भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद हुए 76 साल से अधिक समय हो गया है. इसके बावजूद यहाँ व्यावहारिक स्तर पर राजनीति का प्रमुख आधार अभी भी जाति-धर्म ही है. 18वीं लोक सभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मी उफान पर है. देश के तमाम राजनीतिक दल और उनके नेता अपने-अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए जाति और धर्म का खुले-'आम इस्तेमाल कर रहे हैं. चुनावी रणनीति तैयार करने में कमोबेश हर दल का ज़ोर धर्म और जाति से जुड़े समीकरणों को साधने पर है.


जातीय और धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति कोई नयी बात नहीं है. संविधान लागू होने के बाद देश में पहला आम चुनाव अक्टूबर, 1951 से फरवरी, 1952 के बीच हुआ था. तब से लेकर आज तक चुनाव में किसी न किसी रूप में जाति और धर्म के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और ध्रुवीकरण का इतिहास रहा ही है. अब तक 17 लोक सभा चुनाव हो चुका है. इसके अलावा राज्यों में अनगिनत विधान सभा चुनाव हुए हैं.


डिजिटल सदी में जाति-धर्म की राजनीति


इस साल अप्रैल-मई में 18वीं लोक सभा के लिए चुनाव निर्धारित है. हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में हैं. यह डिजिटल सदी है. दुनिया तकनीकी विकास के उस युग में पहुँच चुकी है, जहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है. इसके विपरीत भारत में अभी भी जाति-धर्म की चाशनी में सराबोर राजनीति की धारा बह रही है. अगर हम ग़ौर से तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं के बयानों, मंसूबों और इरादों का विश्लेषण करें, तो राजनीति में जाति-धर्म की मिलावट के मोर्चे पर भारत में कुछ भी नहीं बदला है. राजनीतिक तंत्र का विकास ही उस रूप में किया गया है, जिससे आम जनता चाहकर भी जाति-धर्म के चंगुल से बाहर नहीं निकल पा रही है.


जाति-धर्म में उलझी राजनीति और आम लोग


सवाल उठता है कि इस परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार कौन है. सरल शब्दों में कहें, तो, इसके कोई एक शख़्स या कुछ व्यक्तियों का झुंड ज़िम्मेदार नहीं है. इस व्यवस्था और हालात के लिए देश के तमाम राजनीतिक दल और उनसे जुड़े नेता ज़िम्मेदार हैं. राजनीतिक दलों ने राजनीति को सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता हासिल करने की महत्वाकांक्षा तक सीमित कर दिया है. इस महत्वाकांक्षा को हासिल करने में राजनीतिक दल और नेता किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं.



इसमें राजनीतिक दलों को जाति-धर्म का रास्ता सबसे सरल लगता है. यह स्थिति तब है, जब संवैधानिक और क़ानूनी तौर से जाति-धर्म के आधार पर सार्वजनिक रूप से वोट मांगने पर पाबंदी है. सैद्धांतिक तौर से हर दल और नेता इस तथ्य से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखने का दावा करते आए हैं, लेकिन वास्तविकता और व्यवहार में पहले से  यह होता आ रहा है. अभी भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है.


ज्ञान की बातें सिर्फ़ किताबों तक ही सीमित


जाति और धर्म किसी भी व्यक्ति को जन्मजात मिल जाता है. इसमें हासिल करने जैसा कुछ नहीं है. हम लोग बचपन से किताबों में पढ़ते आ रहे हैं कि जाति-धर्म के नाम पर राजनीति किसी भी संवैधानिक व्यवस्था में उचित नहीं है. आज़ादी के कुछ दशक तक कहा जाता था कि भारत में साक्षर लोगों की संख्या कम है. निरक्षरता की वज्ह से राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए आम लोगों को जाति और धर्म के फेर में उलझाना आसान हो जाता था. हालाँकि उस वक़्त कहा जाता था कि जैसे-जैसे देश में साक्षरता बढ़ेगी, नए-नए तकनीक का आगमन होगा..लोगों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति की चेतना जागेगी..वैसे-वैसे लोगों की सोच बदलेगी और फिर जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करना मुश्किल होता जाएगा.


