भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संसदीय प्रणाली है. इस व्यवस्था और प्रणाली में नागरिक, नागरिकता और नागरिक अधिकारों का महत्व सबसे ज़्यादा हो जाता है. इसमें नागरिक और नागरिक अधिकार ही सर्वोपरि हैं.
संविधान, विधायिका या'नी संसद और विधानमंडल, कार्यपालिका या'नी सरकार के साथ ही न्यायपालिका..लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन सभी का मुख्य कार्य ही नागरिक और नागरिक अधिकारों के इर्द-गिर्द ही घूमता है. यह न सिर्फ़ सैद्धांतिक तौर से बुनियादी पहलू है, बल्कि व्यवहार में यह उतना ही महत्वपूर्ण है. ऐसा होने पर ही कोई देश सही मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला राष्ट्र जा सकता है.
हालाँकि आज़ादी के बाद से ही भारत में सैद्धांतिक तौर से तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्तर पर इस पहलू को महत्व दिया जाता रहा है, लेकिन व्यवहार में अक्षरशः लागू होते कम ही नज़र आया है. लागू हुआ भी है, तो उस सीमा तक नहीं हुआ है, जहाँ तक होना चाहिए था.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक सर्वोपरि
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और मीडिया विमर्श सिद्धांत में ही नहीं, व्यवहार में पूर्ण रूप से नागरिक केंद्रित होना चाहिए. नागरिक से ऊपर कोई नहीं है. यहाँ तक की संविधान भी नागरिक से ऊपर नहीं हो सकता है क्योंकि संविधान को स्वीकार ही देश के नागरिक करते हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल, सरकार, संसद, अदालतों से लेकर मीडिया भी सही मायने में नागरिकों के लिए होते हैं. नागरिक आधार होते हैं और बाक़ी नागरिक हितों की पूर्ति के लिए ज़रिया हैं. हालांकि जो विमर्श दशकों से चलता आ रहा है, उसमें नागरिकों के महत्व को व्यवहार के स्तर पर कम कर दिया गया है.
विमर्श पूरी तरह से नागरिक केंद्रित हो
भारतीय संविधान की शुरूआत ही इसी मूल भावना से हुई है. हमारे संविधान की उद्देशिका या'नी Preamble में ही कहा गया है कि हम, भारत के लोग (WE, THE PEOPLE OF INDIA)..इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित (ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES)करते हैं. इसी वाक्य से यह भी पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि देश में लोग या'नी नागरिक ही सर्वोपरि हैं.
हमारा संविधान 26 नवंबर, 1949 को अंगीकृत या एडॉप्ट किया गया. उसके बाद 26 जनवरी, 1950 के हमारा संविधान पूरी तरह से लागू हो गया यानी संविधान इस दिन से अमल में लाया गया. संविधान स्वीकार करने के साथ ही भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बन गया. बाद में इसमें 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के ज़रिये समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द भी जोड़े गए. उसके बाद भारत संवैधानिक तौर से एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी और पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य के स्वरूप वाला देश बन गया.
संविधान को स्वीकार किए इस साल 26 नवंबर को 74 साल हो जायेगा. इसके बावजूद व्यवहार में राजनीतिक, आर्थिक और मीडिया विमर्श व्यापक तौर से नागरिक केंद्रित नहीं हो पाया है. यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा विरोधाभास है. इस पर आम लोगों और मीडिया के बीच जितनी चर्चा होनी चाहिए, उस रूप में देखने को नहीं मिलता है.
राजनीतिक व्यवस्था में नागरिकों की हिस्सेदारी
सही मायने में नागरिक केंद्रित न तो राजनीति हो पायी है और न ही आर्थिक और मीडिया विमर्श में पूर्णत: नागरिक को केंद्र बिंदु में रखा जाता है. संविधान स्वीकार करने के लगभग 74 साल में एक बात ज़रूरी हुई है. भारत हमेशा ही चुनावी मोड में रहने वाले देश के रूप में तब्दील हो चुका है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं और देश के आम नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग कर चयन करता है कि किस दल या दलों के गठबंधन को शासन व्यवस्था चलाने की ज़िम्मेदारी दी जाए. संविधान के मुताबिक़ सामान्य तौर से यह ज़िम्मेदारी एक बार में पाँच वर्ष के लिए दी जाती है.
