आम चुनाव, 2024 को लेकर पूरे देश में अभी से सियासी पारा चढ़ने लगा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लगातार तीसरी बार बीजेपी की दावेदारी काफ़ी मज़बूत नज़र आ रही है. जब 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन होगा और उसके बाद पूरे देश में जो माहौल बनेगा, उससे बीजेपी की ताक़त और संभावनाओं में और इज़ाफ़ा ही होगा, इसमें किसी तरह की शक की गुंजाइश नहीं है. कांग्रेस समेत हर विपक्षी दल के साथ ही तमाम राजनीतिक विश्लेषक इसे भलीभाँति समझ रहे हैं.
केंद्र की सत्ता की लड़ाई में पहले से ही बीजेपी की ताक़त इतनी अधिक है कि विपक्ष के किसी एक दल के लिए उसके सामने थोड़ी सी भी चुनौती पेश करना बेहद मुश्किल है. इसी कारण कांग्रेस समेत 26 विपक्षी दलों ने पिछले साल जुलाई में विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के तले आम चुनाव, 2024 को मिलकर लड़ने का फ़ैसला किया. बाद में इस गठबंधन में दलों की संख्या 28 हो गयी. इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी की मज़बूती को देखते हुए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में वो धार अब तक नहीं दिखी है, जिसके सहारे एनडीए सरकार को हराने का माहौल बन सके.
विपक्षी गठबंधन की धार कितनी तेज़?
विपक्षी गठबंधन में शामिल तो 28 दल हैं, लेकिन कुछ विपक्षी दलों के इसमें नहीं होने से इसकी सार्थकता उतनी नहीं रह गयी है. इन दलों में मायावती की बहुजन समाज पार्टी या'नी बीएसपी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल या'नी बीजेडी, वाई एस जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति या'नी बीआरएस प्रमुख रूप से हैं. ये चार दल भी विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के हिस्सा बन जाते, तो फिर बीजेपी के सामने मज़बूत चुनौती पेश करने की कसौटी पर इस गठबंधन की धार तेज़ दिखती.
विपक्षी गठबंधन और मायावती का महत्व
इन चार दलों में भी मायावती वो नाम हैं, जिनके विपक्षी गठबंधन में आने से बीजेपी को सबसे अधिक नुक़सान हो सकता है. बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त उत्तर प्रदेश है, जहां सबसे अधिक लोक सभा सीट हैं. उत्तर प्रदेश में कुल 80 लोक सभा सीट हैं. उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 2014 में 71 और 2019 में 62 सीटों पर जीत मिली थी. अगर एनडीए की बात करें, तो उसके खाते में उत्तर प्रदेश से 2014 में 73 और 2019 में 64 सीटें गयी थीं. इस रूप में देखें, तो उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहाँ नुक़सान पहुंचाए बिना बीजेपी के सामने मज़बूत चुनौती पेश करना बेहद मुश्किल है.
बिना मायावती यूपी में बीजेपी को नुक़सान नहीं
अगर विपक्ष सही मायने में चाहता है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुक़सान पहुँचे, तो इसके लिए उसे 'इंडिया' गठबंधन में मायावती को किसी भी तरह शामिल करने पर ज़ोर देना चाहिए. मायावती अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनने को राज़ी हो जाती हैं, तो 2024 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजों में बड़ा उलटफेर होने की थोड़ी बहुत संभावना बन सकती है. विपक्ष को यह नहीं भूलना चाहिए कि राम मंदिर का मुद्दा इस बार के लोक सभा चुनाव में पूरी तरह से हावी रहेगा. ऐसे तो पूरे उत्तर भारत में इस मुद्दे पर बीजेपी को भरपूर समर्थन मिलने की संभावना है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसका सबसे ज़ियादा असर देखने को मिलेगा.
ऐसी परिस्थिति में उत्तर प्रदेश में अगर मायावती विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनती हैं, तो समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के सामूहिक प्रयास का कोई ख़ास नतीजा निकलेगा, इसकी रत्तीभर भी गुंजाइश नहीं है.
