लोकसभा चुनाव को लिए बिहार में एनडीए के सीट बंटवारे का फार्मूला लगभग तय हो चुका है. लेकिन उसमें कुछ पेंच फंसे होने की बात सामने आ रही है. पशुपति पारस ने विद्रोह के लिए झंडा सीधे तौर पर उठा लिया है. उनके मुताबिक अगर उनकी बात गठबंधन में नहीं सुनी गई तो वो कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है. पारस के अलावा जिस प्रकार से उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए ने दरकिनार किया है, वो भी कोई रुख अपना सकते हैं. देश में सिर्फ एक राज्य बिहार ही है जहां पर भी बीजेपी को लोकसभा सीटों के बंटवारे को लेकर काफी मशक्कत करना पड़ रहा है. बिहार में जो राजनीतिक लड़ाई में जो पार्टियां पार्टनर है, उनको चुनने और उनके साथ हटने की फैसले में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.


बीजेपी के लिए बिहार टफ बैटलग्राउंड


नीतीश कुमार और तेजस्वी की सरकार के दौरान बिहार में जो एक माइंडसेट हुआ है, उसको लेकर भी बीजेपी को समझ है कि बिहार में एक कड़ी टक्कर है. बीजेपी के लिए बिहार एक मुश्किल जगह बनती जा रही है. अभी तक बिहार में सीट शेयरिंग पर बात बनते नहीं दिख रही है. पहले जहां पशुपति पारस केंद्र में मंत्री हुआ करते थे, उनके साथ कुछ सांसद हुआ करते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. पूरा समीकरण अब बदलता हुआ दिख रहा है. पशुपति पारस को दरकिनार करके भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष चिराग पासवान से बातचीत कर रहे हैं. माना जा रहा है कि लगभग पांच सीटें चिराग को मिलेंगी. जिसमें हाजीपुर की सीट भी शामिल है, जिसकी वो मांग हमेशा से करते रहे हैं. वर्तमान में पशुपति पारस हाजीपुर से सासंद है. इस फैसले से पशुपति पारस नाराज हैं.  



छोटे दलों को नहीं किया जा सकता इग्नोर 


बिहार में कोई भी चुनाव हो, वहां पर छोटी पार्टियों को इग्नोर नहीं किया जा सकता. एनडीए या इंडिया गठबंधन की ओर से छोटे पार्टियों को इग्नोर किया तो नुकसान हो सकता है. छोटी पार्टियां भले ही चुनाव ना जीते लेकिन सामने वाले को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इसमें पशुपति पारस, उपेंद्र कुशवाहा और निषाद की आरक्षण की बात करने वाले मुकेश सहनी, पप्पू यादव और ओवैसी भी है. बिहार में जो शेड्यूल कास्ट है, वो दो भाग में दलित और महादलित में बंटे हुए है. बिहार में पासवान जाति है वो दलित में आता है और बाकी महादलित में आता है. दलित जाति अपना नेता रामविलास पासवान को मानते रही है. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद लोजपा में बंटवारा हो गया. दलित का वोट कहां गया, इसकी पुष्टि पिछले विधानसभा चुनाव तक नहीं हो पायी. पार्टी को लेकर जब चाचा पशुपति नाथ पारस-भतीजे चिराग पासवान में लड़ाई चली तो उस समय भाजपा ने चाचा पशुपति नाथ पारस को तवज्जो दी. उस समय उनके साथ पांच सांसद थे. उसमें से दो-तीन सांसद काफी मजबूत माने जाते हैं. जिसमें प्रिंस राज,पशुपति नाथ पारस और चंदन सिंह शामिल हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान का भाजपा ने अपने तरीके से उपयोग किया. उस दौरान चिराग पासवान खुद को मोदी का हनुमान बताते रहे.