हालाँकि यही पर नागरिकों का काम राजनीतिक व्यवस्था में हिस्सेदारी के तौर पर समाप्त नहीं हो जाता है. इसके साथ ही नागरिक का सबसे बड़ा अधिकार है कि उसने जिस दल को सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी है, वो उस काम को सही तरीके अंजाम दे रहा है या नहीं, इसको लेकर अलग-अलग माध्यम से सरकार और अपने जनप्रतिनिधियों से बार-बार सवाल पूछे.
नागरिक अधिकारों के मायने कभी नहीं बदलते
लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक और ख़ूबी है, जिसे देश के हर नागरिक को ब-ख़ूबी समझने और आत्मसात करने की ज़रूरत है. भले ही चुनाव में हमने जिस पार्टी को वोट दिया है, उसकी सरकार नहीं बनी हो..उसके बावजूद भी देश के हर नागरिक को शासन व्यवस्था को संभाल रहे दल और सरकार से सवाल पूछने का उतना ही हक़ है. यह बतौर नागरिक हर किसी का नैसर्गिक और संवैधानिक दोनों ही अधिकार है. सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, हमने उसको वोट दिया हो या नहीं दिया हो, उस सरकार और दल से सवाल पूछने का अधिकार हर किसी को है.
प्रधानमंत्री पूरे देश का प्रधानमंत्री होता है, उसी तरह से मुख्यमंत्री पूरे प्रदेश का प्रधानमंत्री होता है. प्रधानमंत्री के लिए देश का हर नागरिक समान है. चाहे उसने सत्ताधारी दल को वोट किया हो या नहीं ..चाहे वो किसी भी धर्म से या जाति से हो, उसकी लैंगिक पहचान चाहे कुछ भी हो, उसकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो..प्रधानमंत्री के लिए हर नागरिक समान है. देश के हर नागरिक को प्रधानमंत्री और सरकार से सवाल पूछने का समान अधिकार है. विडंबना है कि इस पैमाने पर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का जिस रूप में विकास होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पाया है.
नागरिक सिर्फ़ नागरिक होते हैं, पार्टी कार्यकर्ता नहीं
धीरे-धीरे आम नागरिक भी घर बैठे-बैठे ही पार्टी कार्यकर्ता में तब्दील होते जा रहे हैं. यह एक लंबी प्रक्रिया है. ऐसा माहौल तैयार करने में राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा योगदान रहा है. भारतीय संविधान में शुरू से ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का प्रावधान है. इसका मतलब है कि संविधान लागू होने के प्रारंभ से ही एक न्यूनतम आयु होने पर बिना किसी शर्त के यह हर किसी को प्राप्त है. जाति, धर्म, लिंग, शिक्षा का स्तर या अमीर-ग़रीब के भेदभाव के बिना न्यूनतम आयु के बाद देश का हर नागरिक वोट देने का अधिकारी है. पहले यह न्यूनतम आयु 21 साल थी, जिसे 61वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1988 के माध्यम से 18 साल कर दिया गया. देश के हर नागरिक को 18 साल होने के बाद मत देने का अधिकार अपने आप हासिल हो जाता है.
देश हमेशा ही चुनावी मोड में रह रहा है
ऐसे तो केंद्रीय स्तर पर लोक सभा का चुनाव और अलग-अलग राज्यों में विधान सभा का चुनाव सामान्य स्थिति में हर पाँच साल पर होने की व्यवस्था है. पिछले एक दशक में राजनीतिक माहौल और सोशल मीडिया के अलग-अलग रूपों के विस्तार की वज्ह से अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि पूरा देश हमेशा ही चुनावी मोड में है. इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अब आम लोग भी हमेशा बतौर नागरिक व्यवहार करने के ब-जाए पार्टी कार्यकर्ता के रूप में खाँचों में बँटकर अपनी बात ज़ाहिर करने लगे हैं. चुनाव हो या नहीं हो, कोई भी मुद्दा हो..सोशल मीडिया के अलग-अलग मंच पर इस प्रवृत्ति को आसानी से देखा जा सकता है.