इसे विडंबना ही कहेंगे कि साक्षरता बढ़ी, आम लोगों के जीवन में तकनीक का प्रयोग भी बढ़ा, उसके बावजूद राजनीति में जाति-धर्म का प्रभाव घटने की बजाए बढ़ गया है. पिछले एक दशक में इस प्रवृत्ति को और भी बढ़ावा मिलते दिख रहा है. कोई सैद्धांतिक तौर से इसे स्वीकार करे या नहीं करे..यह वास्तविकता है कि पिछले एक दशक में बीजेपी की राजनीति के फलने-फूलने के पीछे एक महत्वपूर्ण फैक्टर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण रहा है. आम लोगों में हिन्दू-मुस्लिम भावना को उकेर कर राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि में बीजेपी और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं को कामयाबी भी मिली है.


धर्म-जाति की राजनीति और बीजेपी का विस्तार


पिछले एक दशक में दो लोक सभा चुनाव हुए हैं और कई राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए हैं. इस दरमियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने कई बार इस तरह का बयान दिया, जिससे हिन्दू-मुस्लिम भावनाओं को बल मिले और आम लोगों में दलगत आस्था धर्म के आधार पर विकसित हो सके. धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण हो सके. भीड़ में कपड़ों के आधार पर ख़ास समुदाय को पहचानने से संबंधित बयान अभी भी कई लोगों के ज़ेहन में ज़रूर होगा.


जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनी है, राजनीतिक तौर से देश में इस तरह का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश हुई है कि हिन्दू ख़तरे में हैं. मई 2014 से पहले सदियों तक तमाम तरह के झंझावात झेलने के बावजूद हिन्दू धर्म कभी ख़तरे में नहीं रहा, लेकिन पिछले एक दशक में वातावरण बनाया गया कि हिन्दू धर्म पर ख़तरा है. वो भी तब, जब सनातन-सनातन का राग अलापने वाली बीजेपी की सरकार है. पिछले एक दशक में कई ऐसे मौक़े आए, जब राजनीति में धर्म का घालमेल सरकारी स्तर पर सार्वजनिक तौर से दिखा.


पिछले एक दशक में हमने कई बार देखा और सुना है, जब बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहचान को ओबीसी से जोड़ते हुए बयान दिया है. हालाँकि जब विपक्ष जातीय जनगणना के मसले को हवा देने लगा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह भी कहने से पीछे नहीं रहे कि देश में सिर्फ़ दो ही जाति है..अमीर और ग़रीब. इनके अलावे भी कई सारे उदाहरण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि बीजेपी के तमाम नेता धर्म के साथ ही जाति का ज़िक्र सार्वजनिक तौर करते रहे हैं.


विपक्ष की ओर से जातिगत जनगणना का राग


बीजेपी के वचर्स्व को ख़त्म करने के लिए अब कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल और उनके नेता जातिगत जनगणना को इस बार के लोक सभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाने के प्रयास में जुटे हैं. धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की काट के तौर पर विपक्षी दल जातिगत भावनाओं के आधार पर भावनाओं को बल देने में जुटे हैं. भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी जिस मुद्दे को सबसे अधिक उभार रहे हैं, वो जातिगत जनगणना का ही मसला है. राहुल गांधी का कहना है कि जिस जाति की जितनी आबादी है, उस अनुपात में उस तबक़े को हर चीज़ में हिस्सा मिलनी चाहिए. राहुल गांधी हर दिन देश की जनसंख्या में अलग-अलग जातियों और तबक़ों की हिस्सेदारी से जुड़े आँकड़ों को भी बता रहे हैं.


राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसे नेता जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी बता रहे हैं. इसे वंचितों को हक़ देने से जोड़ रहे हैं. इसे विडंबना ही कहेंगे कि कुछ साल पहले तक जातिगत जनगणना के मसले पर राहुल गांधी इस तरह से मुखर नहीं थे. आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी सबसे अधिक ज़ोर इसी मुद्दे को दे रहे हैं. अमुक जाति की इतनी आबादी है, तो उस अनुपात में उस जाति को उसका हक़ क्यों नहीं मिला..इस सवाल को राहुल गांधी बार-बार जनता के बीच उठा रहे हैं.


