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चेहरे की लड़ाई से दूरी में है विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की भलाई, अस्तित्व की लड़ाई में पीएम मोदी की छवि से मुक़ाबला कठिन

केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के लिए आगामी लोक सभा चुनाव एक प्रकार से अस्तित्व की लड़ाई है. भले ही 26 से ज़ियादा पार्टियां बीजेपी की अगुवाई में एनडीए को लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए एकजुट हुई हैं, लेकिन यह एकजुटता सिर्फ़ इसी मकसद की वज्ह से संभव नहीं हुआ है. यह कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, जेडीयू, आरजेडी, शरद पवार की पार्टी, उद्धव ठाकरे की पार्टी और बाक़ी विपक्षी दलों के लिए ख़ुद को बचाने की मजबूरी भी है.

एकजुटता क़ायम रखने पर हो ज़ोर

विपक्षी दलों का गठबंधन 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A.) के नाम से बना है. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में शामिल दलों की अब तक तीन बार पटना, बेंगलुरु और मुंबई में बैठक हो गई है. आम चुनाव 2024 में अभी 6 से 7 महीने का वक़्त बचा है. मोटे तौर पर आम चुनाव 2024 तक विपक्षी दलों की एकजुटता क़ायम, 'इंडिया' गठबंधन की पहली चुनौती यही है. इससे पार पाने के बाद ही विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार को किसी भी स्तर पर चुनौती देने की स्थिति में होगा.

सीटों के बँटवारे पर टिकी हैं नज़रें

विपक्षी दलों की एकजुटता बहुत हद तक सीटों के बँटवारे को लेकर राजनीतिक गुणा गणित को लेकर बनने वाली सहमति पर टिकी है. यह एक ऐसा मसला है, जिसको सुलझाने के लिए विपक्षी गठबंधन में शामिल पार्टियों को निजी हितों और गठबंधन के सैद्धांतिक मकसद के बीच सामंजस्य पर ख़ास तौर से ध्यान देना होगा.

इसके विपरीत देखने को यह मिल रहा है कि विपक्षी गठबंधन में शामिल कुछ दलों के छुटभैये नेता अपनी-अपनी पार्टियों के मुखिया को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बताने की अनर्गल होड़ में बयान-बाज़ी करने में जुटे हैं. जैसे जेडीयू के नेता नीतीश कुमार को दावेदार बता रहे हैं, तो तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता ममता बनर्जी को. इसके अलावा विपक्षी दलों में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के भीतर से भी राहुल गांधी को लेकर गाहे-ब-गाहे इस तरह के बयान आते रहते हैं. हालांकि यह मसला या इस मसले पर फोकस करके विपक्षी दलों के छुटभैये नेता विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का नुक़्सान ही कर रहे हैं. इस बात को साबित करने का पूरा आधार मौजूद है. इसे आगे समझेंगे.

2024 चुनाव में दो पहलू सबसे महत्वपूर्ण

लोक सभा चुनाव 2024 के मद्देनज़र विपक्षी गठबंधन को लेकर दो बातें या दो पहलू सबसे महत्वपूर्ण हैं. न तो इससे विपक्ष के तमाम दल इंकार कर सकते हैं और न ही इन दोनों बातों की अनदेखी ख़ासकर केंद्र की राजनीति की नब्ज़ को समझने वाले जानकार कर सकते हैं. पहला पहलू विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों के अस्तित्व से जुड़ा है. दूसरा पहलू विपक्षी गठबंधन के चेहरे से जुड़ा है. यहाँ चेहरा कहने का त'अल्लुक़ प्रधानमंत्री पद के दावेदारी से है.

कई विपक्षी दलों के लिए है अस्तित्व की लड़ाई

सबसे पहले बात करते हैं ..कैसे बड़े विपक्षी दलों के लिए 2024 की चुनावी लड़ाई अस्तित्व का सवाल है. अगर हम पिछले दो लोक सभा चुनाव के नतीजे और वर्तमान राजनीतिक माहौल पर ग़ौर फ़रमाएं, तो इस पहलू को बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की शुरू'आत 26 पार्टियों के गठजोड़ के साथ हुई थी. अब इसमें दो छोटे दल और जुड़ गए हैं.

