आम चुनाव या'नी लोक सभा चुनाव 2024 सिर पर खड़ा है. अब महज़ चार महीने का वक़्त बचा है. तमाम राजनीतिक दल इस चुनाव के लिए कई महीने पहले से ही रणनीति बनाने के साथ ही उसे अंजाम देने में जुटे हैं. इस बीच सवाल उठता है कि इस चुनाव को लेकर क्या नागरिकों को भी कोई रणनीति बनाने पर काम करने की ज़रूरत है. इसका सीधा और स्पष्ट जवाब 'हाँ' में ही होना चाहिए. हालाँकि वास्तविकता में ऐसा होता नहीं आया है, लेकिन पिछले सात दशक के अनुभव से कहा जा सकता है कि ऐसा व्यवहार में होना चाहिए.
यह भी तथ्य है कि अगर ऐसा होने की परंपरा बनी होती, तो आज भारत में विकास की परिभाषा कुछ अलग होती. लोगों को आर्थिक वृद्धि और आर्थिक विकास का फ़र्क़ बेहतर मालूम होता. राजनीति का स्वरूप कुछ अलग होता. भारत शायद कुछ दशक पहले ही सही मायने में वास्तविक विकसित राष्ट्र बन चुका होता. देश के आम लोगों की कथा-व्यथा कुछ अलग होती.
नागरिकों को भी है रणनीति बनाने की ज़रूरत
ऐसे तो देश अब हमेशा ही चुनावी मोड में रहने लगा है. राजनीतिक दलों की कृपा दृष्टि और सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार की वज्ह से ऐसा मुमकिन हो पाया है. इसके बावजूद लोक सभा चुनाव का अलग ही महत्व है. विधान सभा चुनाव से संबंधित राज्य पर असर पड़ता है, लेकिन लोक सभा चुनाव के नतीजों से पूरे देश और देश के एक-एक नागरिक के वर्तमान और भविष्य पर असर पड़ता है. इस दृष्टिकोण से यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि आम चुनाव को लेकर नागरिकों को भी अपनी रणनीति बनाने पर काम करना चाहिए.
वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने से जुड़ा मुद्दा
नागरिकों से जुड़ी रणनीति से कई पहलू और आयाम जुड़े हैं, जिन्हें देश के मतदाताओं को समझने और उस पर अमल करने की दरकार है. राजनीतिक दलों का चुनाव को लेकर एकमात्र साध्य सत्ता हासिल करना होता है. पार्टियां और उनके कर्ता-धर्ता बड़े नेता सिर्फ़ और सिर्फ़ इस मानसिकता के साथ रणनीति बनाते हैं और उसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीक़े से लागू करते हैं. इसके विपरीत नागरिकों के लिए चुनाव का महत्व वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाने से जुड़ा है. यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जिसकी वज्ह से नागरिकों को भी चुनाव को लेकर रणनीति बनाने की ज़रूरत है. यह सिर्फ़ एक दिन वोट डालने या पॉलिटिक्स से जुड़ा हुआ मसला नहीं है. यह हमारे-आपके, आने वाली पीढ़ियों के साथ देश और समाज के वर्तमान और भविष्य की बेहतरी से जुड़ा विषय है. सरकार और राजनीतिक दलों का काम आम लोगों का वर्तमान और भविष्य बेहतर बनाना है, न कि अतीत के जंगलों में भटकाकर सिर्फ़ सत्ता पर किसी तरह से क़ाबिज़ रहना.
धीरे-धीरे प्रजा में तब्दील न हों आम लोग
इसे केवल राजनीति का नाम देकर टालने का ही दुष्परिणाम है कि लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था होने के बावजूद हमारे यहाँ आम नागरिक की हैसियत व्यवहार में प्रजा की भाँति रह गयी है. नागरिक होकर भी आम लोग प्रजा में तब्दील हो चुके हैं और हमारे जनप्रतिनिधि ( विधायक, सांसद, मंत्री) लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सामंत की हैसियत पा चुके हैं. सिद्धांत में नहीं लेकिन व्यवहार में ऐसा ज़रूर दिखता है. आम चुनाव को लेकर नागरिकों की रणनीति का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसी से जुड़ा है. देश के आम लोगों को, मतदाताओं को काग़ज़ी नागरिक नहीं बल्कि वास्तविक नागरिक बनकर सोचने की ज़रूरत है.