चुनाव को देखते हुए जातिगत गणना पर ज़ोर


हालाँकि एक सवाल राहुल गांधी से भी बनता है. कांग्रेस तक़रीबन 6 दशक तक केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद इस काम को क्यों नहीं कर पायी. इसके साथ ही 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आँकड़ों को उस वक़्त कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने क्यों नहीं जारी किया. अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी को जातीय जनगणना का मुद्दा उठाते हुए इन सवालों का जवाब भी जनता के सामने रखना चाहिए. सवाल तो राहुल गांधी से यह भी बनता है कि पिछले कई साल से इस मसले पर चुप्पी साधने के बाद अचानक देश में ऐसा क्या हुआ कि उन्हें जातिगत जनगणना का मसला सबसे महत्वपूर्ण लगने लगा. आख़िर लगभग 60 साल तक देश की सत्ता पर रहने के बावजूद कांग्रेस देश में सामाजिक न्याय को व्यवहार में लागू क्यों नहीं कर पायी. वंचित तबक़े को इतने सालों में उनका हक़ क्यों नहीं दिला पाई.


जातिगत जनगणना के फेर में बाक़ी मुद्दे गौण


देश के आम लोगों और ग़रीबों के सामने और भी समस्याएं गंभीर रूप में मौजूद हैं. महंगाई, बेरोज़गारी, सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा की कमी, बेहतर इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर, शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रभुत्व जैसे कई मुद्दे हैं, जिनसे देश के हर तबक़े का वास्ता है. राहुल गांधी समेत विपक्ष के तमाम दल इन मुद्दों को उठाते तो हैं, लेकिन इनके लिए सड़क पर लंबा संर्घष करता हुआ कोई भी विपक्षी दल और उनके नेता नज़र नहीं आते हैं. पिछले कुछ दिनों में विपक्षी नेताओं की ओर से जिस तरह के बयान आ रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना का मुद्दा ही इनके लिए प्राथमिकता है.


दरअसल कांग्रेस और बीजेपी समेत तमाम दलों ने वर्षों से जिस राजनीतिक तंत्र का विकास किया है, इनके नेताओं को भलीभाँति एहसास है कि महंगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों की अपेक्षा जाति-धर्म के आधार पर राजनीतिक घेराबंदी और वोट पाना ज़ियादा आसान है.


जातिगत समर्थन और राजनीतिक दलों का अस्तित्व


भारत में कई ऐसे दल हैं, जिनका आधार ही किसी ख़ास जाति या तबक़े में पकड़ पर आधारित है. जिस तरह से बीजेपी के विस्तार में धर्म का प्रभावी भूमिका रही है, उसी तरह से अलग-अलग राज्यों में प्रभाव रखने वाले कई ऐसे दल हैं, जिनका अस्तित्व और विस्तार ही ख़ास जाति या समुदाय के समर्थन पर टिका रहा है. इमें बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, जनता दल (सेक्युलर) जैसी पार्टियों का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है. इनके अलावा भी कई छोटे-छोटे दल हैं, जिनकी नींव विशेष जातिगत समर्थन पर ही टिकी है.


जाति की राजनीति का ज़ोर और बिहार की बदहाली


ऐसे तो पूरे भारत में कई राज्य हैं, जहाँ की राजनीति पर जातिगत समीकरण पूरी तरह से हावी है. उदाहरण के तौर पर लें, तो, बिहार से बेहतर नाम कोई और नहीं हो सकता है. जातिगत राजनीति के फेर में उलझने से बदहाली किस तरह से प्रदेश के आम लोगों की नियति बन जाती है, इसका ज्वलंत प्रमाण बिहार है. बिहार आज देश का सबसे पिछड़ा राज्य है. इसके लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार कारक जातिगत राजनीति में वहां के लोगों का उलझना है.