त्रिकोणीय लड़ाई में बीजेपी को अधिक लाभ
फ़िलहाल विपक्षी गठबंधन के तहत उत्तर प्रदेश में जो स्थिति है, उसके मुताबिक मायावती के एनडीए और 'इंडिया' गठबंधन दोनों से अलग रहने से त्रिकोणीय लड़ाई होगी. इस त्रिकोणीय लड़ाई में बीजेपी उत्तर प्रदेश में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकती है क्योंकि मायावती बीजेपी विरोधी वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा अपने पाले में लाने में अभी भी सक्षम हैं. अपने विरोधी वोट के इस बँटवारे से बीजेपी 2014 से भी बेहतर प्रदर्शन कर दें, तो कोई आश्चर्य नीं होना चाहिए.
यह बात सही है कि मायावती और उनकी पार्टी की राजनीति अवसान पर है. उत्तर प्रदेश में अब बीएसपी उस स्थिति में नहीं है कि अकेले दम पर कुछ बड़ा कमाल कर सके. अकेले दम पर बीएसपी अब उस स्थिति में है कि एक भी लोक सभा सीट जीतना उसके लिए बेहद मुश्किल है. इस तथ्य के बावजूद यह भी उतना ही सही है कि अभी भी मायावती की पार्टी के पास एक बड़ा वोट बैंक है.
मायावती का यह वोट बैंक एक तरह से बीजेपी विरोधी वोट बैंक ही है. अकेले यह वोट बैंक अब मायावती के लिए उतना कारगर नहीं रह गया है. इसका दूसरा पहलू यह है कि अगर यह वोट बैंक समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरएलडी के सामूहिक वोट बैंक के साथ मिल जाए, तो इससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुक़सान की संभावना प्रबल हो जाती है.
अतीत का अनुभव भी बताता है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर बीजेपी को उतना नुक़सान नहीं पहुँचा सकते, जितना बीएसपी और समाजवादी पार्टी के मिलने से बीजेपी पर नकारात्मक असर पड़ता है. वहीं जब समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिलकर चुनाव लड़ती है, तो बीजेपी के नतीजों पर नकारात्मक असर अधिक पड़ता है.
सपा-कांग्रेस का साथ असरकारक नहीं
हम देख चुके हैं कि 2017 के विधान सभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ी तो उसका लाभ इस गठबंधन को नहीं हुआ. उस वक़्त मायावती की पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही थी, जिसका सीधा लाभ बीजेपी को हुआ. उस चुनाव में बीजेपी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए प्रदेश की कुल 403 में से 312 सीटों पर जीत हासिल कर ली. वहीं समाजवादी पार्टी को 21.82% वोट शेयर के साथ सिर्फ़ 47 सीट और कांग्रेस को 6.25% वोट शेयर के साथ महज़ सात सीट से संतोष करना पड़ा था. बीएसपी 22.23% वोट मिलने के बावजूद सिर्फ़ 19 सीट ही जीत पायी.
अगर 2017 के विधान सभा चुनाव में मायावती..समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ होतीं तो नतीजा कुछ और होता. विधान सभा चुनाव, 2017 में बीजेपी का वोट शेयर 39.67% रहा था. वहीं समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस का वोट शेयर मिला दें, तो यह 50 फ़ीसदी से पार चला जाता है. मायावती के अलग रहने से बीजेपी विरोधी वोच में बिखराव हुआ और बीजेपी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया.
विधान सभा चुनाव, 2022 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी का वोट शेयर 41.29% रहा था. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस तीनों ही अलग-अलग थी. हालाँकि इन तीनों दलों के साथ आरएलडी के वोट शेयर को मिला दें, तो यह 50 फ़ीसदी के पार चला जाता है. इन दोनों चुनाव से स्पष्ट है कि बीजेपी को नुक़सान तभी पहुँच सकता है, जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ मायावती भी मिलकर चुनाव लड़ने के लिए सहमत हो जाएं.
