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23 साल का लड़का कैसे बना शहीद-ए-आज़म?

आजादी की लड़ाई में शहीद तो बहुत हुए, सीने पर गोली झेली, बहुतों की गर्दन ने फांसी झूली. मगर मात्र 23 साल का एक लड़का शहीद-ए-आजम कैसे हुआ? सोचा है कभी? वजह ये नहीं थी कि हथियार उठाया, वजह ये थी कि उन्होंने एक हाथ में हथियार, दूसरे में किताब उठाई. कहानी को थोड़ा और शुरू से समझना होगा. साल 1910. अंग्रेजी यातना सहकर एक चाचा स्वर्णसिंह की मौत हो चुकी थी, दूसरे चाचा अजीत सिंह अंग्रेजों से बचने के लिए विदेश में फरारी काट रहे थे. घर में एक चाची विधवा थीं, दूसरी ना विधवा, ना सधवा. वो गोद में लेकर 3 साल के भगत सिंह को प्यार करती और नजरें मिलते ही रो पड़तीं.

कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, तो भगत के भी दिखने लगे थे. दुधमुहे दातों वाले 3 साल के भगत सिंह बड़ी चाची के गले में बाहें डालकर कहते 'रोओ मत, मैं अंग्रेजों को मार भगाऊंगा और चाचा जल्द लौट आएंगे. दूसरी चाची से कहते- मैं अंग्रेजों से बदला लूंगा.

बचपन में ही बंदूकें बो दी थीं...

एक दिन बाग की जमीन तैयार कर आम के पौधे रोपे जा रहे थे, पिता सरदार किशन सिंह अपने मित्र मेहता नंदकिशोर को बाग दिखाने आए तो भगतसिंह को भी साथ लाए. बेटा पिता की उंगली छोड़ खेत में जा बैठा और पौधों की तरह तिनके रोपने लगा. पिता ने पूछा- क्या कर रहे हो?

जवाब आया- बंदूकें बो रहा हूं...

भगत सिंह का उत्तर सुन दोनों दंग रह गए और उनकी मुस्कान ने बता दिया कि क्रांति के बीज बोए जा चुके हैं. स्कूल की किताबों में दिल कम ही लगता था, मगर घर में रखी चाचा अजीत सिंह, लाला हरदयाल और सूफी अंबाप्रसाद की लिखी पचासों किताबें चौथी कक्षा में ही पढ़ गए. पूरा खानदान ही क्रांतिकारी था. क्या अद्भुत परिवार था, दादा अर्जुन सिंह, पिता किशन सिंह और मां आर्यसमाजी तो दादी और दोनों चाचियां पक्की सिखड़ी.

पूरे परिवार की धार्मिक मान्यताएं बंटी हुई थी, मगर सब एक-दूसरे की धार्मिक आस्थाओं का पूरा सम्मान करते. एक उदाहरण भगतसिंह के यज्ञोपवीत के वक्त ही देखने को मिल जाता है.. हिंदू प्रथा से उनका मुंडन होना था, नाई आया. मगर दादी जयकौर की आस्था सिख धर्म में थी, केशों के प्रति मन में सहज धर्म भावना. दादी ने आग्रह किया तो केश नहीं काटे गए.

शादी से पहले घर छोड़ दिया

परिवार क्रांतिकारी था तो भगत सिंह कैसे अछूते रहते. 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन जलियांवाला कांड हुआ. 12 साल के भगतसिंह अगले दिन स्कूल ना जाकर सीधे अमृतसर पहुंच गए, वहां धरती का कण-कण कराह रहा था. शहर में आतंक था, गोरे भेड़िए किसी को भी अकारण गोली मार दे रहे थे, बेखौफ भगत सिंह फिर भी जलियांवाला बाग पहुंचे.

शहीदों के खून से रंगी मिट्टी को चुटकी में भरकर माथे पर टीका लगाया और फिर थोड़ी मिट्टी एक छोटी सी शीशी में भरकर देर से घर पहुंचे. घर पर बहन को शीशी दिखाई, सारी कहानी बताई और फूल तोड़कर लाए, शीशी के चारों ओर रख दिया. फूल चढ़ाने का ये सिलसिला बहुत दिनों तक चला. डीएवी स्कूल में भी क्रांति की गतिविधियों में भाग लेते रहे, देश के प्रति ऐसे समर्पित हो चुके थे कि शादी का ख्याल त्याग दिया. फिर भी जानते हैं उनकी सगाई तय हो गई थी. मगर सगाई के कुछ दिन पहले ही वो घर से लाहौर गए और वहां से फरार हो गए. जाते-जाते पिता की मेज पर चिट्ठी रख गए

'' पूज्य पिताजी

  नमस्ते

 मेरी जिंदगी मकसदे-आला यानि आजादी-ए-वतनके उसूल के लिए वक्फ हो चुकी है...

इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी ख्वाहिशात बायसे कशिश नहीं रही. उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे- आपका ताबेदार भगत सिंह''

भगत सिंह के आदर्श कौन थे ?