संसदीय व्यवस्था में नागरिक से ऊपर कोई नहीं
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अज़ीम-ओ-शान- शहंशाह नागरिक होते हैं, न कि विधायक, सांसद या मंत्री. कहने का मतलब है कि जिस राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में हम सब हैं, उसमें नागरिक ही सर्वोपरि है और नागरिक से ऊपर कोई नहीं है. न तो संसद, न तो कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका. अगर कोई भी राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक विमर्श नकारता है, तो वह विमर्श लोकतांत्रिक कतई नहीं हो सकता. इस बात को ब-ख़ूबी हर नागरिक और मतदाता को समझने की ज़रूरत है. इसे समझते हुए ही मतदाताओं को हर चुनाव के लिए के लिए अपनी रणनीति ज़रूर बनानी चाहिए.
हमारे संविधान की शुरूआत भी WE, THE PEOPLE OF INDIA, (हम, भारत के लोग,) से होती है. WE, THE PEOPLE OF INDIA ही भारत का आम नागरिक है, हर नागरिक है और संविधान को यही आम लोग स्वीकार, अधिनियमित और आत्मार्पित भी करते हैं. सरल शब्दों में कहें, तो संविधान, संवैधानिक प्रावधान, उनके आधार पर प्रशासन और शासन की व्यवस्था..सब कुछ नागरिकों के लिए है. संविधान का मूल है कि देश के नागरिक ही सर्वोपरि हैं. संसद , सरकार या अदालत की सर्वोच्चता का प्रश्न बाद में आता है. सबसे पहले नागरिक की सर्वोच्चता है. इस भाव से बाहर का हर विमर्श लोकतांत्रिक मूल्यों से बाहर का विमर्श है. हमें ..आम लोगों को इस तथ्य को व्यवहार के स्तर पर आत्मसात करने की ज़रूरत है. ऐसा करके ही देश के नागरिक सही मायने में अपनी चुनावी रणनीति को बनाकर ब-ख़ूबी अंजाम दे सकते हैं.
चुनाव को लेकर नागरिकों या कहें मतदाताओं की रणनीति से जुड़ा एक पहलू ....नागरिकों के बीच पार्टी के आधार पर बँटवारे से जुड़ा है. आम नागरिक या मतदाता हमेशा नागरिक होते हैं, पार्टी कार्यकर्ता नहीं. किसी दल या पार्टी को वोट देने का मतलब यह नहीं होता कि वो मतदाता उस पार्टी का कार्यकर्ता बन गया. जैसे ही इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, राजनीतिक दलों के लिए सवालों और राजनीतिक जवाबदेही से बचने का रास्ता सरल होते जाता है. यह राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के लिए तो बेहद लाभकारी है, लेकिन बतौर नागरिक यह देश के आम लोगों के लिए उतनी ही घाटे की प्रवृत्ति है. इस तथ्य को समझते हुए मतदाताओं को अपनी चुनावी रणनीति बनाने की दिशा में ज़रूर काम करना चाहिए.
आम लोगों में स्थायी दलगत बँटवारा से सही नहीं
आम लोगों का या कहें मतदाताओं का किसी भी आधार पर बँटवारा सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीतिक दलों और उनसे जुड़े नेताओं को ही फ़ाइदा पहुँचाता है. चाहे धर्म हो, या जाति या पार्टी आधारित जुड़ाव हो..इनमें से किसी के आधार पर नागरिकों के बीच खाँचों में बँटवारा व्यापक नज़रिये से हर तरह से आम लोगों के वर्तमान और भविष्य को ही नुक़सान पहुँचाता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी आम नागरिक ने अगर किसी पार्टी को वोट दिया है, तो इसका यह कतई मतलब नहीं है कि दूसरी पार्टी के सत्ता में आने पर उस नागरिक ने सत्ता से सवाल पूछने का अधिकार खो दिया है. सरल शब्दों में समझें, तो प्रधानमंत्री देश के हर नागरिक का होता है और देश के हर नागरिक के प्रति प्रधानमंत्री और उनका पूरा मंत्रिपरिषद जवाबदेह होता है. इसलिए आम लोगों को घर बैठे पार्टी कार्यकर्ता में तब्दील होने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए. इस पहलू के मद्द-ए-नज़र भी चुनाव को लेकर आम मतदाताओं को अपनी रणनीति पर ख़ूब काम करना चाहिए.
हमेशा नागरिक बने रहें, नहीं बने कार्यकर्ता
ऐसे भी इस देश में हर स्तर पर बँटवारों की भरमार है. संसद में सांसद बँटे हैं. सरकार में मंत्रियों का रुख़ बँटा है. न्यायपालिका में भी दलगत बँटवारे की बात भी गाहे-ब-गाहे सामने आती रहती है. सरकारी कर्मचारियों में तो पहले से सत्ता के आधार पर दलगत जुड़ाव देखा जाता रहा है. अब तो मीडिया संस्थाओं और पत्रकारों में भी दलगत जुड़ाव के आधार पर खाँचों में बँटकर काम करने की प्रवृत्ति ज़ोर-शोर पर है. ऐसे में आम नागरिकों के बीच हमेशा दलगत जुड़ाव के आधार पर बँटवारा किसी भी तरह से हमारे-आपके वर्तमान और भविष्य के लिए सही नहीं है.