ऐसा माहौल बनाने और इस तरह की प्रवृत्ति को शह देने में यहाँ के राजनीतिक दलों और सत्ता पर विराजमान सरकार का हाथ रहा है. पहले से भी ऐसा होते आया है, हालाँकि सोशिल मीडिया के व्यापक विस्तार से अब राजनीतिक दलों के लिए ऐसा करना ज़्यादा आसान हो गया है.
हमेशा बतौर नागरिक व्यवहार करने की ज़रूरत
सबसे महत्वपूर्ण सवाल पर है कि इससे नुक़सान किसका है. इसका सबसे बड़ा नुक़सान देश के नागरिकों को है. इसके उलट इसका सबसे बड़ा लाभ राजनीतिक दलों को है. जब आम नागरिक भी हर मसले पर पार्टी कार्यकर्ता के तौर पर व्यवहार करते दिखते हैं, तो फिर राजनीतिक दलों के लिए राजनीति करना आसान हो जाता है. हर मसले को दलगत समर्थन से जोड़कर देखा जाने लगता है. नतीजा यह होता है कि नागरिक केंद्रित मुद्दों पर सवाल का जवाब देने से बचने के लिए राजनीतिक दलों और सत्ता पर आसीन सरकार को आसानी से रास्ता मिल जाता है.
नागरिकों के दलगत खाँचों में बँटने से नुक़सान
ऐसे उदाहरण तो तमाम हैं, लेकिन इसे मणिपुर की घटना से बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. हम सबने देखा था कि मणिपुर और वहाँ के लोग मई की शुरूआत से ही हिंसा की आग में झुलसने को मजबूर थे. हालांकि ढाई महीने बीत जाने के बाद भी न तो मणिपुर की सरकार और न ही केंद्र की सरकार की ओर से जवाबदेही से जुड़ा कोई बयान आया था. उसके बाद 19 जुलाई को मणिपुर का एक वीडियो वायरल होता है. इस वीडियो में मणिपुर की दो महिलाओं के साथ भीड़ में से कुछ लोग बर्बरतापूर्ण हरकत करते दिखते हैं. हरकत ऐसी, जिससे इंसानियत और मानवता भी शर्मसार हो उठे. इस घटना से जुड़े वीडियो के वायरल होने के बाद पहली बार 20 जुलाई को प्रधानमंत्री का कोई बयान मणिपुर को लेकर सामने आता है. सत्र शुरू होने से पहले परंपरागत तौर से संसद परिसर में प्रधानमंत्री मीडिया के सामने अपनी बात रखते हैं, वो बयान उसी का हिस्सा था. अलग से कोई बयान नहीं आया.
सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही का मुद्दा
हमने देखा है कि मणिपुर की हिंसा के मामले में पूरे देश में आम नागरिकों में भी दलगत समर्थन के आधार पर बँटवारा दिखा है. महत्वपूर्ण है कि मणिपुर हिंसा जैसा विषय ऐसा है, जिसमें किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम लोगों का सुर एक होना चाहिए. हालांकि ऐसा नहीं होने की वज्ह से ही न तो अब तक मणिपुर की प्रदेश सरकार पर केंद्र की ओर कोई कार्रवाई की गयी और न ही प्रदेश सरकार की ओर से सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही को लेकर कोई बयान आया.
मणिपुर हिंसा एक ऐसा उदाहरण है, जिससे समझा जा सकता है कि जब आम नागरिक कार्यकर्ता बन जाएं, तो सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही से बचना कितना आसान हो जाता है. पूरे देश में उदाहरण तमाम भरे पड़े हैं, जिनमें सरकार और राजनीतिक दल अपनी जवाबदेही से लगातार बच जाते हैं. उन्हें पता है कि अब हर मुद्दे पर दलगत समर्थन के आधार पर आम लोग भी खाँटों में बँटे हैं. इसलिए उनको जवाब देने की ज़रूरत ही नहीं है. आपस में ही देश के आम नागरिक एक-दूसरे को जवाब भी दे रहे हैं और कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करते हुए अपने तर्कों से अपनी-अपनी पार्टियों का बचाव भी कर रहे हैं.
