अभी पूरा देश राममय है. अयोध्या के राम मंदिर में 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के बाद इतना तय है कि आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी के लिए तुरुप का पत्ता साबित होने वाला है. उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में यह सबसे बड़ा मु्द्दा रहने वाला है, इसमें भी अब किसी तरह का शक-ओ-शुब्हा नहीं है.


राममय माहौल के बीट उत्तर भारत में एक ऐसा राज्य भी है, जिसे लेकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की चिंता लगातार बढ़ रही है. वह राज्य बिहार है. चुनाव में दो से तीन महीने का ही वक़्त बचा है और बिहार के सियासी समीकरणों को साधने में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को अभी तक कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा है. इस बीच बीजेपी के वरिष्ठ नेता अमित शाह की ओर से एक बयान आया है, जिसको लेकर अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं.


बिहार की राजनीति और जाति फैक्टर का प्रभाव


देश में माहौल चाहे कुछ भी हो, बिहार की राजनीति पर उसका कम ही असर पड़ता है. बिहार की राजनीति पर जातिगत समीकरण पहले की तरह अभी भी उतना ही हावी है. चाहे विधान सभा चुनाव हो या लोक सभा ..बिहार में हमेशा ही जाति फैक्टर का ही बोलबाला रहा है. प्रदेश में विकास का पैरामीटर चुनाव में कभी भी वास्तविकता मु्द्दा नहीं बन पाया है या कहें, राजनीतिक दलों ने बनने नहीं दिया है. हमेशा से ही बिहार में तमाम दलो और उनके नेता और कार्यकर्ता जाति की भावना को बार-बार कुरदते रहे हैं, जिससे चुनाव में वोटिंग के पैटर्न में इस फैक्टर का सदैव वर्चस्व रहा है.


बिहार में बीजेपी के लिए नहीं है मुनासिब स्थिति


यही वो जातिगत पहलू है, जिसकी वज्ह से आगामी लोक सभा चुनाव, 2024 को लेकर बीजेपी के लिए फ़िलहाल बिहार सबसे बड़ी फाँस की तरह है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता अमित शाह के हालिया बयान से भी इसे समझा जा सकता है. पहले जानते हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने क्या कहा. राजस्थान पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में अमिश शाह से नीतीश कुमार जैसे पुराने साथियों को लेकर पूछा गया कि ये आना चाहेगें तो क्या रास्ते खुले हैं. इसके जवाब में अमित शाह ने स्पष्ट तौर से कहा था कि जो और तो से राजनीति में बात नहीं होती. उन्होंने आगे साफ तौर से कहा कि किसी का प्रस्ताव होगा, तो विचार किया जाएगा.


अमित शाह के बयान से मिलते हैं स्पष्ट संकेत


इससे पहले बिहार से बीजेपी के तमाम नेता बार-बार इस बात को कहते आए थे कि जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं. ख़ुद अमित शाह भी अगस्त 2022 में नीतीश के पाला बदलने के बाद उन पर बयानों से बेहद हमलावर रहे हैं. अब अमित शाह के ताज़ा बयान के बाद बिहार से बीजेपी के नेताओं के सुर अचानक से बदल गए हैं.


अमित शाह के ताज़ा बयान का एक तरह से सीधा मतलब है कि अब नीतीश कुमार के आने से बीजेपी को कोई आपत्ति नहीं है. बिहार में बीजेपी के तमाम नेताओं के सुर भी बदल गए हैं. अमित शाह के बयान और बिहार में बीजेपी नेताओं के सुर में बदलाव का सीधा संबंध आगामी लोक सभा चुनाव में प्रदेश के सियासी समीकरणों को साधने से है.


सीट बँटवारे पर आरजेडी-जेडीयू के बीच रार


वर्तमान स्थिति के मुताबिक़ नीतीश और तेजस्वी एक साथ हैं और आगामी लोक सभा चुनाव में इनका गठबंधन रहेगा. हालाँकि पिछले कई दिनों से जेडीयू और आरजेडी के बीच सीट बँटवारे को लेकर रस्साकशी से जुड़ी ख़बरें और अटकलें थोक के भाव में मीडिया में तैर रही हैं. इसमें कहा जा रहा है कि बिहार की कुल 40 लोक सभा सीट में से 17 पर नीतीश कुमार की पार्टी चुनाव लड़ना चाहती है, जबकि जेडीयू की वर्तमान राजनीतिक हैसियत को देखते हुए आरजेडी इस पर सहमत नहीं हो रही है.