लोक सभा में सीटों की संख्या के लिहाज़ से फ़िलहाल इस गठबंधन में शामिल प्रमुख दलों पर एक नज़र डालते हैं. कांग्रेस के पास फ़िलहाल 51 सांसद हैं. डीएमके के पास 24 और तृणमूल के पास 23 सासंद हैं. जनता दल यूनाइटेड के पास 16, शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के पास 6, शरद पवार की एनसीपी के पास 4, सीपीएम के पास 3, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के पास 3, नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास 3, समाजवादी पार्टी के पास 3, सीपीआई के पास 2 और आम आदमी पार्टी के पास एक सांसद हैं. इसके अलावा झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास एक, केरल कांग्रेस (एम) के पास एक, विदुथलाई चिरूथाईगल काची के पास एक और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के पास एक सांसद हैं. इन सबको मिलाकर 149 सांसद होते हैं. वहीं एनडीए को छोड़ दें, तो अकेले बीजेपी के पास 301 सांसद हैं.

अधिकांश दल राज्य विशेष तक सीमित

इनके अलावा विपक्षी गठबंधन में शामिल राष्ट्रीय जनता दल या'नी आरजेडी, राष्ट्रीय लोक दल, पीडीपी ऐसे कुछ चुनिंदा दल हैं, जिनकी पकड़ राज्य विशेष में है. यह बात ग़ौर करने वाली है कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सीपीएम और सीपीआई को छोड़कर तमाम दलों का जनाधार एक ख़ास राज्य तक ही सीमित है. अगर माहौल पक्ष में रहा, तो विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके,  जेडीयू, आरजेडी, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और सीपीएम ही वो चुनिंदा दल हैं, जो दहाई की संख्या में सीट जीतने की क़ुव्वत रखते हैं. इनमें सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस ही एक पार्टी है जिसका जनाधार पैन इंडिया है और जो दहाई से आगे बढ़कर तीन अंकों में सीट जीतने की क्षमता रखती है. इन तथ्यों से कोई इंकार नहीं कर सकता है.

क्या होता जब अलग-अलग चुनाव लड़ते?

अब इन दलों के लिए 2024 का चुनाव अस्तित्व की लड़ाई कैसे है और गठबंधन मजबूरी है, इसे समझने के लिए पहले मान लिया जाए कि ये तमाम विपक्षी दल आगामी लोक सभा चुनाव अलग-अलग लड़ रहे हैं. उस परिस्थिति में इन दलों की क्या स्थिति रह जाएगी. इस वक़्त एनडीए गठबंधन को छोड़ भी दें तो बीजेपी केंद्र की राजनीति के दृष्टिकोण से बेहद ताक़तवर पार्टी है. ऐसे में अगर विपक्षी दलों का गठबंधन नहीं होता, तो कांग्रेस समेत बाक़ी के राज्य विशेष तक सीमित दलों का क्या हश्र होता, इसकी संभावना को राज्य विशेष के चुनावी समीकरणों के विश्लेषण से समझा जा सकता है.

कांग्रेस के लिए पिछला दशक सबसे बुरा

सबसे पहले कांग्रेस पर बात करते हैं. कांग्रेस विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी है. इस साल मई में हुए कर्नाटक विधान सभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत से कांग्रेस का हौसला पहले के बनिस्बत बुलंद है. हालांकि यब भी तथ्य है कि केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से पिछला एक दशक कांग्रेस के लिए सबसे बुरा दौर रहा है. कांग्रेस पिछले एक दशक में केंद्र की राजनीति में काफ़ी पिछड़ गई है और बीजेपी काफ़ी मजबूत हो गई है.