वास्तविक मुद्दों से लोगों को भटकाने की कोशिश
दलों के लिए इस तरह की प्रवृत्ति राजनीतिक हथियार सरीखा हो गया है. उन्हें वास्तविक मुद्दों से आम लोगों को भटकाने का कारगर ज़रिया मिल गया है. इससे बिना कुछ ठोस किए, बिना जवाब दिए.. उनकी राजनीति भी चमकती रहती है. हालाँकि नागरिक और उनके नैसर्गिक, संवैधानिक अधिकारों के यह बेहद ख़तरनाक है. प्रक्रिया इतनी धीमी होती है कि इसका परिणाम समझने में हम सबको या'नी आम लोगों को काफ़ी वक़्त लग जाता है.
अगर इससे नागरिकों को ऩुकसान है, तो यह सीधे तौर से लोकतांत्रिक व्यवस्था के उन आदर्शों पर आघात है, जिनको हासिल करने का लक्ष्य संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना में रखा गया है. संविधान शुरू में ही कहता है कि देश के हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिले. हर नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता हो. हर नागरिक को प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त हो सके. व्यक्ति की गरिमा और बंधुता सुनिश्चित हो. ये सारे लक्ष्य काग़ज़ी नहीं हैं. इन्हें हासिल वास्तविक रूप में हासिल करना था. इन लक्ष्यों तक सही मायनों में हर नागरिक की पहुँच सुनिश्चित हो, इसके लिए ही संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था की गयी है.
सरकार और दलों से सवाल पूछना नैसर्गिक अधिकार
संविधान के लागू होने के इतने साल होने के बाद इसी से जुड़ा एक सवाल बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है, जिस पर देश के आम लोगों को नागरिक बनकर समझने की ज़रूरत है. उसके बाद इसके मायने समझकर राजनीतिक दलों और सरकारों से सवाल पूछने की ज़रूरत है. क्या संविधान लागू होने के तक़रीबन 74 साल बाद भी आम लोगों तक वे सारे लक्ष्य अक्षरश: पहुँच पाए हैं.
इसे एक और उदाहरण से समझें. हम सब जानते हैं कि सरकार और उनसे जुड़ी पार्टी किस तरह से इस बात का प्रचार करते हैं कि उनकी सरकार देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज दे रही है. प्रचार का तरीक़ा वाहवाही वाला होता है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी इसे उपलब्धि के तौर पर दिखाता है. दरअसल हमने विमर्श ही हमेशा से उलटा रखा है. यह मसला वाहवाही या उपलब्धि वाला नहीं है. यह भारत जैसे देश के लिए शर्मसार करने वाला मुद्दा है. आख़िर पिछले सात दशक से देश में किस तरह की राजनीतिक व्यवस्था और शासन व्यवस्था रही है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी देश के 80 करोड़ लोग रोज़ का खाना जुटाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं. सवाल इस नज़रिये करने की ज़रूरत है. यह सवाल किसी एक दल या किसी एक सरकार से नहीं जुड़ा है. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के सफ़र में शामिल रहे तमाम राजनीतिक दल और सरकार ही ऐसे हालात के लिए ज़िम्मेदार हैं.
लोकतंत्र में सरकारी जवाबदेही बेहद महत्वपूर्ण
बतौर नागरिक हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वर्तमान सरकार से सवाल अधिक बनता है. सरकार और उससे जुड़े दलों की जवाबदेही ज़्यादा बनती है. अगर आम नागरिक भी कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करेंगे, तो ऐसे ही होते रहेगा. देश की एक बड़ी आबादी को खाने तक के लिए अनाज मुयस्सर नहीं हो पायेगा, उसके बावजूद राजनीतिक दलों की राजनीति बदस्तूर चमकती रहेगी.
लोकतंत्र में विपक्षी दल भी सवाल से परे नहीं
लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम लोगों के लिए सवाल सिर्फ़ सरकार या उससे जुड़े दलों तक ही सीमित नहीं होता है. इस व्यवस्था में विपक्ष की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. सवाल उनसे भी बनते हैं. सत्ताधारी दल और विपक्षी दल दोनों से मिलकर संसदीय प्रणाली की संरचना होती है विपक्ष की भूमिका सत्ताधारी दल या सरकार की आलोचना तक सीमित नहीं होती है. आम नागरिक विपक्षी दल से भी यह सवाल बार-बार करें कि आपने जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर कितना संघर्ष किया है. जन सरोकार से जुड़े मुद्दों पर सरकार को घेरने के साथ ही विपक्षी दलों ने संसद से लेकर सड़क तक उन मुद्दों को उठाने के लिए कितनी मेहनत की है.