चिराग के आने से नीतीश असहज


एनडीए का हिस्सा नीतीश कुमार हैं. अगर एनडीए में चिराग पासवान आते हैं तो नीतीश कुमार के असहज होने की बात है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार की जड़ें खोदने का काम किया था. यह एक ओपन सीक्रेट है. हालांकि, राजनीति में कभी भी स्थायी दुश्मनी और दोस्ती नहीं हुआ करती. चिराग पासवान भी बोल चुके हैं कि उनको नीतीश कुमार से कोई दिक्कत नहीं हैं. वो नीतीश कुमार के साथ मिलकर कुल 40 सीटों पर चुनाव जीतेंगे. अगर नीतीश कुमार को भी इन सब बातों से चिंता होती तो वो कभी बीजेपी से हाथ नहीं मिलाते. नीतीश कुमार महागठबंधन में बेहतर स्थिति में थे. पिछले साल बात पशुपति नाथ पारस को हटाकर चिराग पासवान को मंत्रिमंडल में जगह देने की बातचीत चल रही थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पाई. शायद बीजेपी ने चिराग पासवान को इसी के लिए बचा कर रखा था. बीजेपी ये भलिभांति जानती है कि युवाओं में चिराग पासवान लोकप्रिय हैं और अपने कोर वोट के विरासत के तौर पर  रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान को देखा जाता है. ये सही है कि पशुपति नाथ पारस संगठन बनाने और अपने बड़े भाई रामविलास पासवान की सेवा करने में काफी समय बिता दिया, लेकिन पशुपति नाथ पारस कभी लोकप्रिय नेता के तौर पर नहीं उभरे. ये बात बीजेपी को भी पता है. जब पार्टी टूटी तो उस समय उनके पास सांसदों की संख्या ज्यादा थी तो बीजेपी ने उनको अपने साथ रखा. लेकिन अब लोकसभा चुनाव में अपनी जरुरत को ध्यान में रखकर चिराग पासवान के साथ है.


बीजेपी के लिए बिहार का समीकरण थोड़ा मुश्किल होगा इसका एक नमूना लोजपा के दोनों गुट के तौर पर देखा जा सकता है. बिहार में चिराग पासवान 4-5 प्रतिशत वोट के दावेदार हो सकते हैं. अगर अपने लोगों को लेकर कहीं पशुपति नाथ पारस महागठबंधन की ओर निकल जाते हैं तो ये देखने लायक होगा. क्योंकि वो पहले ही बोल चुके हैं कि वो स्वतंत्र है. महागठबंधन की भी नजर इनपर है. उपेंद्र कुशवाहा भी अपनी स्थिति साफ नहीं कर रहे हैं, वैसे लगता नहीं कि एनडीए की ओर से मिले एक सीट के ऑफर से उपेंद्र कुशवाहा मानेंगे.


महागठबंधन के दामन में अभी बहुत जगह 


पप्पू यादव पहले ही कह चुके है कि मुंबई की रैली में राहुल गांधी को पीएम का उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए था. ओवैसी भी लगभग विपक्ष की भूमिका में सीमांचल के क्षेत्र में है. उधर एनडीए ने मुकेश सहनी के बारे में भी कोई बात क्लीयर नहीं की है. सूत्रों से खबर है कि इंडिया गठबंधन के तहज राजद ने कटिहार की सीट देने का वादा किया है. इसके साथ एक से दो सीटें और भी दी जा सकती है. अगर महागठबंधन की ओर से दो से तीन सीट अगर मिलने पर बात हो जाती है तो शायद मुकेश सहनी महागठबंधन में जाना तय करेंगे.  एनडीए के पास में पहले से ही इतनी भीड़ है और सीट के बंटवारे पर बात नहीं बन पा रही है. एनडीए में पहले ही चिराग पासवान, बीजेपी, नीतीश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी है. इसमें भी नीतीश कुमार 16 सीट से कम में तो नहीं मानेंगे. नीतीश कुमार के महागठबंधन से निकलने के बाद वहां पर काफी जगह बची है तो शायद मुकेश सहनी महागठबंधन की ओर रुख तय करेंगे. इस बात को तेजस्वी यादव बखूबी समझते हैं. शायद इसीलिए मुकेश सहनी के अलावा उपेंद्र कुशवाहा के बाद पशुपतिनाथ पारस को भी सीट का ऑफर कर सकते हैं. सभी ये भी सोच रहे हैं कि जातीय समीकरण का ध्यान रखा जाए. ओवैसी ना सिर्फ सीमांचल बल्कि पूरे उतर बिहार में अपनी पकड़ मजबूत बनाते जा रहे हैं. विधानसभा में उनके पांच विधायक जीते और फिर उपचुनाव में भी महागठबंधन के उम्मीदवार को उन्होंने चुनाव में हराने का काम किया.


कुल मिलाकर कहा जाए कि बिहार में एनडीए के लिए मुश्किलें बढ़नी वाली हैं तो उसका आधार ये भी है कि बीजेपी ने अभी तक दो लिस्ट उम्मीदवारों के लिए निकाले हैं, लेकिन बिहार के लिए एक सीट पर अभी तक उम्मीदवार की घोषणा नहीं कर पाई. उदाहरण के तौर पर देखें तो पश्चिमी चंपारण से छह बार के रहे सांसद के टिकट को लेकर खुद ऊहापोह है कि उनका टिकट रहेगा या कट जाएगा. यही हाल बेगूसराय के सांसद गिरिराज सिंह और बक्सर के सांसद अश्विनी चौबे को लेकर भी है. बिहार की सभी सीटें पॉलिटिकली, सीटों का बंटवारा, गठबंधन एनडीए के लिए टफ होता जा रहा है. 


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