आज़ादी के बाद से बिहार की राजनीति में जाति का पहलू ही सबसे महत्वपूर्ण रहा है. अभी भी स्थिति कमोबेश वैसी ही है. कांग्रेस, आरजेडी , जेडीयू, बीजेपी और एलजेपी इन तमाम पार्टियों और उनके नेताओं ने वर्षों से बिहार के लोगों को जातियों के शिकंजे में राजनीतिक तौर से क़ैद करके रखा. बाक़ी राज्यों में भी यह पहलू मौजूद है, लेकिन बिहार में पूरी तरह से हावी है.


यही कारण है कि बिहार में चुनाव के वक़्त कभी भी विकास का मुद्दा हावी हो ही नहीं पाता है. प्रदेश की जनता चाहती भी है कि सार्वजनिक जीवन में जाति से अलग होकर व्यवहार किया जाए. हालाँकि राजनीतिक दल और उनके नेता व्यवहार में ऐसा होने नहीं देते हैं. राजनीतिक दलों की ओर से कुछ-न-कुछ ऐसा शिगूफ़ा छोड़ ही दिया जाता है, जिससे बिहार के लोग फिर से जातिगत आधार पर दलगत आस्था में बंधकर वोट करने को विवश हो जाते हैं.


पिछले एक साल से बिहार जातिगत जनगणना को लेकर सुर्ख़ियों में रहा है. बिहार में जातीय सर्वे के नाम पर नीतीश कुमार की सरकार जातीय आँकड़ों को जारी करती है. उस वक़्त आरजेडी भी प्रदेश सरकार का हिस्सा थी. बिहार के लोग पहले से जातीय भावनाओं के आधार पर बिखराव और विकास के अभाव से जुड़े दंश को झेलने को मजबूर थे. पिछले साल हुए सर्वे के बाद एक बार फिर से बिहार में जातीय भावनाओं के आधार पर राजनीतिक और सामाजिक बिखराव और द्वेष का नया दौर शुरू हो गया है. इस तरह की प्रवृत्ति ग्रामीण इलाकों में और बलवती हो गयी है.


जाति के नाम पर राजनीति से किसका लाभ?


विडंबना देखिए कि नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव के साथ रहकर जातिगत सर्वे का क्रेडिट लिया, लेकिन अब उन्होंने पाला बदल लिया है. इसका असर यह हुआ कि जातिगत आधार पर सामाजिक न्याय की बात को वो अब बार-बार बोलते हुए नज़र नहीं आते हैं. बिहार में जातिगत सर्वे के पीछे नीतीश और तेजस्वी दोनों ने ही यह दलील दी थी कि इससे प्रदेश में आबादी के आधार पर कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में मदद मिलेगी. बिहार में 1990 से लालू यादव परिवार या नीतीश कुमार सत्ता में हैं. सरकार में 33 साल रहने के बावजूद आरजेडी या जेडीयू के नेता प्रदेश के वंचित वर्ग का कल्याण नहीं कर पाए और अब इसके लिए उन्हें जातिगत आँकड़ों की ज़रूरत पड़ गयी. यह भी हास्यास्पद स्थिति ही है.


सामाजिक न्याय के नाम पर किसका विकास?


उससे भी अधिक विडंबना है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में तक़रीबन चार दशक से सामाजिक न्याय की बात करने वाले नेता ही सत्ता और राजनीति पर क़ाबिज़ रहे हैं. इसके बावजूद अब भी इन्हें वंचित तबक़ों का आँकड़ा ही पता नहीं है. यह भी हक़ीक़त है कि सामाजिक न्याय के नाम पर अपनी राजनीति को चमकाने वाले तमाम नेताओं के परिवार की आर्थिक स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँच गयी, लेकिन जिन तबकों को सामाजिक न्याय मिलना था, वे लोग अभी भी ग़रीबी का दंश झेलने को मजबूर हैं. बिहार में तो कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू के अलावा बीजेपी भी तक़रीबन 12 साल सरकार में हिस्सेदार रही है. सामाजिक न्याय की लड़ाई का दावा करने वाले नेताओं की राजनीति जातिगत आधार पर ख़ूब चमकी.