नीतीश के प्रति बीजेपी के रुख़ में बदलाव


यह तो आरजेडी-जेडीयू की समस्या है. लेकिन बीजेपी की समस्या बिहार को लेकर कुछ और ही है, जिसकी वज्ह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से नीतीश के प्रति पुराने रुख़ में बदलाव के संकेत दिए जा रहे हैं. बिहार में फ़िलहाल आगामी लोक सभा चुनाव को लेकर जो समीकरण है, उसके मुताबिक़ बीजेपी के लिए 2014 और 2019 की तरह राजनीतिक माहौल बिल्कुल नहीं है. ऐसे भी राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है और अगर कुछ स्थायी जैसी चीज़ होती भी है, तो वो है जीतने की संभावना बनाने के लिए कुछ भी करना. इस नज़रिये से नीतीश फिर से पाला बदल सकते हैं या बीजेपी नीतीश के लिए रास्ता आसान बना सकती है, हर संभावना की संभावना चुनाव होने तक बरक़रार है.


बिहार में बीजेपी को चाहिए मज़बूत सहयोगी


बिहार में बीजेपी के ख़िलाफ़ जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस का गठबंधन है. बिहार में बीजेपी के पास सहयोगी के तौर पर फ़िलहाल उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम माँझी, के साथ ही चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस हैं. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह भलीभाँति एहसास हो गया है कि बिहार में जेडीयू-आरजेडी के ख़िलाफ़ लड़ाई में इन सहयोगियों से कुछ ख़ास लाभ होने वाला नहीं है.


उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम का असर नहीं


उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम माँझी का प्रदेश में जनाधार न के बराबर है. लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से तो इनकी उपयोगिता और प्रासंगिकता ही कटघरे में है. प्रदेश में एक भी ऐसी लोक सभा सीट नहीं है, जहाँ उपेन्द्र कुशवाहा या जीतन राम माँझी अकेले दम पर जीतने का दमख़म रखते हों.


उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल और जीतन राम माँझी की पार्टी हिन्दुस्तान वाम मोर्चा का जनाधार अब प्रदेश में बिल्कुल ही नगण्य है. इन दोनों ही नेता की न तो प्रदेश में चुनाव जीतने के लिहाज़ से कोई साख है और न ही व्यापक जन समर्थन हासिल है. ऐसे में बीजेपी को 2024 के लोक सभा चुनाव में इन दोनों ही नेताओं से कोई ख़ास लाभ होगा, मौजूदा राजनीतिक समीकरण में इसकी गुंजाइश बनती नहीं दिखती है.


लोजपा में भी अब वो बात नहीं रह गयी है


उसी तरह से राम विलास पासवान के निधन के बाद यह पहला लोक सभा चुनाव होगा, जिसमें अब उनके द्वारा बनायी गयी लोक जनशक्ति पार्टी उतनी प्रभावी भूमिका में नहीं है. ऐसे भी लोजपा में दो गुट बन चुका है. एक गुट का प्रतिनिधित्व राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान करते हैं और एक गुट का प्रतिनिधित्व राम विलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस करते हैं. लोजपा के पास 6 से 7 फ़ीसदी का कोर वोट बैंक हमेशा ही रहा है. बीजेपी के सहयोग से इसका काफ़ी लाभ भी लोजपा को 2014 और 2019 के लोक सभा चुनाव में मिला था.


हालाँकि राम विलास पासवान के निधन के बाद हुए विधान सभा चुनाव, 2020 में लोजपा को प्रदेश में सिर्फ़ एक सीट पर जीत मिली थी. ऐसे भी चिराग पासवान और पशुपति पारस के बीच की तनातनी से लोजपा को लेकर प्रदेश के लोगों में भरोसा पिछले पाँच साल में बेहद कम हुआ है. ख़ासकर राम विलास पासवान के प्रति राजनीतिक आस्था रखने वाले तबक़े में अब वो एकजुटता नहीं दिख रही है.


जातिगत समीकरणों को साधने में परेशानी


कुल मिलाकर बीजेपी को  बिहार में जातिगत समीकरणों को साधने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. बिहार में तीन बड़े राजनीतिक दल हैं..आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू. इन तीनों से जो भी दो राजीतिक दल एक पाले में होते हैं, तो फिर जीत उसके ही पक्ष में सुनिश्चित हो जाता है. बिहार में 2005 से जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें यह समीकरण पूरी तरह से फिट बैठता है.


