जी-7 यानि 'ग्रुप ऑफ सेवन' देशों के 45वें शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षिणी फ्रांस के बियारिट्ज शहर से भारत लौट आए हैं. वैसे तो इस शिखर सम्मेलन में दुनिया के सामने पेश अनेक समस्याओं पर चर्चा हुई लेकिन आयात शुल्क को लेकर कई देशों के साथ चल रहे ट्रंप के 'कारोबार युद्ध' की काली छाया तमाम मुद्दों पर हावी रही. भारत की दृष्टि से इस सम्मेलन की उपलब्धि यह रही कि जम्मू और कश्मीर के मुद्दे पर जो अमेरिका अनधिकृत रूप से बार-बार मध्यस्थता के शोशे उछाल रहा था, अब वह खामोश हो जाएगा.
पीएम मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से आमने-सामने की मुलाकात में दो-टूक शब्दों में स्पष्ट कर दिया है कि किसी तीसरे पक्ष को कष्ट उठाने की जरूरत नहीं है, और भारत-पाक द्विपक्षीय ढंग से ही इस मसले को हल करेंगे. ट्रंप भी यह कहने को बाध्य हो गए कि मोदी के इरादों को भांपने के बाद उन्हें यकीन है कि भारत-पाक मिल कर स्वयं सभी आपसी समस्याओं को सुलझा लेंगे. इससे पहले ट्रंप के मध्यस्थता करने वाले बयानों से पाक बेहद उत्साहित था और उसे लगता था कि उसने जम्मू और कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में कामयाबी पा ली है. लेकिन राज्य से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद बौखलाए पाकिस्तान को मोदी-ट्रंप की इस बैठक के बाद पूर्ण अहसास हो जाना चाहिए कि वह अमेरिका के दम पर भारत के खिलाफ आंखें नहीं तरेर सकता.
भारत जी-7 देशों के समूह का हिस्सा कभी नहीं रहा, इसके बावजूद भारत को इसमें भाग लेने के लिए वरीयता देकर विशेष तौर पर आमंत्रित किया जाना वैश्विक परिदृश्य में उसकी बढ़ती साख और महत्व को रेखांकित करता है. यह महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि जी-7 दुनिया के सबसे विकसित देशों का एक समूह है, जिनका दुनिया की 40 फीसदी जीडीपी पर कब्जा है. ग्रुप के मुख्य सदस्य हैं- अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन. रफाल डील से भारत में उपजे भयंकर विवाद और इस डील को लेकर अमेरिकी खटास के बावजूद यह निमंत्रण फ्रांस और भारत के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों का भी द्योतक था.
इस बार के जी-7 शिखर सम्मेलन में चर्चा का मुख्य विषय दुनिया भर में फैलती 'असमानता के विरुद्ध लड़ाई' था. लेकिन 2019 का सम्मेलन इसलिए अहम रहा कि इसमें जलवायु परिवर्तन, महासागरों के बढ़ते जलस्तर और डिजिटल जगत के परिवर्तन, व्यापार युद्ध, अमेजन के जंगलों में भड़की आग से संबंधित सत्रों में कई ऐसे ज्वलंत और तात्कालिक मसलों पर बात हुई. अमेजन के जंगलों में लगी भीषण आग को लेकर सम्मेलन के अंतिम दिन चर्चा हुई और इस पूरे घटनाक्रम को दुनिया के 'ग्रीन लंग्स' पर हमला बताया गया.
हालांकि डोनाल्ड ट्रंप ने इस मुद्दे पर ज्यादा बातें नहीं कीं. वह अपने नए मित्र और ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो को लेकर बाकी सदस्य देशों से जरा अलग ही रहे. जबकि बोल्सोनारो की पूंजीवादी स्वार्थपरक नीतियों को ही अमेजन के जंगलों में लगी आग के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. आरोप है कि उन्होंने विकास कार्यों की आड़ में पर्यावरण के नियमों को शिथिल करके दुनिया के सामने नया संकट पैदा कर दिया है. गौरतलब है कि अमेजन का करीब 60 फीसदी हिस्सा ब्राजील में पड़ता है. इन वर्षा वनों का एक बड़ा भाग बोलीविया, कोलंबिया, इक्वाडोर, फ्रेंच गुयाना, गुयाना, पेरू, सूरीनाम और वेनेजुएला में भी स्थित है, और ये कोई भी देश जी-7 के सदस्य नहीं है. इसीलिए इन पर दबाव बनाना भी जी-7 के लिए आसान नहीं है.