लगातार दस साल तक सत्ता में रहने के बाद 2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की वो गति हुई थी, जिसके बारे में उससे पहले शायद ही पार्टी के किसी नेता ने सोचा होगा. सत्ता को गई ही, कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ भी रसातल में पहुंच गया. कांग्रेस 2014 के लोक सभा चुनाव में सीटों की संख्या के लिहाज़ से सौ ही नहीं बल्कि 50 से भी नीचे आ जाती है. कांग्रेस का वोट शेयर पहली बार 20% से नीचे चला जाता है. 2014 में कांग्रेस 44 सीट पर सिकुड़ जाती है. 2014 के चुनाव में कांग्रेस की हालत कितनी नाज़ुक हो जाती है कि ये इससे पता चलता है कि कमोबेश सिर्फ़ एक राज्य में सीमित रहने वाली एआईएडीएमके 37 और ममता बनर्जी की टीएमसी 34 सीटें जीतने में कामयाब हो जाती है. लोक सभा में कांग्रेस की हैसियत इतनी कमज़ोर या खराब हो गई कि उसे नेता विपक्ष का दर्जा भी मुयस्सर नहीं होता.

कांग्रेस की स्थिति में अगले लोकसभा चुनाव या'नी 2019 में भी कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिलता है. सीट की संख्या भले 8 बढ़ जाती है, लेकिन वोट शेयर 2014 के आसपास ही रहता है. इस बार भी कांग्रेस लोक सभा में नेता विपक्ष की हैसियत के लिए जरूरी न्यूनतम 10 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज करने से पीछे रह जाती है.

कई राज्यों में कांग्रेस की हालत बेहद नाज़ुक

अभी जो मौजूदा राजनीतिक हालात हैं, उसमें राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और कर्नाटक में जीत की वज्ह से कांग्रेस  की स्थिति थोड़ी बहुत सुधरी ज़रूर दिख रही है. इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस अकेले दम पर बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बाहर करने के बारे में सोच भी सकती है. लोक सभा सीटों की संख्या के नज़रिया से बेहद महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बेहद नाज़ुक है, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है.

उसी तरह से बड़े राज्य राजस्थान में भले ही कांग्रेस की सरकार हो, या फिर मध्य प्रदेश में कांग्रेस, बीजेपी से सत्ता में छीनने का दमख़म भर रही हो, लेकिन 2014 और 2019 लोक सभा चुनाव का गणित बताता है कि कांग्रेस के लिए इन दोनों राज्यों में बीजेपी को चुनौती देना आसान नहीं है. 25 सीटों वाले राजस्थान में  2014 और 2019 दोनों ही वक़्त कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था. उसी तरह से 29 सीटों वाले मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 2019 में महज़ एक और 2014 में दो सीटों पर ही जीत मिली थी. 11 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की सरकार है और इस साल होने वाले विधान सभा चुनाव में उसे वापसी की उम्मीद भी है. लेकिन यहां कांग्रेस  2019 में  सिर्फ़ दो सीट जीत पाई थी. जबकि 2004, 2009 और 2014 में तो महज़ एक सीट से उसे संतोष करना पड़ा था.

कांग्रेस अकेले बीजेपी को नहीं दे सकती चुनौती

जिन राज्यों का ज़िक्र ऊपर किया गया है, ये सभी राज्य केंद्र की सत्ता की दृष्टि से काफ़ी मायने रखते हैं. इन राज्यों में लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से कांग्रेस की स्थिति दयनीय है. इस बात की संभावना है कि अगर कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ती तो 2019 के मुक़ाबले उसकी सीटों की संख्या थोड़ी बढ़ भी सकती थी या नहीं भी. लेकिन इतनी ज़ियादा बढ़ने की उम्मीद फ़िलहाल नज़र नहीं आ रही है, जिसकी बदौलत कांग्रेस अकेले बीजेपी की बादशाहत को चुनौती दे पाती. ऐसे भी एक महत्वपूर्ण पहलू है कि विपक्षी गठबंधन केंद्र की सत्ता तक पहुंच पायेगा या नहीं, यह बहुत हद तक उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन पर निर्भर करता है. 2024 में अगर पार्टी की सीटों का ग्राफ़ तीन अंकों में नहीं पहुंचता है, तो फिर कांग्रेस के लिए भविष्य की राजनीति की राह बेहद मुश्किल हो जायेगी.