सोशल मीडिया के प्रसार ने इन सारे बँटवारे को और बढ़ावा दिया है. दलगत आधार पर आम नागरिकों के बीट सदैव रहने वाले बँटवारे का ही दुष्परिणाम है कि अब चाहे विषय कोई हो, मुद्दा कुछ भी हो...राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के ब-जाए आम नागरिक ही आपस में ही एक-दूसरे को जवाब देने लगे हैं. इससे दलों और उनसे जुड़े नेताओं के लिए लोकतांत्रिक और राजनीतिक जवाबदेही से बचना बेहद आसान हो गया है. नागिरक या आम मतदाता वोट देते वक़्त राजनीतिक खाँचे में बँटे, लेकिन बाक़ी समय बतौर नागरिक व्यवहार करेंगे, तभी सही मायने में पूरी सरकारी और प्रशासनिक व्यवस्था हर मसले पर नागरिक विमर्श को ही केंद्र में रखकर काम करेगी.
क्या है सरकार और राजनीतिक दलों की भूमिका?
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार और राजनीतिक दलों की क्या भूमिका होती है, आम लोगों को सरकार और राजनीतिक दलों से क्या अपेक्षा होती है, सरकार और राजनीतिक दल आम लोगों के निजी जीवन से जुड़े मुद्दों पर किस हद तक दख़्ल दे सकते हैं या अतिक्रमण कर सकते हैं..ये सब कुछ ऐसे सवाल हैं, जिसे भी आम लोगों को हमेशा बतौर नागरिक बने रहकर सोचने की ज़रूरत है. नागरिकों को किसी भी चुनाव में वोट डालने से पहले अपने लिए चुनावी रणनीति बनाते समय इन पहलुओं पर भी गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. क्या सरकार या राजनीतिक दल आम लोगों को धार्मिक ज्ञान दे सकते हैं, क्या आम लोगों के खान-पान के व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं, क्या कपड़े पहने के तरीक़े पर अंकुश लगा सकते हैं..इन जैसे कई सवालों का संबंध भी उसी चुनावी रणनीति का हिस्सा है, जिस पर नागरिक बने रहकर ही सोचे जाने की ज़रूरत है.
चुनाव जीतने के राजनीतिक दल और उनके नेता हर तिकड़म अपनाते हैं. संसदीय व्यवस्था में हर पांच साल पर मत देने के अलावा कोई और ऐसा मैकेनिज्म या तंत्र नहीं है, जिसके माध्यम से राजनीतिक दलों और सरकार पर जवाबदेही के लिए शिकंजा कसा जा सके. ऐसी स्थिति में अगर आम लोग हमेशा दलगत भावना से जुड़कर हर मुद्दे पर पार्टी और नेताओं का बचाव करने लगेंगे, तो फिर राजनीतिक जवाबदेही की बची-खुची गुंजाइश भी धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगी.
आज़ादी के बाद से ही चुनाव-दर चुनाव समान वादे
चुनाव से पहले घोषणापत्र ज़ारी करने की व्यवस्था बनी हुई है. पहले इन घोषणापत्रों का जितना महत्व हुआ करता था, अब वैसा नहीं रह गया है. घोषणापत्र को लेकर तमाम राजनीतिक दलों का जो रवैया अब दिखता है, उससे कहा जा सकता है कि इस दिशा में तमाम दल खानापूर्ति करते हुए ही नज़र आते हैं. ऐसे में और भी ज़रूरी हो जाता है कि चुनाव से पहले आम लोग अपनी रणनीति पर काम करें. दशकों से हर चुनाव में वहीं मुद्दा चला आ रहा है.. ग़रीबी मिटा दूँगा, बेरोजगारी का नाम-ओ-निशान नहीं रहेगा, महँगाई पर अंकुश लगा दूँगा, आम लोगों की भलाई करूँगा..ये सारे वादे राजनीतिक दलों की ओर पहले आम चुनाव से लेकर अब तक दोहराए जा रहे हैं.