यूं तो भगत सिंह की जिंदगी छोटी ही रही, मगर उसे भी चंद लाइनों में समेट पाना नामुमकिन है. लाहौर से कानपुर गए, वहां गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ लेखन करते रहे. कानपुर में ही मार्क्सवाद को पढ़ना शुरू किया. 1920 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े, 12 फरवरी 1922 को चौरीचौरा कांड के बाद जब गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया तो भगतसिंह ने अपनी राहें अलग कर ली. वैसे भी भगतसिंह 1914 में मात्र 18 साल की उम्र में फांसी चढ़ने वाले करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते थे, उनकी तस्वीर भी मेले से खरीद लाए थे.

आजाद, सुखदेव,राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, सुरेश भट्टाचार्या के साथ क्रांति का काफिला अलग रास्ते पर निकल पड़ा. आगे चलकर भगत सिंह और उनके साथियों अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या की. उसी जुर्म में फांसी की सजा भी हुई.

विचारों ने बनाया शहीद-ए-आज़म

भगत सिंह ने हिंसा रास्ता जरूर चुना मगर वो खुद कहते थे. "क्रांति शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है. हथियार और गोला बारूद क्रांति के लिए कभी-कभी आवश्यक हो सकते हैं लेकिन इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है."

भगत सिंह साफ लिखते हैं कि

"बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हैं"

भगत सिंह को ढूंढना है तो बंदूक की नाल और बारूद की गंध में नहीं, किताबों की सुगंध में तलाशिए. भगत सिंह, ऊंचे स्वर में लगते नारों की जगह शांत भाव से लिखे अपने लेखों में मिलेंगे. उन पर लिखी गई किताबों में दिखेंगे. भगत सिंह अंग्रेजी हुकूमत के लिए वाकई घातक थे क्योंकि वो हथियारबंद से ज्यादा वैचारिक क्रांतिकारी थे. 23 साल की उम्र इतनी किताबें पढ़ ली, जितनी आम आदमी ताउम्र नहीं पढ़ पाता.

और पढ़ा लिखा आदमी खिलाफ है तो सर्वशक्तिमान सत्ता के लिए सबसे घातक होता है. इसलिए गांधीजी की तमाम कोशिशों और चिट्ठियों के बावजूद लॉर्ड इरविन ने फांसी माफ नहीं की.

गांधी जी भी भगत सिंह को नहीं बचा सके

अंतिम दिन गांधी जी ने चिट्ठी में इरविन से वादा किया था कि भगत सिंह का संगठन अब कोई हिंसक गतिविधि नहीं करेगा. लेकिन एक तरफ पंजाब पुलिस का लॉर्ड इरविन पर दबाव और दूसरी तरफ भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव. इरविन बड़ा दिल नहीं दिखा पाया. फांसी होकर रही. लेकिन फांसी ने...  भगत सिंह को ना सिर्फ अमर कर दिया, बल्कि शहीद-ए-आजम भी बना दिया. कुछ लोग कहते हैं फांसी रोकने के लिए गांधी जी ने कुछ नहीं किया, सच्चाई ये ऐसा जो लोग ये कहते हैं वो उन्हीं के अनुयायी हैं, जो अंग्रेजों के अंगूठे तले ना कुछ करते थे,ना करना चाहते थे. गांधी तो वो नेता थे जो वैचारिक रूप से दूसरे छोर पर खड़े होने के बावजूद अंतिम दिन तक फांसी रुकवाने के लिए प्रयासरत थे.

भगत सिंह का असली गुनेहगार कौन ?

उनके असली गुनहगार तो उन्हीं के संगठन के साथी हंसराज और जयगोपाल थे. जिन्होंने सरकारी गवाह बनकर भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी. जयगोपाल की ही गलती से स्कॉट के बदले सांडर्स मारा गया था, लेकिन गांधी जी से द्वेष की वजह से कई लोग उनको निशाना बनाते हैं, लेकिन सरकारी गवाह बनने वाले उन्हीं के साथियों को कोई कुछ नहीं कहता. शायद इससे उन्हें वैचारिक और राजनीतिक फायदा नहीं होता.

भगत सिंह हिंसा के रास्ते पर थे, मगर जब वो बम-बंदूक को क्रांति का पर्यायवाची नहीं बताते हैं तो साथ ही ये भी बताते हैं कि एक गांधी उनमें भी है. उनकी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजों से नहीं संपूर्ण साम्राज्यवाद के खिलाफ थी. भगत सिंह की फोटो स्टेटस लगाना आसान है,बम-बंदूकों के पीछे आकर्षित हो जाना भी,मगर भगत को समझना मुश्किल है. इसके लिए उनके लेखों को पढ़ना होगा. किताबों में उतरना होगा. और यकीं मानिए उन्हें पढ़ लिया तो नारों के जोर पर चलते राष्ट्रवाद और असली राष्ट्रवाद का फर्क जान जाएंगे.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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