सपा-बसपा के मिलने से अधिक असर
अगर पिछले दो लोक सभा चुनाव पर ग़ौर करें, तो विपक्षी गठबंधन के लिए मायावती की अहमियत को ब-ख़ूबी समझा जा सकता है. आम चुनाव, 2014 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस सभी दल अलग-अलग चुानव लड़ी थी. इस परिस्थिति में बीजेपी ने 80 में से 71 सीट पर जीत दर्ज की थी. बीजेपी का वोट शेयर 42.30% रहा था. समाजवादी पार्टी को 22.20% वोट शेयर के साथ सिर्फ़ 5 सीट पर ही जीत मिल पायी थी. कांग्रेस को 7.50% वोट शेयर के साथ सिर्फ़ दो सीट पर जीत मिली थी. मायावती की पार्टी 19.60% वोट हासिल करने के बावजूद खाता तक नहीं खोल पायी थी. समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस का वोट शेयर मिला दें, तो यह 49 फ़ीसदी से अधिक हो जाता है.
आम चुनाव, 2019 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा था, लेकिन 2014 के मुक़ाबले उसे नुक़सान उठाना पड़ा था. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिलकर चुनाव लड़ी, जिससे बीजेपी को नुक़सान हुआ. बीजेपी 80 में से 62 सीट जीत पायी और उसे 2014 के मुक़ाबले 9 सीटों का नुक़सान हुआ. बीएसपी को 10 और समाजवादी पार्टी को 5 सीटों पर जीत मिली. काग्रेस को महज़ एक सीट से संतोष करना पड़ा. इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी का वोट शेयर तक़रीबन 50 फ़ीसदी था, उसके बावजूद उसे 9 सीटों का नुक़सान हुआ.
इन आँकड़ों के विश्लेषण से भी समझा जा सकता है कि जब मायावती और समाजवादी पार्टी का गठबंधन होता है, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी होने की संभावना बढ़ जाती है. वहीं मायावती के अलग रहने से समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा नहीं कर पाता है. मायावती के अलग रहने से उत्तर प्रदेश में बीजेपी और भी बेहतर प्रदर्शन कर पाती है. 2019 के लोक सभा चुनाव में हम देख चुके हैं कि लगभग 50 फ़ीसदी वोट मिलने के बावजूद बीजेपी को नुक़सान का सामना करना पड़ा था.
यूपी में 20% के आस-पास वोट शेयर
मायावती की अकेले दम पर स्थिति अब उतनी मज़बूत नहीं है, इसके बावजूद वे अभी भी एक बड़ी राजनीतिक ताक़त मानी जाती हैं. उनका वोट बैंक इसका सबसे बड़ा कारण है. राजनीति अवसान पर होने के बावजूद मायावती पूरे देश में अनुसूचित जाति की सबसे बड़ी नेता माना जाती हैं. बीएसपी पिछले डेढ़ दशक में सीटों पर जीत हासिल करने के लिहाज़ से विधान सभा और लोक सभा दोनों तरह के चुनावों में 2007 और 2009 की तुलना में लगातार कमज़ोर होती गयी है. चुनाव में लगातार ख़राब प्रदर्शन के बावजूद बीएसपी का उत्तर प्रदेश में कोर वोट बैंक हमेशा बना रहा है. चुनावी आँकड़ों से भी यह स्पष्ट है.
आम चुनाव, 2014 में बीएसपी कोई भी सीट नहीं जीत पाई थी, उस समय भी मायावती की पार्टी का वोट शेयर तक़रीबन 20 प्रतिशत रहा था. पिछले लोक सभा चुनाव या'नी 2019 में भी बीएसपी के वोट शेयर में कोई बड़ा फ़र्क़ नहीं आया था.