राजनीतिक दलों का जाल, जाति में उलझे लोग


जाति एक सामाजिक अवधारणा है, लेकिन भारत में इसे राजनीतिक अवधारणा में तब्दील कर दिया गया है. इसका प्रभाव उत्तर भारत के हिन्दी भाषी प्रदेशों में अधिक रहा है. उसमें भी बिहार और उत्तर प्रदेश प्रुमख हैं. इन दोनों के अलावा भी कई राज्य हैं, जहाँ राजनीति में जाति की भूमिका को ही व्यावहारिक तौर से सबसे अधिक महत्व मिलता है. अब तो ऐसी स्थिति हो गयी है कि आम लोग जाति को दरकिनार करके राजनीति में सहभागी बनना भी चाहें, तो यह संभव नहीं है. जाति भूलने पर राजनीतिक दलों और नेताओं की ओर से जाति याद दिलायी जा रही है.


इसके साथ ही अफ़सोस का एक और पहलू है, जो लोकतंत्र में चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया से संबंधित है. व्यावहारिक स्तर पर राजनीति को जाति और धर्म केंद्रित बनाकर रखने में राजनीतिक दलों और नेताओं की इस मुहिम में मीडिया का एक बड़ा तबक़ा भी काफ़ी हद तक मददगार बनता रहा है.


धार्मिक या जातिगत आँकड़ा है सिर्फ़ बहाना


वर्षों से जाति और धर्म के राजनीतिक जाल में लोगों को भावनात्मक तौर से उलझाकर रखा गया है. पिछले सात दशक से केंद्र और तमाम राज्यों की सत्ता के साथ ही राजनीतिक तंत्र पर चुनिंदा दलों का ही आधिपत्य रहा है. घूम-फिरकर बारी-बारी से कुछ दल ही सत्ता या विपक्ष का हिस्सा बनते रहे हैं. पूरा सरकारी सिस्टम इनके अधीन रहा है. इसके बावजूद यह कहना है कि ग़रीब या वंचित तबक़ों की पहचान अब तक नहीं हो पायी है, यह समझ से परे हैं.


तमाम दलों और उनके प्रमुख नेताओं में सचमुच राजनीतिक इच्छाशक्ति होती, तो अब तक देश में ग़रीब या वंचित वर्गों की इतनी बड़ी तादाद नहीं होती. विकास और कल्याण के लिए धार्मिक या जातिगत आँकड़ा कोई पैमाना नहीं होता है. उसमें भी सात दशक बाद राजनीतिक दलों की ओर से इस तरह की बात की जाए, तो फिर यह राजनीतिक स्वार्थ का खेल और फ़रेब ही माना जाएगा.


जाति-धर्म के आधार पर दलगत आस्था ख़तरनाक


राजनीतिक दलों और नेताओं ने जिस तरह का राजनीतिक तंत्र विकसित किया है, उसमें एक और हैरान करने वाला पहलू भी दिखता है. राजनीतिक दल और नेता अपने हितों को आधार बनाकर पाला बदल लेते हैं, लेकिन इनकी अपेक्षा होती है कि जातिगत आधार पर दलगत समर्थन को लेकर आम लोग पलटी नहीं मारें. अमूमन ऐसा होता ही आ रहा है. आम लोगों के मन में इस कदर जातिगत समर्थन की भावना को बिठा दिया गया है कि नेताओं के पाला बदलने का भी असर उन पर नहीं होता है.


अब राजनीतिक दलों की ओर से धर्म और जाति आधारित राजनीति को नए सिरे से नया रूप देने की कोशिश की जा रही है. इसमें हर राजनीतिक दल का स्वार्थ निहित है. नागरिक केंद्रित विमर्श की जगह पर जाति और धर्म केंद्रित विमर्श को राजनीतिक तौर से अधिक महत्व देना... किसी भी लिहाज़ से देश के भविष्य के लिए सही नहीं कहा जा सकता है. क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि भविष्य में जब भारत विकसित राष्ट्र बने, उस वक़्त भी देशवासियों में राजनीतिक समर्थन का भाव धर्म और जाति के आधार पर ही तय हो. आम लोगों के हितों के नज़रिये से यह सवाल बेहद प्रासंगिक है. राजनीतिक दलों और नेताओं से उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में इस तरह की प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं मिले.


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