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्षी दलों से जुड़े यह सारे सवाल भी उतने ही प्रासंगिक हैं. भारत में लंबे वक़्त से हमने देखा है कि विपक्षी दलों की पूरी की पूरी राजनीति आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रही है. सत्ताधारी दल भी इस तरह की राजनीति को बढ़ावा देते हैं.
नागरिक ही हैं राजनीति के असली आधार
लोकतंत्र में राजनीति, राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिक दलों के अस्तित्व का आधार हर परिस्थिति में और हर वक़्त आम जनता या'नी देश के नागरिक ही होना चाहिए. इसमें किसी अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. लेकिन यहाँ राजनीतिक दलों ने शुरू से ही राजनीति को कमोबेश आपसी आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित कर दिया है. इसमें मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है.
अमूमन हम देखते हैं कि जनता से जुड़े किसी मुद्दे पर एक पार्टी कुछ संगीन आरोप लगाती है. फिर दूसरी तरफ से जो जवाब आता है, वो मुद्दा केंद्रित नहीं होता है. यह जवाब आरोप लगाने वाले दल या उसके नेता को निशाना बनाने से जुड़ा होता है. राजनीतिक दलों में आपस में ही बयान-बाज़ी का दौर शुरू हो जाता है और मीडिया का अधिकांश तबक़ा उन बयानों को ही न्यूज़ का हिस्सा बना देता है. इन सबसे में जो जनता से जुड़ा मुद्दा रहता है, वो गौण हो जाता है. इतना ही नहीं दलगत आधार पर खाँचों में बँटे आम नागरिक भी उन सियासी बयानों में उलझकर रह जाते हैं और वास्तविक मुद्दे पर चिंतन-मनन से दूर हो जाते हैं.
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में उलझी जनता
दरअसल यह पूरी प्रक्रिया अपने-आप नहीं होती है. यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक पैटर्न का रूप ले चुका है, जिसे राजनीतिक दलों का शह होता है. जब देश के आम लोग घर बैठे ही कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करने को तैयार हों, तो फिर इस प्रक्रिया को अमली जामा पहनाना किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के लिए सुगम हो जाता है.
बतौर आम नागरिक अगर ग़ौर करेंगे, तो अपने देश में कोई एक मुद्दा कुछ दिनों के लिए सुर्खियों में रहता है. फिर उसके बाद किसी और मुद्दे पर राजनीति बयान-बाज़ी का दौर आ जाता है. यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है. चंद दिनों में मुद्दे बदलते जाते हैं, बयान-बाज़ी का तरीक़ा कमोबेश एक समान ही रहता है. अब तो सोशल मीडिया के विस्तार ने इस प्रक्रिया को और भी आसान कर दिया है. राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में उलझी जनता राजनीतिक दलों की बेसिर पैर की राजनीति के लिए सबसे लाभदायक होती है.
सिद्धांत में नहीं, व्यवहार में नागरिक बनने की ज़रूरत
भारत दुनिया की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है. हमारी सरकार 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने पर भी ज़ोर दे रही है. हर सरकार आती है और पुराने-पुराने लक्ष्यों के लिए नयी-नयी तारीख़ की घोषणा करते जाती है. इन सबके बीच नागरिक की हैसियत से आम लोगों के पास इंतिज़ार के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है. विकल्प है, बस नागरिक बनकर रहने की ज़रूरत है. नागरिक सैद्धांतिक तौर से नहीं, बल्कि व्यावहारिक तौर से बनने की ज़रूरत है. इसके लिए नागरिक अधिकारों के नज़रिये से आम लोगों को सोचने और चिंतन-मनन की दरकार है.
