अंग्रेजों के बनाये कैलेंडर के मुताबिक आज नये साल का पहला दिन है. हालांकि भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति को मानने वाले और उसे आगे भी जीवित रखने वाले लोग या संगठन इसमें विश्वास नहीं रखते, क्योंकि वे यही मानते हैं कि हम भारतीयों का नव वर्ष या तो शक संवत से या फिर विक्रम संवत से ही शुरु होता है. देश के आज़ाद होने से भी 22 साल पहले भारत और उसकी संस्कृति का अलख जगाने के उद्देश्य से जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की गई थी, उसकी देश भर में सुबह लगने वाली शाखाओं में आज अंग्रेजों के बनाये इस नये साल का स्तुति-गान बिल्कुल भी नहीं किया होगा, बल्कि वहां आज भी प्रतिदिन की तरह ही 'नमस्ते,सदा वत्सले मातृभूमे' की गूंज के साथ अपनी मातृभूमि का ही गुणगान किया गया होगा.


आरएसएस का हर मुखिया ये कहता आया है कि हम अपनी नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से काट रहे हैं औऱ भारत में पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. चूंकि मौजूदा संघ प्रमुख मोहन भागवत कुछ ज्यादा मुखर हैं, इसलिये वे खुलकर अपनी बात रखने से परहेज़ नहीं करते. सार्वजनिक मंचों से वे कई बार ये दोहरा चुके हैं कि "अपने बच्चों के भविष्य के खातिर आप उन्हें विदेश अवश्य भेजिये लेकिन हमेशा ये ख्याल रखिये कि वे वहां रहते हुए भी अपने राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता की जड़ों से कहीं कट न जाएं क्योंकि ये सबसे बड़ा खतरा है,जिसे आप या आपके बच्चे नहीं बल्कि आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियां भुगतेंगी. हालांकि इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि जिन अंग्रेजों ने हमें सालों तक अपना गुलाम बनाये रखा,हम उसकी सभ्यता से नफरत करते हैं क्योंकि उससे पहले मुगलों ने भी सदियों तक इस भारत वर्ष पर राज करके अपनी संस्कृति हम पर थोपने की भरपूर कोशिश की. लेकिन ये इस देश की ही मिट्टी है जो आज भी हर भारतीय के दिल में 'वसुधेव कुटुंबकम' की भावना न सिर्फ पैदा करती है,बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों में उसका प्रसार करते हुए दिखती भी है. क्योंकि हमारे स्वभाव ने ही सबको अपनाने की आदत रही है.


लेकिन एक बड़ा और कड़वा सच ये भी है कि हम डॉलर-पौंड कमाने के लालच में अपने बच्चों को पढ़ने-नौकरी करने के लिए विदेशों में भेज देते हैं. लेकिन वहां की पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के सबसे बड़े दुर्गुण के बारे में शायद कम ही लोगों ने गौर किया होगा. आप इसे उस संस्कृति की बड़ी खासियत भी कह सकते हैं और सबसे बड़ी बुराई भी. वो ये है कि वह एक इंसान को मशीन में तब्दील करके सबसे पहले उसके इम्मोशन्स छीन लेती है. इस सच को वे लोग ज्यादा शिद्दत से महसूस करते होंगे,जिन्होंने अपने बच्चों को चार-पांच साल पहले वहां भेजा होगा. हो सकता है कि उन्होंने वहां अपनी मन मर्जी के मुताबिक शादी करके अपना घर भले ही न बसाया हो लेकिन उनके बर्ताव में आये ऐसे खतरनाक बदलाव को देखकर वे माता-पिता भी आज अपने उस फैसले पर पछताते होंगे कि आखिर हमने ऐसा क्यों किया. इन पंक्तियों के लेखक के आगे ऐसे दर्जनों दंपतियों ने अपना रोना रोया है कि पता नहीं क्यों हमारी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई थी कि अपने बच्चों को वहां भेज दिया. वे यहां रहकर भले ही कम भी कमाते लेकिन ये तो सुकून रहता कि अपनी आंखों के सामने हैं और सुख में न सही,दुख में तो हमारे मददगार बनेंगे ही.


दुनिया के ज्यादातर देशों में कोरोना के नए वेरिएंट ओमिक्रोन के आने से चौथी लहर ने अपना कहर बरपा रखा है लेकिन हमारे देश में इसकी तीसरी लहर की अभी शुरुआत ही हुई है. पिछले साल जब कोरोना की दूसरी लहर हमारे यहाँ अपने उफान पर थी,तब मैंने ऐसे कई लोगों को मौत की नींद में सोते हुए भी देखा है,जिनका इकलौता बेटा चिता को मुखाग्नि देने के लिए भी मौजूद नहीं था क्योंकि वो चाहते हुए भी विदेश से आ नहीं सकता था.


कहते हैं कि हर महामारी दुनिया को कोई बड़ा सबक देकर जाती है लेकिन ये हम पर ही निर्भर करता है कि हमने उससे क्या और कितना सीखा.  ये कोरोना भी हमें बहुत बड़ा सबक सीखा रहा है कि जिंदगी पैसा कमाने के लिए तो है लेकिन जब आखिरी वक्त में अगर कोई बेटा-बेटी ही अपने माँ-बाप के पास नहीं है,तो फिर उन डालरों के बंडल की हैसियत रद्दी के टुकड़ों से ज्यादा कुछ नहीं है.


मशहूर लेखक जेन ऑस्टिन ने अपने उपन्यास Pride & Prejudice में लिखा है- "Money is something but not everything. " यानी,पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं. लिहाज़ा, महामारी के इस भयानक दौर में हमारी नई पीढ़ी को ये भी सोचना होगा कि इस देस में रहने वाले मां-बाप हजारों मील दूर परदेस में बैठे अपने बच्चों को ये कहने का जिगरा भला कहां से लाएंगे कि नया साल तुम्हें मुबारक हो.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)