गार्गी कॉलेज में पिछले पखवाड़े जो हुआ, उसमें कुछ बातें याद रखने की हैं. गुंडे तत्व बाहर से आए- हैरेसमेंट किया और चले गए. ऐसा अक्सर होता है- भीड़भाड़ में मनचले लड़कियों से बुरा बर्ताव करते हैं. लड़कियां परेशान-हैरान होती हैं. कंप्लेन फाइल की जाती है. कई बार बदमाश पकड़े जाते हैं, कई बार नहीं. पर गार्गी कॉलेज का मामला अलग है. यह एक कॉलेज परिसर की घटना है. जेएनयू की तरह यहां भी बाहर से लोग आते हैं. असॉल्ट करते हैं और कोई कुछ नहीं करता यानि लड़कियों के लिए कॉलेज परिसर अब सुरक्षित नहीं रहा. वह कॉलेज परिसर जो कभी लड़कियों के लिए सेफ स्पेस माना जाता था क्योंकि अब वह स्पेस भी सेफ नहीं रहा.


इस मामले में चिंता की बात सिर्फ गुंडा तत्व नहीं. कॉलेज प्रशासन है. प्रिंसिपल शिकायत करने वाली लड़कियों से कहती हैं- सेफ्टी की चिंता है तो फेस्ट में आती ही क्यों हो. फेस्ट गुंडागर्दी का परमिट बन जाता है. इसमें आना है तो इसके लिए तैयार रहना होगा. यह ज्यादा खतरनाक है. लड़कियों को सिर्फ पढ़ना लिखना चाहिए. मौज-मजा उनके लिए नहीं बना है. अगर मौज-मजा करने की इच्छा है तो हैरेसमेंट के लिए भी तैयार रहें. यानि अपने आप को खांचों में बंद कर दें. पिंजड़े की मुनिया बनी रहें. पिंजड़ा तोड़ने की जरूरत नहीं है. इस घटना के बाद बार-बार पूर्व केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी का बयान याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि लड़कियों के लिए हॉस्टल कर्फ्यू जैसी लक्ष्मण रेखा खींची ही जानी चाहिए. इसके साथ ही सांसद और ऐक्टर किरण खेर युवा लड़कियों के लिए एडवाइजरी जारी कर चुकी हैं.


वह गैंगरेप की शिकार लड़की को सलाह दे चुकी हैं कि कैसे उन्हे खुद भी सावधानी बरतनी चाहिए थी. यह 2017 की घटना थी जिसमें चंडीगढ़ की एक लड़की के साथ रात पौने आठ बजे गैंगरेप हुआ था. पर हिदायत देते वक्त किरण खेर यह भूल गई थीं कि उस वक्त चंडीगढ़ में उस खास जगह पर कोई बस सर्विस नहीं थी और यह भी कि चंडीगढ़ में सार्वजनिक परिवहन का हाल बुरा है. किरण खेर जिस इलाके से सांसद हैं, उस इलाके में लड़कियों की सुविधा के लिए वह क्या कर पाईं- पता नहीं पर उन्होंने बात लड़कियों की समझदारी पर उलटकर रख दी. गार्गी कॉलेज में भी वही हुआ. प्रिंसिपल से आप कॉलेज परिसर की सेफ्टी सुनिश्चित करने की उम्मीद करेंगे- पर उन्होंने भी लड़कियों पर ही बात मोड़ दी. उन्होंने कहा कि फेस्ट में आओगी तो इन सबके लिए तैयार रहना होगा. सारी सावधानी विक्टिम पर आ पड़ी. उन्हें खुद ही सावधानी बरतनी चाहिए और उन जगहों पर मौजूदगी से बचना चाहिए जो अनसेफ कहे जाते हैं.


कई साल पहले आंध्र प्रदेश सरकार ने कानून पास करके पब्स में लड़कियों को रात दस बजे के बाद शराब सर्व करने पर पाबंदी लगा दी थी. यह लड़कियों को रेप से बचाने का सरकार का तरीका था. यहां लड़ाई लड़कियों के लिए फ्री स्पेस की है. साथ ही उनकी घूमने-फिरने की आजादी की भी. हम जब भी जेंडर इक्वालिटी की बात करते हैं, सिर्फ चंद महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तरफ ध्यान जाता है- शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, राजनीतिक प्रतिनिधित्व. लेकिन सिर्फ इन क्षेत्रों में बराबरी से लड़कियां अब खुश नहीं. वे जिंदगी को आनंददायक बनाना चाहती हैं. आम तौर पर मर्दों के पास यह प्रिविलेज होता है कि वे अपना समय और पैसा दोनों अपने ऊपर खर्च कर सकते हैं पर औरतों के साथ ऐसा कम होता है. वे अपनी कमाई और समय, दोनों को अपने परिवार पर अधिक खर्च करती हैं. फिर लेजर या जिसे हिंदी में हम फुरसत कह सकते हैं, कोई निर्धारित गतिविधि नहीं है. अक्सर इसे काम के साथ जोड़ दिया जाता है.