अक्टूबर-नवंबर 2005 और फिर 2010 में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी और जेडीयू साथ मिलकर चुनाव लड़ती है. दोनों ही बार इस गठबंधन की जीत होती है. उसी तरह से पिछला लोक सभा चुनाव, 2020 भी बीजेपी और जेडीयू मिलकर लड़ती हैं और बहुमत हासिल करने में इस गठबंधन को कामयाबी मिल जाती है. उसी तरह से 2019 के लोक सभा चुनाव में भी बीजेपी-जेडीयू का साथ बना रहता है. इसकी वज्ह से बिहार में एनडीए को 40 में 39 लोक सभा सीटों पर जीत मिल जाती है.


इसी तरह से 2015 में हुए विधान सभा चुनाव में नीतीश और लालू यादव एक साथ आ जाते हैं. इससे जेडीयू और आरजेडी को प्रदेश में बीजेपी के ख़िलाफ़ बड़ी जीत होती है. वहीं 2014 के लोक सभा जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी..तीनों ही अलग-अलग खेमे में होती हैं, जिसका सीधा फ़ाइदा बीजेपी को होता है. उस चुनाव में बीजेपी की अगुवाई में एनडीए को 40 में से 31 सीटों पर जीत मिल जाती है. वहीं जेडीयू सिर्फ़ दो ही सीट जीत पाती है.


बिहार की राजनीति में बाक़ी मुद्दों का असर कम


जिस तरह से नीतीश और तेजस्वी की पार्टियों के बीच सीट बँटवारे पर रार जारी है, उसको देखते हुए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व में भी हलचल हो रही है. भले ही उत्तर भारत के अन्य राज्यों में राम मंदिर के मुद्दे पर या फिर हिन्दू-मुस्लिम आधार पर वोट के ध्रुवीकरण का लाभ बीजेपी को मिलता रहा है, लेकिन बिहार में इसका असर उन राज्यों की तरह नहीं होता है. भविष्य में भी कुछ ऐसी ही संभावना है. बिहार तीनों ही पार्टियों को मुख्य ज़ोर जातिगत समीकरणों को अपने मुताबिक़ बनाने पर है. इसे साधे बिना बिहार में सीट को साधना आसान नहीं है. यही बिहार की राजनीति की सबसे बड़ी वास्तविकता भी है, विडम्बना भी है और विरोधाभास भी है.


बिहार में क्या-क्या विकल्प बन सकते हैं?


या तो नीतीश-तेजस्वी के बीच सीटों पर सहमति बन जायेगी या ऐसा नहीं होने पर नीतीश बाक़ी विकल्प पर भी सोच सकते हैं. वे या तो बीजेपी का दामन एक बार फिर से थाम सकते हैं या जेडीयू अकेले चुनाव लड़ सकती है. अगर जेडीयू-आरजेडी गठबंधन बना रहता है, तो बीजेपी के लिए बिहार में पुराना प्रदर्शन दोहराना बेहद मुश्किल हो जायेगा.


अगर नीतीश 2014 की तरह अकेले चुनाव लड़ते हैं, तब इससे बीजेपी की मुश्किलें बढ़ जायेंगी. ऐसे तो 2014 में जेडीयू और आरजेडी के अलग-अलग चुनाव लड़ने का बीजेपी को लाभ हुआ था, लेकिन इस बार हालात बिल्कुल अलग है. अगर सच में ऐसा होता है कि जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी तीनों ही अलग-अलग चुनाव लड़ती है, तो इस बार बीजेपी 2014 की तरह प्रदर्शन दोहराने की स्थिति में नहीं होगी. इसका सबसे बड़ा कारण तेजस्वी यादव हैं. 2014 के लोक सभा चुनाव के समय बिहार में आरजेडी की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी. वर्तमान में बिहार में सबसे अच्छी स्थिति में अगर कोई पार्टी है, तो वो आरजेडी है.


विधान सभा चुनाव, 2020 के साथ ही प्रदेश में एक बार फिर से आरजेडी का उभार तेज़ी से हुआ है. उस चुनाव में 75 सीट जीतकर से बड़ी पार्टी बनी थी. उसके वोट बैंक में भी तक़रीबन पाँच फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था. जबकि 2019 के लोक सभा चुनाव में आरजेडी का खाता तक नहीं खुला था.


जेडीयू कमज़ोर हुई है और आरजेडी मज़बूत


पिछले एक दशक में बिहार की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव आया है. धीरे-धीरे नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू लगातार कमज़ोर हुई है. उसका जनाधार भी तेज़ी घटा है. इसके विपरीत तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी का उभार हुआ है. तेजस्वी यादव अपने पिता लालू प्रसाद यादव की छत्रछाया से पार्टी को निकालकर उसे एक नया स्वरूप देते हुए नज़र आते हैं. जातिगत गणना के बाद फिर से बिहार में जाति आधारित राजनीति में नयी धार देखने को मिल रही है, जो आरजेडी के भविष्य के नज़रिये से सबसे अधिक मुफ़ीद है.