बीजेपी के बढ़ते जनाधार से टीएमसी को ख़तरा

अब बात करते हैं ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की. कांग्रेस के बाद विपक्षी गठबंधन में सबसे ज़ियादा सीट जीतने की क्षमता टीएमसी में ही है, लेकिन टीएमसी भी लोक सभा सीट जीतने के लिहाज़ से एक राज्य तक सीमित पार्टी ही है. टीएमसी लगातार 2011 से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है. दो टर्म पूरा करने के बाद भी ममता बनर्जी का जल्वा कम नहीं हुआ है, यह हम सबने मार्च-अप्रैल 2021 में हुए विधान सभा चुनाव में देखा भी है. उस वक़्त टीएमसी ने अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए 294 में से 215 सीट पर जीत दर्ज की थी.

इस प्रदर्शन को ध्यान में रखकर टीएमसी उम्मीद कर रही है कि आगामी लोक सभा चुनाव में पार्टी को अब तक की सबसे ज़ियादा सीटें मिलेंगी. हालांकि  विधान सभा  के मुक़ाबले लोक सभा चुनाव में वहां अब बीजेपी का दायरा काफ़ी विस्तृत हो गया है. यह हम सबने 2019 के आम चुनाव में देखा था. उस वक्त बीजेपी ने टीएमसी की बादशाहत को एक तरह से ध्वस्त करते हुए 42 में से 18 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाबी पाई थी.

लोक सभा की दृष्टि से बीजेपी पश्चिम बंगाल में कितनी बड़ी त़ाकत बन गई है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगा सकते हैं कि 2019 में पश्चिम बंगाल में बीजेपी का वोट शेयर 40.7% रहा था,जो टीएमसी से सिर्फ़ 2.6% ही कम था. टीएमसी की गाड़ी 22 सीटों पर रुक गई थी. इसके उलट 2014 में टीएमसी  ने 34 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि कमल का रथ दो सीटों पर ही रुक गया था.2014 में बीजेपी का वोट शेयर यहां 17% रहा था. प्रदेश में 2019 में विरोधी वोटों के बिखरने का ही फ़ाइदा बीजेपी को मिला था.

कांग्रेस-लेफ्ट का साथ नहीं मिलने से नुक़्सान

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि भले ही विधान सभा के नज़रिया से ममता बनर्जी की पार्टी का पश्चिम बंगाल में एकछत्र राज है, लेकिन लोक सभा में अगर टीएमसी 2024 में अकेले चुनाव लड़ती है तो, उसके लिए बीजेपी मुश्किलें खड़ी कर सकती है. प्रदेश में बीजेपी विरोधी वोटों का बिखराव टीएमसी, कांग्रेस और सीपीएम में होने से इसका सबसे ज़ियादा नुक़्सान ममता बनर्जी की पार्टी को ही उठाना पड़ सकता था. ऐसी स्थिति में बीजेपी जो दावा कर रही है कि वो बंगाल में 35 सीटों पर जीत हासिल करेगी, उसको पंख लगने की उम्मीद अधिक है. ऐसा होने पर केंद्र की राजनीति में ममता बनर्जी की हैसियत पहले जैसी नहीं रह जायेगी.

लोक सभा की दृष्टि से पश्चिम बंगाल में बीजेपी का प्रभाव बढ़ रहा है, इसमें शक-ओ-शुब्हा की कोई गुंजाइश नहीं है. ऐसे में टीएमसी, कांग्रेस और लेफ्ट दलों के अलग-अलग चुनाव लड़ने से संख्या के लिहाज़ से तीसरे नंबर पर आने वाले राज्य पश्चिम बंगाल में बीजेपी को लाभ की पूरी संभावना बन जाती और यह एक तरह से केंद्र की राजनीति में ममता बनर्जी के कद को हानि पहुंचाने वाला ही क़दम साबित होता. अब टीएमसी, कांग्रेस और लेफ्ट दलों के एक साथ आने से इसकी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी के लिए दहाई के आँकड़े में पहुंचना मुश्किल हो सकता है.

तमिलनाडु में डीएमके की राह आसान नहीं

अब बात करते हैं दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु की, जहाँ विपक्षी गठबंधन में शामिल डीएमके सत्ता में है. कांग्रेस और टीएमसी के बाद एम.के. स्टालिन की पार्टी में ही 2024 में सबसे अधिक सीट लाने की क्षमता है. हालांकि तमिलनाडु में जिस तरह की राजनीति होती है, उसके मुताबिक़ इस बार डीएमके के ब-जाए एआईएडीएमके को प्रदेश की जनता से ज़ियादा महत्व मिलने की संभावना है.