जी-7 समूह की आलोचना इस बात के लिए की जाती है कि इसमें मौजूदा वैश्विक राजनीति और आर्थिक मुद्दों पर बात नहीं होती. विडंबना यह भी है कि यह भले ही खुद को दुनिया के सबसे विकसित और शक्तिशाली देशों का समूह मानता हो, लेकिन इसके सदस्य देशों में पर्याप्त एकता नहीं है. ये सभी अपने-अपने निजी स्वार्थों से संचालित होते हैं. यही कारण है कि जी-7 कभी जी-6 था फिर जी-8 हो गया और रूस के बाहर निकलने के बाद अब पुनः जी-7 रह गया है. साल 1998 में इस समूह में रूस भी शामिल हो गया था लेकिन 2014 में यूक्रेन के कालासागर स्थित प्राद्वीप क्रीमिया को हड़प लेने के बाद रूस को समूह से निलंबित कर दिया गया था.
चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन वह इस समूह का कभी हिस्सा ही नहीं बन सका. इसकी वजह यह है कि इसकी प्रति व्यक्ति आय संपत्ति जी-7 समूह देशों के मुकाबले बहुत कम है. ऐसे में चीन को उन्नत या विकसित अर्थव्यवस्था ही नहीं माना जाता. इसलिए इस समूह में लिए गए फैसले या इसके मशविरे दुनिया पर कितने प्रभावी होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता. हर साल शिखर सम्मेलन के खिलाफ बड़े स्तर पर विरोध-प्रदर्शन होते हैं. पर्यावरण कार्यकर्ताओं से लेकर पूंजीवाद के विरुद्ध आवाज उठाने वाले संगठन इन विरोध-प्रदर्शनों में शामिल होते हैं. इस साल भी प्रदर्शनकारियों को आयोजन स्थल से दूर रखने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती की गई थी.
लेकिन जी-7 के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता. दुनिया के कई देशों में जब एक साथ आर्थिक संकट गहराया था तब सत्तर के दशक के ऐन मध्य में जी-6 की पहली बैठक आयोजित की गई. तब तेल संकट और फिक्स्ड करेंसी एक्सचेंज दरों का पूरा सिस्टम ही ब्रेक डाउन हो गया था. सदस्य देशों ने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीति पर समझौता किया और वैश्विक आर्थिक मंदी से निबटने के लिए समाधान निकाले थे. आज 2019 में भी भारत समेत दुनिया भर में आर्थिक मंदी की दस्तक साफ सुनी जा रही है. इसीलिए इस शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने वाला फ्रांस इस बार कुछ सार्थक उपलब्धि हासिल करने के लिए जी-जान से हुटा हुआ था.
ईरान के विदेश मंत्री जवाद जारिफ अप्रत्याशित रूप से रविवार को जी-7 सम्मेलन में शरीक होने पहुंच गए थे. ऐसा फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों की पहल पर संभव हुआ, जबकि इसको लेकर ट्रंप पूरी तरह से तैयार नहीं थे. ट्रंप ने तेहरान पर उसके विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम को लेकर 'अधिकतम दबाव' की नीति अपना रखी है. लेकिन सम्मेलन की खास बात यह रही कि ईरान मुद्दे पर ट्रंप के सुर नरम होते हुए नजर आए और उन्होंने जवाद शरीफ के आने पर कोई कड़ी बात नहीं कही.
बता दें कि ईरान न तो जी-7 का सदस्य है और न ही इस बार की बैठक में वो विशेष आमंत्रित सदस्य था, इसीलिए जावेद जरीफ की अप्रत्याशित और नाटकीय एंट्री सबको चौंका गई. मैंक्रों ने अमेरिकी प्रशासन से अपील की है कि ईरान को प्रतिबंधों में थोड़ी राहत दी जाए, ताकि ईरान चीन और भारत को अपना कच्चा तेल बेच सके. पीएम मोदी ने ट्रंप के साथ अमेरिका से ऊर्जा के आयात को लेकर भी महत्वपूर्ण बातचीत की है क्योंकि दोनों देशों के बीच चार अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य का ऊर्जा आयात पहले ही लंबित है. अगर यह आयात सुगम हो जाता है और शिखर सम्मेलन के दबावस्वरूप ईरान को भविष्य में तेल बेचने इजाजत मिल जाती है तो दोनों सौदे भारत के लिए आर्थिक रूप से यकीनन चिंताहारी, फायदेमंद और सहूलियत भरे सिद्ध होंगे.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)