बीजेपी का जनाधार बिहार में नहीं बढ़ा है


वहीं बीजेपी के लिए 2014 और 2019 का लोक सभा चुनाव तो अच्छा रहा था, लेकिन पिछले एक दशक में तमाम प्रयासों के बावजूद उसके जनाधार में कोई ख़ास इज़ाफा नहीं दिख रहा है. बीजेपी को 2014 के लोक सभा चुनाव में बिहार में 29.40% वोट हासिल हुए थे. वहीं पिछले लोक सभा चुनाव या'नी 2019 में बिहार में बीजेपी के वोट शेयर में तक़रीबन 6 फ़ीसदी की गिरावट हुई थी.


अगर बिहार विधान सभा चुनाव की बात करें, तो 2015 में  वोट शेयर 24.4% था. वहीं 2020 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 20 फ़ीसदी के नीचे चला गया था. बीजेपी के वोट शेयर में पिछली बार के मुक़ाबले तक़रीबन पाँच फ़ीसदी की कमी दर्ज की गयी थी. इसके साथ ही बिहार में नेतृत्व के स्तर पर भी बीजेपी कोई ऐसा नेता तैयार नहीं कर पायी है, जिसक पूरे प्रदेश की जनता के बीच नीतीश या तेजस्वी की तरह राजनीतिक लोकप्रियता हो.


अगर नीतीश आरजेडी के साथ बने रहते हैं, तो फिर बिहार में एनडीए को सबसे ज़ियादा नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है. जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन की वज्ह से ख़ुद बीजेपी के लिए 2019 के प्रदर्शन को भी दोहराना मुश्किल हो जायेगा. एनडीए को 2019 में 39 सीट पर जीत मिली थी, जिसके तहत बीजेपी के खाते में 17 सीटें थी.


अकेले दम पर आरजेडी अभी सबसे मज़बूत


बिहार में यादव वोट बैंक आरजेडी के पक्ष में पूरी तरह से है. नीतीश की वज्ह से कुर्मी-कोइरी वोट के साथ ओबीसी के अन्य तबक़ों का भी अधिकांश वोट विपक्षी गठबंधन इंडिया के पाले में जाने की संभावना बन रही है. इनके अलावा बिहार में मुस्लिम वोट बैंक की अहमियत भी अच्छी ख़ासी है और फ़िलहाल इसके पूरी तरह से आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू के पक्ष में  रहने की संभावना है. बिहार में इस गोलबंदी की काट बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल है.


जैसे ही बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को समझ आया कि आरजेडी-जेडीयू के बीच सीट बँटवारे को लेकर टकराव बढ़ रहा है और सहमति बनने की गुंजाइश कम हो रही है, अमित शाह की ओर से संकेत दे दिया गया कि अगर नीतीश पहल करते हैं, तो एक बार फिर से उनका एनडीए में स्वागत किया जा सकता है.


पाला बदलने की नीति और नीतीश का लाभ


नीतीश की राजनीति पाला बदलने की नीति पर टिकी रहती है. इसे हर कोई अब ब-ख़ूबी जान भी गया है और बेहतर तरीक़े से समझता भी है. मन माफिक चीज़ें नहीं होने पर पाला बदलने की फ़ितरत ही नीतीश की सबसे बड़ी ताक़त रही है. उनकी पार्टी जेडीयू लगातार कमज़ोर हो रही है. जनाधार में भी तेज़ी से कमी आयी है. पिछले विधान सभा चुनाव में जेडीयू को महज़ 43 सीटों से संतोष करना पड़ा था. जेडीयू का वोट शेयर भी इस चुनाव में गिरकर 15.36% पर पहुँच गया था.


अकेले दम पर नीतीश कुमार की पार्टी बिहार में कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं रही है, जिससे जेडीयू को लेकर कहा जाए कि उसका एकछत्र राज है. हमेशा ही नीतीश कुमार को चुनावी नैया पार कराने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत पड़ी है. हम सबने देखा था कि  2014 के लोक सभा चुनाव में अकेले लड़ने के कारण जेडीयू की क्या स्थिति हो गयी थी. हालाँकि बिहार में जिस तरह का सियासी समीकरण है, उसके तहत पाला बदल-बदलकर नीतीश 2005 से मुख्यमंत्री के पद पर बने हुए हैं.


क्या आरजेडी नीतीश को मनमुताब़कि सीट देगी?