एक-दो अपवाद को छोड़ दें, तो चाहे विधान सभा चुनाव हो या लोक सभा चुनाव हो, तमिलनाडु के लोग बारी-बारी से डीएमके और एआईएडीएमके को जनादेश देने पर भरोसा करते हैं. 2019 के लोक सभा चुनाव में डीएमकी की अगुवाई वाले गठबंधन के हिस्से में प्रदेश की 39 में से 38 सीटें आई थी. इनमें डीएमके को 24, कांग्रेस को 8, सीपीएम और सीपीआई को दो-दो, जबकि दो सीटें अन्य सहयोगियों को मिली थी. वहीं एआईएडीएमके की अगुवाई वाले गठबंधन को महज़ एक सीट से संतोष करना पड़ा था. इसके उलट 2014 के लोक सभा चुनाव में एआईएडीएमके के हिस्से में 37 सीटें आई थी, जबकि डीएमके गठबंधन का खाता तक नहीं खुला था.

परंपरा को देखें, तो इस बार तमिलनाडु में डीएमके-कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन के लिए राह मुश्किल है. एक और पहलू है जिससे एआईएडीएमके की संभावना अधिक दिख रही है.  2019 के आम चुनाव और 2021 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी, एआईएडीएमके की अगुवाई वाले गठबंधन का हिस्सा थी. इन दोनों ही चुनाव में एआईएडीएमके को बीजेपी से गठबंधन का भारी नुक़्सान उठाना पड़ा था, लेकिन अब एआईएडीएमके ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया है. इससे भी तमिलनाडु में विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की चुनौती बढ़ गई है.

बिहार में जेडीयू के लिए अस्तित्व की लड़ाई

अब बात करते हैं बिहार की, जहां जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है. नीतीश कुमार भले ही 17-18 साल से बिहार की राजनीति में छाए हुए हैं, लेकिन उनकी पार्टी का जनाधार लगातार कम होते गया है. मौजूदा वक़्त में जेडीयू बिहार में आरजेडी और बीजेपी के बाद तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है. पिछले तीन दशक की बिहार की राजनीति पर अगर नज़र डालें, तो हम कह सकते हैं कि अब नीतीश कुमार की पार्टी का भविष्य उज्ज्वल नहीं है. जेडीयू लगातार ढलान पर है, वो तो बिहार में सियासी समीकरण कुछ इस तरह से हैं कि नीतीश कुमार बीच के कुछ महीनों को छोड़कर 2005 से लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं. उस बीच के दरम्यान में मई 2014 से लेकर फरवरी 2015 तक भी जीतन राम माँझी के मुख्यमंत्री रहते नीतीश कुमार की पार्टी की ही सरकार थी.

नीतीश कुमार के बिहार की सत्ता पर लगातार क़ाबिज़ रहने का कारण यह है कि चाहे बीजेपी हो या आरजेडी, ये दोनों ही पार्टियां अपने दम पर अकेले सरकार बनाने की हैसियत में नहीं हैं. नीतीश कुमार इसी का लाभ उठाते हुए पाला बदल-बदल कर सत्ता सुख भोगते रहे हैं, जबकि उनकी पार्टी लगातार कमज़ोर होती गई है.

अब अगर 2024 में बिहार में बीजेपी, आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़ती, तो इस बात में कोई शक नहीं है कि इस स्थिति में बीजेपी  को सबसे ज़ियादा लाभ होता. यह स्थिति जेडीयू के लिए अस्तित्व पर आने वाली बात हो जाती. हम सबने देखा है कि पिछले दो लोक सभा में जेडीयू की क्या स्थिति रही है. 2019 में तो बीजेपी के साथ की वजह से जेडीयू राज्य की 40 में से 16 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी. इसके उलट जब 2014 लोक सभा चुनाव में जेडीयू न तो बीजेपी के साथ थी और न ही आजेडी-कांग्रेस के साथ, तो हम सबने देखा था कि नीतीश की पार्टी का क्या हश्र हुआ था. उस वक़्त जेडीयू 18 सीटों के नुक़्सान के साथ महज़ दो सीट ही जीत पाई थी.

