 2022 तक राज्य पर 69,000 करोड़ रुपये का कर्ज था, जो मार्च 2024 तक बढ़कर 86,600 करोड़ रुपये हो गया. मार्च 2025 तक यह कर्ज बढ़कर लगभग 95,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है. इस बढ़ते कर्ज का मुख्य कारण मुफ्त बिजली, महिलाओं को मासिक भत्ता और पुरानी पेंशन योजना जैसी लोकलुभावन योजनाओं का कार्यान्वयन है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2024 तक सभी राज्य सरकारों पर कुल 75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था, जो मार्च 2025 तक बढ़कर 83.31 लाख करोड़ रुपये से अधिक होने का अनुमान है.
देश में सबसे अधिक कर्ज तमिलनाडु पर है, जिसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक का स्थान है. लेकिन ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों को इस बात का एहसास नहीं है. वर्ष 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 'रेवड़ी कल्चर' के कारण राज्यों के बढ़ते खर्च पर चिंता व्यक्त की थी. उन्होंने कहा कि मुफ्त की रेवड़ी की राजनीति की वजह से कई राज्य बेतहाशा खर्च कर रहे हैं, जिससे राज्य डूबते चले जा रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.
फ्रीबीज के जो पैसे होते हैं, उनका उपयोग बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने में किया जाना चाहिए. जब लोगों को मुफ्त की चीजें आसानी से मिलने लगती हैं, तो वे मेहनत करने से कतराने लगते हैं. इससे समाज में श्रम का महत्व कम होने लगता है और एक तरह से 'आलस्य की संस्कृति' विकसित हो जाती है. कई बार राजनीतिक दल अपने चुनावी फायदे के लिए लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन योजनाओं को पूरी तरह लागू नहीं कर पाते. इससे जनता का विश्वास भी प्रभावित होता है. मुफ्त योजनाओं का वित्तीय बोझ सरकारों के बजट को असंतुलित करता है, जिससे दीर्घकालिक विकास की योजनाओं पर असर पड़ता है.
यह कहना गलत होगा कि सभी मुफ्त योजनाएं समाज के लिए नुकसानदायक हैं. कुछ योजनाएं वास्तव में गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करती हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजनाएं. इनका उद्देश्य समाज में समानता लाना और कमजोर तबकों को ऊपर उठाना होता है. लेकिन चुनावी लाभ के लिए मुफ्त में चीजें बांटना और बिना किसी दीर्घकालिक योजना के संसाधनों का वितरण करना, एक स्थायी नीति नहीं हो सकती.
भारत एक युवा देश है, जहां 65 प्रतिशत से अधिक आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है. ऐसे में सरकारों को ऐसी योजनाओं पर ध्यान देना चाहिए जो युवाओं को रोजगार देने में मदद करें, जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें. सरकार को युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिए. स्टार्टअप इंडिया, मुद्रा योजना जैसी योजनाओं को और अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है.
मुफ्त योजनाओं के बजाय सरकारों को व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास पर निवेश करना चाहिए ताकि युवा अपने पैरों पर खड़े हो सकें. सरकार को ऐसे क्षेत्रों में निवेश करना चाहिए जिससे नए उद्योग स्थापित हों और रोजगार के अवसर बढ़ें. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और कृषि आधारित उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. छोटे उद्योग रोजगार सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. सरकार को इन्हें अधिक समर्थन और वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए.
यदि हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो कई देशों ने मुफ्त योजनाओं की बजाय रोजगार और आर्थिक सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया है. दक्षिण कोरिया ने अपने शिक्षा और तकनीकी प्रशिक्षण प्रणाली को मजबूत किया, जिससे वहां के युवा वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ सके. उनकी ‘स्मार्ट एजुकेशन’ नीति और उच्च गुणवत्ता वाले व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया. जर्मनी में ‘ड्यूल एजुकेशन सिस्टम’ है, जिसमें युवा व्यावहारिक प्रशिक्षण और शिक्षा साथ-साथ प्राप्त करते हैं, जिससे वे सीधे उद्योगों में रोजगार पा सकते हैं.
चीन ने अपने विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत किया, जिससे करोड़ों लोगों को रोजगार मिला. चीन की सरकार ने स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देकर ‘मेड इन चाइना’ नीति के तहत वैश्विक बाजारों में अपनी पकड़ बनाई. सिंगापुर ने उच्च तकनीकी शिक्षा और स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देकर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया. इसके विपरीत, कुछ देशों में मुफ्त योजनाओं का अधिक बोझ अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. वेनेजुएला में मुफ्त सेवाओं और सरकारी खर्चों की अधिकता के कारण आर्थिक संकट आया और मुद्रास्फीति रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई.
भारत को इन वैश्विक रणनीतियों से सीखकर दीर्घकालिक विकास की ओर बढ़ना चाहिए, जिससे देश में रोजगार सृजन और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित हो सके. सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बिल्कुल सही समय पर आई है, जब देश को आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत है. रेवड़ी कल्चर जनता को तात्कालिक राहत तो देता है, लेकिन यह किसी भी राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक स्थिरता के लिए सही नहीं है.
सरकारों को मुफ्त सुविधाएं देने की बजाय रोजगार सृजन और आर्थिक विकास की ओर ध्यान देना चाहिए, ताकि हर नागरिक खुद के पैरों पर खड़ा हो सके और देश को आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे सके. जब तक सरकारें रोजगार और कौशल विकास को प्राथमिकता नहीं देंगी, तब तक रेवड़ी कल्चर से होने वाले नुकसान से बचना मुश्किल होगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]
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