इसके बावजूद देश में ग़रीबों, बेरोज़गारों की बड़ी संख्या है. महँगाई से आम लोगों का जीना दूभर हो रहा है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि नागरिकों में भी दलगत आधार पर स्थायी बँटवारा कर सरकार, राजनीतिक दल और नेताओं ने इन सवालों को ही धीरे-धीरे अप्रासंगिक कर दिया है. आम मतदाताओं को इस दिशा में भी सोचे जाने की तत्काल ज़रूरत है.
लोकतंत्र में विकास की वास्तविक तस्वीर कैसी हो?
चाहे प्राकृतिक संसाधन हो या फिर मानव संसाधन, भारत में संसाधनों की कमी नहीं है. भारत आज दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तेज़ी से तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है. इसके बावजूद अभी भी देश की 70 से 80 करोड़ आबादी को खाने के लिए सरकार की ओर से हर महीने 5 किलोग्राम राशन देना पड़ रहा है. विडंबना है कि सरकार इसे उपलब्धि बता रही है, जबकि आज़ादी के साढ़े सात दशक होने और अर्थव्यवस्था के विशाल आकार को देखते हुए यह शर्म की बात है. भारत का विकास किस दिशा में हो रहा है, यह आँकड़ा सब कुछ बता दे रहा है. इससे स्पष्ट है कि आर्थिक वृद्धि तो हो रही है, आर्थिक विकास सुस्त है. देश के बहुतायत संसाधनों पर चंद प्रतिशत लोगों का क़ब्ज़ा है..भारत में आर्थिक विकास की वास्तविक तस्वीर यही है. इस तस्वीर को कैसे बदला जाए..इसको लेकर कोई भी सरकार उतनी गंभीर कभी नहीं दिखी है, जितनी की ज़रूरत है.
प्राथमिक चिकित्सा और प्राथमिक शिक्षा पर हो ज़ोर
अगर दो चीज़ या पहलू पर सरकार और तमाम राजनीतिक दल फोकस करें, तो किसी भी देश या समाज का कायाकल्प दो दशक में हो सकता है. उच्च गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक चिकित्सा सेवा या'नी प्राइमरी मेडिकल फैसिलिटी और उच्च गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा या'नी प्राइमरी एजुकेशन..ये दो ऐसा पहलू है, जिसे अगर देश के हर नागरिक तक नि:शुल्क पहुँचा दिया जाए, तो फिर देश का दो दशक में कायाकल्प हो जायेगा. इन दोनों पहलुओं पर ही पूरी इच्छाशक्ति के साथ कोई भी सरकार काम करे, तो तस्वीरें सही मायने में बदल जायेंगी. ऐसा भी नहीं है कि भारत के पास संसाधन की कमी है. संसाधन भरपूर है, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है.
विडंबना यह है कि आज़ादी के बाद से ही किसी भी सरकार ने व्यवहार में इन दोनों पहलुओं पर गंभीरता से काम नहीं किया है. हालांकि क़ाग़जी दावा भरपूर किया गया है. नागरिकों या कहें आम मतदाताओं को अपनी चुनावी रणनीति बनाते समय इन पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है. देश का हर आदमी रोज़गार करते दिखे.. देश का हर आदमी पेट भर खाते दिखे.. देश का हर आदमी पढ़ते दिखे.. देश का हर नागरिक स्वस्थ रहे..लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक कल्याणकारी सरकार का यही मकसद होता है...यही काम होता है...इसे आम लोगों को बेहतर तरीक़े से समझने की ज़रूरत है.
सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही का मुद्दा
कुल मिलाकर आम लोगों को हमेशा व्यवहार में बतौर नागरिक बने रहने की ज़रूरत है. प्रजा बनाने की किसी भी राजनीतिक कोशिश को समझने की ज़रूरत है. जनप्रतिनिधियों को सामंत या सर्वोपरि नहीं, बल्कि जनता का सेवक समझने की ज़रूरत है. अपना घोषणापत्र बनाने की ज़रूरत है. अपने सवालों की सूची बनाने की ज़रूरत है, जिसे तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से पूछा जा सके. अपनी मानसिक आज़ादी को सरकार और राजनीतिक दलों से मुक्त रखने की ज़रूरत है.
इन सबको सुनिश्चित करने के लिए सोशल मीडिया के सही इस्तेमाल को समझने की भी ज़रूरत है. आम लोग हमेशा बतौर नागरिक बने रहकर सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों का सही इस्तेमाल करना जान गए, तो संसदीय व्यवस्था में यही सोशल मीडिया सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कारगर मैकेनिज्म बन सकता है. अब समय आ गया है कि दशकों से चले आ रहे राजनीतिक, आर्थिक और मीडिया विमर्श को बदल दिया जाए. इस दिशा में सही मायने में बदलाव देश के आम लोग ही ला सकते हैं.
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