बिहार की राजनीति पर जातिगत समीकरण हावी

2005 से बिहार में एक अजीब सा राजनीतिक ट्रेंड बन गया है. या तो बीजेपी-जेडीयू गठबंधन हो जाये, या फिर जेडीयू-आरजेडी गठबंधन हो जाये, इन दोनों ही स्थितियों में विरोधियों की स्थिति ख़राब हो जाती है. 2005, 2010, 2020 के विधान सभा चुनाव के साथ ही 2019 के लोक सभा चुनाव में हम देख चुके हैं कि जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को हराना मुश्किल है. उसी तर्ज़ पर 2015 के विधान सभा चुनाव में देख चुके हैं कि जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन होने से बीजेपी की हैसियत बिहार में बेहद कम रह जाती है. बिहार में जातिगत समीकरणों की वज्ह से ऐसा होते आ रहा है. अगर बिहार में 2024 में जेडीयू अकेले चुनाव लड़े, तो उसकी स्थिति ऐसी है कि शायद खाता खोलना मुश्किल हो जाये.

अभी भी आरजेडी-कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने पर जेडीयू के लिए दहाई का आंकड़ा पार करना  चुनौती ही होगी. यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जेडीयू और आरजेडी का प्रभाव बिहार में ही है, उससे बाहर आरजेडी का प्रभाव तो थोड़ा बहुत झारखंड में दिखता है, लेकिन जेडीयू अब पूरी तरह से बिहार में सीमित पार्टी बन गई है.

क्या आरजेडी कद बड़ा करने में होगी कामयाब?

दूसरी तरफ़ आरजेडी को भी अगर लोक सभा चुनाव में जेडीयू और कांग्रेस का साथ न मिले तो फिर उसके लिए लोक सभा चुनाव में  कोई बड़ा करिश्मा करना संभव नहीं है. यहाँ तक कि वो भी चंद सीटों के लिए तरस जाये, ये हमने 2019 के लोक सभा चुनाव में देखा है. बीजेपी-जेडीयू-एलजेपी के साथ होने से उस वक़्त आरजेडी एक सीट के लिए भी मोहताज हो गई थी, जबकि उसका कांग्रेस और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के साथ गठबंधन भी था. आरजेडी अभी उस हैसियत में नहीं है कि अकेले बिहार में लोक सभा चुनाव में कुछ ख़ास प्रदर्शन कर पाए. तात्पर्य है कि आरजेडी के लिए भी विपक्षी गठबंधन केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से अस्तित्व के सवाल से जुड़ी हुई मजबूरी है.

उत्तर प्रदेश से विपक्षी गठबंधन की उम्मीदें

अब बात करते हैं लोक सभा सीटों के लिहाज़ से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की. विपक्षी गठबंधन को यहां सबसे ज़ियादा उम्मीद समाजवादी पार्टी से है. समाजवादी पार्टी का प्रभाव मुख्य तौर से केवल उत्तर प्रदेश में ही है. हालांकि अक्टूबर 2022 में मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद समाजवादी पार्टी फ़िलहाल उस दौर से गुजर रही है, जिसमें अखिलेश यादव के सामने ख़ुद को साबित करने की चुनौती है. वे 2012 से 2017  तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लेकिन वो मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक कौशल से संभव हुआ था. अखिलेश यादव की अगुवाई में पार्टी 2017 और 2022 का विधान सभा चुनाव हार चुकी है.

सपा को खु़द को साबित करने की चुनौती

लोक सभा के नज़रिये से समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक में काफ़ी कमज़ोर हुई है. समाजवादी पार्टी अक्टूबर 1992 में अस्तित्व में आई थी. उसके बाद से आम चुनाव में उसका सबसे ख़राब प्रदर्शन 2014 और 2019 में ही रहा है. 2004 के लोक सभा चुनाव में 35 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी इन दोनों ही चुनाव में राज्य की कुल 80 सीट में से सिर्फ़ 5-5 सीट ही जीत पाई थी.2014 में बीजेपी, समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस सभी अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे. तब मुलायम सिंह की पार्टी का यह प्रदर्शन था, वहीं  2019 में समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था, उसके बावजूद अखिलेश यादव सीट बढ़ाने में कामयाब नहीं हुए थे. हालांकि समाजवादी पार्टी का साथ पाकर मायावती की पार्टी 2019 में शून्य से 10 सीट पर पहुंच गई थी.