आरजेडी इस बात को समझ रही है कि गठबंधन के तहत जेडीयू को अधिक सीट देने का सीधा लाभ बीजेपी को मिल जायेगा. जेडीयू के साथ गठबंधन के तहत जितनी अधिक सीट पर आरजेडी लड़ेगी, बिहार में उन सीटों पर बीजेपी के हारने की संभावना उतनी ही प्रबल होगी. इसके विपरीत आरजेडी के साथ के बावजूद जेडीयू जितनी सीट पर लड़ेगी, उन सीटों पर बीजेपी के हारने की संभावना उतनी ही कम होगी. बिहार के सियासी समीकरण से फ़िलहाल इस निष्कर्ष को निकालना बेहद आसान है. यही कारण है कि आरजेडी चाहती है कि नीतीश साथ भी रहें और कम सीच पर भी मान जाएं.


नीतीश के रुख़ पर टिका है जेडीयू का भविष्य


हालाँकि नीतीश कुमार के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती जेडीयू को बचाने की है. इसके लिए अगर मनमुताबिक़ सीट देने को आरजेडी राज़ी नहीं हुई, तो नीतीश जल्द ही पाला बदलने का फ़ैसला कर सकते हैं. बीजेपी इस बात को बेहतर समझ रही है.


नीतीश कुमार अपनी पार्टी की ज़मीनी हक़ीक़त बेहतर तरीक़े से समझ रहे हैं. आरजेडी जितनी मज़बूत होगी, जेडीयू बिहार में उतनी ही कमज़ोर होगी. भविष्य में इसकी भी संभावना प्रबल है कि बिहार की राजनीति में जेडीयू की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जाए. जिस तरह से बिहार के लोगों में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को लेकर छवि बन रही है, उसमें आरजेडी के लिए बेहतर ज़मीन तैयार हो रही है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 2025 के विधान सभा चुनाव के बाद भविष्य में आरजेडी और बीजेपी के बीच ही चुनावी मुक़ाबला होता दिखेगा और जेडीयू का अस्तित्व ही ख़त्म न हो जाए.


नीतीश की उलझन और बीजेपी का लाभ


बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नीतीश की हालत समझ रहा है. बिहार में पार्टी की मुश्किलों से भी शीर्ष नेतृत्व वाक़िफ़ है. ऐसे में 2024 के लोक सभा चुनाव में नीतीश के साथ आने से बीजेपी को बिहार से होने वाले नुक़सान की आशंका को कम करने में मदद मिलेगी. एक तरह से देखें, तो, नीतीश की भी नज़र बीजेपी पर है, साथ में बीजेपी के लिए भी नीतीश बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं. अगर नीतीश पाला बदलकर फिर से बीजेपी का दामन थाम लेते हैं, तो एनडीए के लिए यह फ़ैसला 2014 और 2019 की तरह एक बार फिर से बिहार में शानदार प्रदर्शन की गारंटी बन सकता है.


इसलिए ही अमित शाह ने जानबूझकर ऐसा बयान दिया है, जिससे जेडीयू-आरजेडी गठबंधन में संशय पैदा हो और उसके बाद नीतीश एनडीए में लौटने के बारे में सोचें. एक तरह से बिहार में एक बार फिर से ऐसा माहौल बन रहा है, जिसमें समीकरण पूरी तरह बदल सकता है.


तेजस्वी यादव के रुख़ पर बहुत कुछ निर्भर


आगामी लोक सभा चुनाव में बिहार में सियासी समीकरण का स्वरूप कैसा रहेगा, अब यह बहुत हद तक आरजेडी पर भी निर्भर करता है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि नीतीश अपनी बात पर ही अडिग रहेंगे और अब यह तेजस्वी पर है कि वो नीतीश को अपने पाले में रखने में कामयाब होते हैं या नहीं. ऐसे भी नीतीश के लिए अब बीजेपी की ओर से संकेत मिल ही गया है कि जब मन चाहे आप आ सकते हैं, आपका स्वागत.


अमित शाह के बयान से तेजस्वी यादव की परेशानी ज़रूर बढ़ गयी है. तेजस्वी यादव कतई नहीं चाहेंगे कि आगामी लोक सभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी के मिलन से उनकी पार्टी की स्थिति 2019 जैसी ही रहे. हालाँकि तेजस्वी के लिए नीतीश कुमार को अधिक सीट देना उतना आसान नहीं होगा. यह एक तरह से विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के साथ ही आरजेडी लिए नुक़सानदायक और बीजेपी के लाभदायक साबित हो सकता है. ऐसे में अब सबकी नज़र तेजस्वी यादव के रुख़ पर टिकी है.  


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