आम चुनाव, 2009 में बीएसपी अब तक सबसे अधिक 20 सीट जीतने में सफल हुई थी. इस चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर 27.42 प्रतिशत था. वहीं लोक सभा चुनाव, 2004 में बीएसपी का वोट शेयर 24.67% रहा था और 19 सीटों पर जीत मिली थी. बीएससी 1999 के लोक सभा चुनाव में 22.1% वोट शेयर के साथ 14 सीट जीतने में कामयाब हुई थी. बीएसपी 1998 के लोक सभा चुनाव में सिर्फ़ 4 सीट ही जीत पाई थी, लेकिन उसका वोट शेयर 20.9% रहा था. इसी तरह से आम चुनाव, 1996 में बीएसपी 6 सीट जीतने के साथ 20.6% वोट हासिल करने में सफल रही थी.
मायावती के अलग रहने से बीजेपी को लाभ
पिछले 7 लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे और आँकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि बीएसपी चाहे कितनी भी सीटें जीते या शून्य पर रहे, उसका वोट शेयर प्रदेश में 20% के आस-पास रहता ही है. मायावती की यही ताक़त है, जिसकी वज्ह से उत्तर प्रदेश में अभी भी उनकी राजनीतिक हैसियत बनी हुई है और बीएसपी का महत्व भी बरक़रार है.
मायावती अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनती हैं, जैसा कि उम्मीद है, तो फिर यह विपक्ष के 'बीजेपी को हराओ' मुहिम के लिए तगड़ा झटका है. साथ ही साथ उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए यह बड़ा एडवांटेज है.
दूसरे राज्यों में भी मायावती का प्रभाव
इतना ही नहीं, मायावती अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बन जाती हैं, तो इससे उत्तर प्रदेश के साथ ही 'इंडिया' गठबंधन को कई राज्यों में भी फ़ाइदा मिल सकता है. तमाम विपक्षी दलों में कांग्रेस के अलावा सिर्फ़ मायावती की पार्टी ही ऐसी है, जिसका, कम या अधिक, कई राज्यों में जनाधार है. मायावती से जुड़े इस पहलू का लाभ अगर विपक्षी गठबंधन को मिलना सुनिश्चित हो पायेगा, तो इससे विपक्ष की मुहिम को थोड़ी और धार मिल पायेगी.
कई राज्यों में है बीएसपी का वोट बैंक
मायावती उत्तर प्रदेश के साथ ही कई राज्यों में भी 'इंडिया' गठबंधन को लाभ पहुँचा सकती हैं. आम चुनाव, 2014 और 2019 में बीएसपी को कुछ राज्यों में हासिल वोट पर नज़र डालें, तो, विपक्षी गठबंधन के लिए मायावती की प्रासंगिकता को और बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़ , कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जहाँ बीएसपी का वोट बैंक, कम या ज़ियादा, है.
बीएसपी को मध्य प्रदेश में 2019 में 2.4% और 2014 में 3.8 % वोट हासिल हुए थे, वहीं 2009 में 5.9% वोट मिले थे. उसी तरह से छत्तीसगढ़ में 2019 में 2.3% और 2014 में 2.4% वोट मिले थे. उत्तराखंड में बीएसपी 2019 में 4.5% और 2014 में 4.8% तक वोट पाने में सफल रही थी.
पंजाब में बीएसपी का वोट शेयर 2019 में 3.5% और 2014 में तक़रीबन दो प्रतिशत रहा था. हरियाणा में 2019 में 3.6% और 2014 में 4.6% वोट शेयर बीएसपी के पास था. हिमाचल प्रदेश में बीएसपी का वोट शेयर 2019 में तक़रीबन एक फ़ीसदी और 2014 में 0.7% रहा था. बीएसपी को राजस्थान में 2019 में 1.1% और 2014 में 2.4% वोट मिले थे, जबकि 2009 में 3.4% वोट शेयर था.
बीएसपी को गुजरात में 2019 और 2014 दोनों में ही तक़रीबन एक फ़ीसदी वोट मिले थे. मायावती की पार्टी को बिहार में 2019 में 1.7% और 2014 में 2.2% वोट मिले थे. कर्नाटक में बीएसपी को 2019 में 1.2% और 2014 में करीब एक फीसदी वोट हासिल हुए थे. महाराष्ट्र में भी अतीत में मायावती की पार्टी का एक अच्छा ख़ासा कैडर रहा है. प्रकाश अंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी के आने से महाराष्ट्र में बीएसपी का जनाधार अब उस रूप में नहीं है.