अखिलेश यादव की बढ़ेगी राजनीतिक हैसियत!

2024 का लोक सभा चुनाव समाजवादी पार्टी के लिए पहला मौक़ा होगा, जब मुलायम सिंह यादव उसके साथ सशरीर नहीं होंगे. इतना तय है कि अगर 2024 में फिर से समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़ती तो इस स्थिति में समाजवादी पार्टी के लिए लोक सभा में अपनी ज़मीन बचाना काफी मुश्किल हो सकता था.

विपक्षी गठबंधन से मायावती की दूरी का असर

ऐसे अभी भी विपक्षी गठबंधन से मायावती की दूरी से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ का असर बेहद कम हो जाता है. इसका अनुभव समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को 2017 के विधान सभा चुनाव में हो चुका है. उस वक़्त मायावती अलग थी और सपा-कांग्रेस का गठबंधन था. तब बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में 403 में से 312 सीटों पर कमल का परचम लहराकर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. ऐसे भी उत्तर प्रदेश बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त है और अगर विपक्षी गठबंधन को केंद्र की सत्ता में बदलाव के दृष्टिकोण से कुछ बड़ा हासिल करना है, तो उसके लिए उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कमज़ोर करना होगा. लेकिन इसकी संभावना बिना मायावती के बेहद क्षीण हो जाती है.

आम आदमी पार्टी का बेहतर भविष्य

अब बात करते हैं विपक्षी गठबंधन में शामिल उस पार्टी की, जिसमें भविष्य में कांग्रेस का विकल्प बनने की पुर-ज़ोर गुंजाइश है. 2014 से कांग्रेस लगातार कमज़ोर होते गई, लेकिन उसके समानांतर नौकरशाह से नेता बने अरविंद केजरीवाल के दिमाग़ की उपज आम आदमी पार्टी का भारतीय राजनीति में अभ्युदय शुरू हुआ. अपने गठन के एक दशक के भीतर ही इस पार्टी ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर यह ज़रूर बता दिया है कि आने वाला समय उसका है.

विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस के बाद फ़िलहाल आम आदमी पार्टी ही वैसी है, जिसका जनाधार एक से ज़ियादा राज्यों में है. केजरीवाल की पार्टी दिल्ली और पंजाब में सत्ता में है. इसके साथ ही गुजरात में पिछले साल दिसंबर में हुए विधान सभा चुनाव में  क़रीब 13 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ 5 सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी ने अपने विस्तार की संभावनाओं को नया बल दिया था. इसके अलावा देश के कई राज्यों में पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने के लिए सांगठनिक विस्तार में जुटी है. 

AAP को लोक सभा में साबित करने की चुनौती

इन सबके बावजूद आम आदमी पार्टी का लोक सभा चुनाव में वैसा प्रदर्शन न तो 2014 में दिखा और न ही 2019 में. यहां तक कि लगातार दो बार 2015 और 2020 में रिकॉर्ड नंबर के साथ सत्ता हासिल करने के बावजूद दिल्ली में अभी तक आम आदमी पार्टी कोई लोक सभा सीट नहीं जीत पाई है. उसके हिस्से लोक सभा सीट सिर्फ़ पंजाब से आई है, जहाँ पार्टी ने 2014 में कुल 13 में से 4 और 2019 में एक सीट पर जीत हासिल की थी.

फरवरी 2022 में हुए विधान सभा चुनाव में 117 में से 92 सीटों पर जीत हासिल कर आम आदमी पार्टी पंजाब की सत्ता पर क़ाबिज़ हुई. इससे 2024 के लिए पार्टी की उम्मीदें बढ़ गई है. दिल्ली में भी कांग्रेस के साथ आने से आम आदमी पार्टी के खाता खोलने की संभावनाओं को बल मिला है. यह तथ्य है कि आम आदमी पार्टी को लोक सभा चुनाव में साबित करने की चुनौती से पार पाना है. इस लिहाज़ से एक तरह से 2024 उसके लिए अस्तित्व की लड़ाई ही है.