चुनावी मौसम में नागरिकता का महत्व और सवाल
इसके लिए सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक सर्वोपरि हैं. राजनीतिक दल या सरकार समझें या नहीं समझें, आम लोगों को पहले इसे समझना और उसके बाद मानना पड़ेगा. देश जब चुनावी मोड में हमेशा रह ही रहा है, तो चुनावी मौसम में नागरिकता का वास्तविक महत्व समझने की ज़रूरत है. ऐसे भी नवंबर में ही 5 राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में विधान सभा चुनाव होना है. उसके बाद अगले साल अप्रैल-मई में लोक सभा चुनाव होना निर्धारित है. लोक सभा चुनाव के समय और उसके आस-पास ही कुछ राज्यों में विधान सभा चुनाव भी होना है. इनमें आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम जैसे राज्य शामिल हैं.
जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने की ज़रूरत
राज्यों में विधान सभा चुनाव और अगले साल लोक सभा चुनाव को देखते हुए यह ज़रूरी है कि देश के आम लोग हर राजनीतिक दलों और अपने-अपने इलाकों के पुराने और चुनाव लड़ने वाले जनप्रतिनिधियों से नागरिक बनकर जमकर सवाल पूछें. सवाल पूछें कि जो पहले वादा किया था, उसे क्यों नहीं पूरा किया. आगे क्या करोगे, अगर नहीं करोगे तो फिर जवाबदेही लेनी होगी. इस तरह के सवाल पूछने का अधिकार देश के हर नागरिक को है. अपने देश में जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था है, उसमें सवाल पूछने के लिए चुनाव से बेहतर कोई और अवसर नहीं होता है. इस मसले पर अगर यह कहें कि मौजूदा व्यवस्था में भारत में सही मायने में सवाल पूछने का एकमात्र मौक़ा चुनाव ही होता है.
राजनीतिक दलों से नागरिकों के सवाल बेहद महत्वपूर्ण
हर दल से सवाल पूछा जाना चाहिए कि आज़ादी के 75-76 साल बाद भी देश में दो पहलू पर क्यों नहीं जी-तोड़ मेहनत की गयी. पहला पहलू प्राथमिक शिक्षा या'नी प्राइमरी एजुकेशन है और दूसरा पहलू प्राथमिक चिकित्सा है. दुनिया में जिस भी देश में उन्नत प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा तक हर नागरिक की पहुँच होती है, उस देश को तरक़्क़ी की चोटी पर पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता. इन दोनों ही मोर्चों पर भारत अभी बेहद पीछे है. इसका कारण है कि इन दोनों ही पहलुओं को लेकर तमाम सरकारों और राजनीतिक दलों ने कोई ठोस प्रयास नहीं किया है. यहां मेरा आशय प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा की वर्ल्ड क्लास सुविधा तक हर नागरिक की पहुँच को सुनिश्चित करने से है. तमाम सरकारें और राजनीतिक दल इन दो मोर्चों पर दावे तो बहुत करते हैं, लेकिन वास्तविकता देश के आम लोगों को ब-ख़ूबी पता है.
इसी तरह के कई सवाल हैं, जो हर चुनाव के समय राजनीतिक दलों से पूछा जाना चाहिए. ऐसा माहौल भविष्य में बने, इसके लिए ज़रूरी है कि देश के आम लोगों को हमेशा नागरिक बनकर व्यवहार करना रहना चाहिए, पार्टी कार्यकर्ता बनकर नहीं. लोकतांत्रिक व्यवस्था में वोट देना स्थायी तौर से उस पार्टी का समर्थक या कार्यकर्ता बन जाना नहीं होता है. न ही यह ईगो का मुद्दा है कि हमने अमुक दल को वोट दिया है, तो मुझे उसकी हर नीति और दाँव-पेच का समर्थन करना ही पड़ेगा. यह काम पार्टी से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं का होता है, न कि आम नागरिकों का. इस बात को बेहतर तरीक़े से समझने की ज़रूरत है.
अगर हम ऐसा कर पाए, तभी भारत सही मायने में भविष्य में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर से विकसित राष्ट्र बन पायेगा, वर्ना, फिर हम सिर्फ़ आर्थिक तौर से ही बड़ी अर्थव्यवस्था और विकसित राष्ट्र बनकर रह जायेंगे. देश के आम लोग और बहुसंख्यक आबादी मात्र वोट देने का ज़रिया बने रहेंगे और लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि (मंत्री, सांसद, विधायक) अघोषित तौर से सामंतवाद की तरह व्यवहार करते रहेंगे.
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