यह वास्तविकता है कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को छोड़कर बाकी जितने भी दल हैं, वो अपने जनाधार से बाहर के राज्यों में एक-दूसरे को कोई ख़ास लाभ पहुँचाने की स्थिति में नहीं हैं. इसके विपरीत मायावती उत्तर प्रदेश के साथ ही कई और राज्यों में विपक्षी गठबंधन के लिए लाभकारी साबित हो सकती हैं.
मायावती का महत्व समझे विपक्षी गठबंधन
ऐसे तो मायावती पहले ही घोषणा कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी न तो एनडीए का हिस्सा बनेगी और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का. इसके बावजूद राजनीति में स्थायी कुछ भी नहीं है. बीजेपी की बढ़ती ताक़त और मायावती की अहमियत को देखते हुए विपक्षी गठबंधन को बीएसपी को अपने पाले में लाने के लिए ठोस पहल करने की ज़रूरत है. हालाँकि समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव का रुख़ देखते हुए यह इतना आसान नहीं होगा. अखिलेश यादव लगातार मायावती पर हमलावर हैं और मायावती भी समाजवादी पार्टी पर कटाक्ष का कोई मौक़ा नहीं गंवा रही हैं. ऐसे में मायावती का 'इंडिया' गठबंधन का हिस्सा बनने की संभावना बेहद ही क्षीण या कहें नहीं के बराबर है.
अखिलेश यादव को करनी चाहिए पहल
इन सबके बावजूद बग़ैर मायावती विपक्षी गठबंधन की धार उतनी तेज़ नहीं है. अगर मायावती को विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनाना है, तो इस दिशा में कांग्रेस के साथ ही समाजवादी पार्टी को पहल करनी होगी. अखिलेश यादव की पहल के बिना दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नहीं है.
उत्तर प्रदेश में 2022 के विधान सभा चुनाव के बाद जैसी राजनीतिक स्थिति बन गयी है, उससे अखिलेश यादव की चुनौती भी बढ़ गयी है. कांग्रेस को लेकर तो उत्तर प्रदेश के लोगों में पिछले एक दशक से ही नकारात्मक छवि है, जिसमें अभी भी कोई ख़ास बदलाव नहीं दिख रहा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बेहद दयनीय है. कांग्रेस का जनाधार भी सिकुड़ चुका है.
समाजवादी पार्टी के लिए अग्नि-परीक्षा के समान
समाजवादी पार्टी ने भले ही 2017 के मुक़ाबले 2022 के विधान सभा चुनाव में अकेले दम पर बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन अखिलेश यादव को यह नहीं भूलना चाहिए कि 2024 का लोक सभा चुनाव समाजवादी पार्टी के लिए अग्नि-परीक्षा के समान है. पहली बार समाजवादी पार्टी बग़ैर मुलायम सिंह यादव के किसी बड़े चुनाव में उतरने जा रही है. ये अलग बात है कि अखिलेश यादव अपने पिता के जीवित रहते ही समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा बन गये थे, लेकिन मुलायम सिंह यादव के सशरीर होने का लाभ समाजवादी पार्टी को अपने कोर वोट बैंक को बनाए रखने में मिल रहा था. आम चुनाव, 2024 में समाजवादी पार्टी के पास यह सकारात्मक पहलू नहीं होगा. ऐसे में अखिलेश यादव के लिए भी 2024 का चुनाव अस्तित्व का चुनाव है.
इन सब बिंदुओं पर ग़ौर करें, तो मायावती के विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनने से उत्तर प्रदेश में बीजेपी की दावेदारी को चुनौती मिलेगी और क़ाफी नुक़सान की संभावना को भी बल मिल सकता है. हालाँकि यह सब कुछ अखिलेश यादव और कांग्रेस की पहल के साथ ही मायावती के रुख़ पर निर्भर करता है.
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