आप टीवी देखते-देखते या पड़ोसिनों से गपशप करते-करते आलू छील सकती हैं, या चावल दाल साफ कर सकती हैं, सब्जी काट सकती हैं. तो, फुरसत के क्षणों में भी काम थाम लिया जाता है. लड़कियों या औरतों के लिए फुरसत के क्षण कम होते हैं. फ्री स्पेस भी कम होता है. उनके लिए फुरसत के मायने अलग होने चाहिए. और इसे मान्यता भी मिलनी चाहिए. जब वे आराम कर सकें, लोगों से मिल-जुल सकें, उनका मनोरंजन हो- यानी दूसरे शब्दों में, जब वे ‘अनुत्पाद रूप से आजाद’ हों. उनसे उत्पादकता की मांग ना की जाए. कॉलेज के फेस्ट में मौज मजा करना भी  इसी अनुत्पाद आजादी का दूसरा नाम है. जब उन्हें फुरसत के क्षण मिलें और उन्हें किसी दखल को झेलना ना पड़े. खासकर कॉलेज परिसरों में अनुत्पादक आजादी या फ्री स्पेस क्यों जरूरी है.



2015 में अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिसूरी में फ्री स्पेस को लेकर स्टूडेंट्स ने काफी विरोध प्रदर्शन किए. इसका मूल उद्देश्य यही था कि स्टूडेट्स को किस तरह अपनी बात रखने का मौका दिया जाए. इसके बाद हेल्थलाइन वेबसाइट ने फ्री स्पेस, लेजर और मेंटल हेल्थ पर एक स्टडी बेस्ड आर्टिकल किया. उसमें कहा गया कि फ्री स्पेस इसलिए भी जरूरी हैं क्योंकि इससे लड़के-लड़कियों की मेंटल हेल्थ पर अच्छा असर होता है. कॉलेज सिर्फ पढ़ाई-लिखाई की जगह नहीं, अपने आपको व्यक्त करने की जगह भी है. जहां स्कूल से निकलने के बाद आपका विजन बनता और संवरता है. परस्पर संवाद का मौका मिलता है. लड़कियों को इससे वंचित करने का कोई मायने नहीं है. सुरक्षा का मामला, प्रशासनिक जिम्मेदारी का मामला भी है. बतौर प्रशासक यह कॉलेज की जिम्मेदार है कि लड़कियां सेफ महसूस करें. जैसे यह सरकारी प्रशासन की जिम्मेदारी है कि सुरक्षित समाज की संरचना तैयार हो. पब्लिक स्पेस और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को चाक-चौबस्त किया जाए. शहरों, कस्बों और गांवों में प्लानिंग ऐसी की जाए कि लड़कियां खुद को सुरक्षित महसूस करें.


सड़कों को पैदलयात्रियों के चलने लायक बनाया जाए. इस बात का ध्यान रखें कि रातों को सभी जगहों पर खूब सारी रोशनी हो. नेशनल बिल्डिंग कोड के नियमों को लिंग भेदी होने से रोका जाए. बसों की लास्ट स्टॉप कनेक्टिविटी बढ़ाई जाए. यूनिवर्सिटीज को भी कुछ कदम उठाने चाहिए. जैसा कि 2015 के यूजीसी के रेगुलेशंस में हिदायत दी गई थी. इन रेगुलेशंस का शीर्षक है- प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रीड्रेसल ऑफ सेक्सुअल हैरसमेंट ऑफ विमेन इंप्लॉयीज एंड स्टूडेंट्स इन हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स. इसके तहत हर कॉलेज में चुनी हुई इंटरनल सेक्सुअल हैरेसमेंट कंप्लेन कमेटी होनी चाहिए जिसकी सूचना भी स्टूडेंट्स को होनी चाहिए. हॉस्टलों में भेदभाव वाले नियम नहीं होने चाहिए. कैंपस में महिला गायनाकोलॉजिस्ट होनी चाहिए.


स्टूडेंट्स, नॉन टीचिंग और सिक्योरिटी स्टाफ के लिए जेंडर बेस्ड वर्कशॉप जरूर आयोजित होनी चाहिए. वॉर्डन, वीसी, प्रोवोस्ट, किसी को भी मॉरल पुलिसिंग करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. मॉरल पुलिसिंग सबसे बड़ा हैरेसमेंट है. इसी से लड़कियों को फेस्ट में आने या उसे आयोजित करने से रोका जाता है. उनके कपड़े-लत्तों, हाव-भाव और आजादी पर पाबंदियां लगाई जाती हैं. गार्गी कॉलेज का वाकया बताता है कि हमारा प्रशासनिक तंत्र लड़कियों को लेकर कितना बेपरवाह और असंवेदनशील है. बेशक, बिंदास लड़कियों से अधिकतर खतरनाक प्रणाली इस संसार में कोई नहीं. वे अपने लिए नए आकाश बुनती हैं- साहस का नया चेहरा बन, जिसे हम मध्ययुगीन, भयभीत स्त्रियों के करुण प्रोफाइल पर चिपका देना चाहते हैं.