शरद पवार और उद्धव ठाकरे के लिए अस्तित्व की लड़ाई

इन राज्यों और पार्टियों के बाद बचता है महाराष्ट्र, जहाँ से विपक्षी गठबंधन को काफ़ी उम्मीदें हैं. यहां उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़ियादा 48 लोक सभा सीटें हैं. यहां विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस, एनसीपी का शरद पवार गुट और शिवसेना का उद्धव गुट एक साथ हैं. महाराष्ट्र की राजनीति में कभी शरद पवार और उद्धव ठाकरे का पुर-ज़ोर दख़्ल था, लेकिन फ़िलहाल ये दोनों ही पदेश में अपनी पार्टी और विरासत को बचाने की जद्द-ओ-जहद में हैं. पिछले साल जून में एकनाथ शिंदे की बग़ावत ने उद्धव ठाकरे की राजनीति ज़मीन छीन ली. वहीं इस साल जून के आख़िर में अजित पवार ने अपने चाचा शरद पवार से बग़ावत करते हुए एनसीपी पर अपनी दावेदारी जता दी. अजित पवार अब बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए का हिस्सा हैं. शरद पवार और उद्धव ठाकरे दोनों के लिए 2024 का चुनाव अपने-अपने राजनीतिक अस्तित्व को साबित को बचाने और भविष्य के लिए साबित करने का ही मौक़ा है.

लेफ्ट दलों का क्या हो पायेगा विस्तार?

जहाँ तक लेफ्ट दलों की बात है, तो अब उनका गढ़ सिर्फ़ केरल ही रह गया है. कभी पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा लेफ्ट दलों ख़ासकर सीपीएम का क़िला हुआ करता था, लेकिन त्रिपुरा को बीजेपी ने और बंगाल को ममता बनर्जी ने अपना दुर्ग बना लिया है. पश्चिम बंगाल में  थोड़ा बहुत जो जनाधार है, गठबंधन के तहत ममता बनर्जी की ज़िद के आगे लेफ्ट दलों की ज़ियादा नहीं चलने वाली, इतना ज़रूर कहा जा सकता है. ले-देकर केरल ही एक राज्य बचता है, जहां सीपीएम अपने अस्तित्व को 2024 में और उभार सकती है. हालांकि इसमें भी प्रदेश से जुड़ा सियासी पेच है. केरल में  कांग्रेस और सीपीएम एक दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं और इस विरोध पर ही वहां की राजनीति टिकी है. फ़िलहाल में केरल में सीपीएम की सत्ता है.

केरल की राजनीति के पेच का क्या है समाधान?

केरल में 2019 के लोक सभा में कुल 20 में से 15 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी, जबकि 4 सीटों पर उसके सहयोगी दलों को जीत मिली थी. वहीं सीपीएम को किसी तरह से एक सीट हासिल हो पाया था. 2014 में कांग्रेस को 8 और उसके सहयोगी दलों को 4 सीट पर जीत मिली थी. वहीं सीपीएम को 5 और उसके सहयोगी दलों को 3 सीट पर जीत मिली थी. विपक्षी गठबंधन के तहत केरल ऐसा राज्य है जिसके सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर सबसे नज़र है. यहां धुर विरोधी कांग्रेस और लेफ्ट दल कैसे एक-दूसरे के साथ चुनाव लड़ते हैं, ये दिलचस्प होने वाला है. हालांकि सीपीएम चाहेगी कि यहाँ वो अधिक से अधिक सीट हासिल करे, ताकि केंद्र की राजनीति में उसका अस्तित्व कुछ हद तक बरक़रार रह सके.

ऊपर जिन दलों का उल्लेख किया गया है, उनके अलावा विपक्षी गठबंधन में शामिल बाक़ी दलों की चर्चा का कोई ख़ास मायने केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से नहीं है क्योंकि उन दलों की लड़ाई और जीत की संभावना एक-दो या अधिक से अधिक 3 से 4 सीटों तक ही सीमित है.

2024 को चेहरे की लड़ाई बनाने का प्रयास

विपक्षी गठबंधन और 2024 के चुनाव को लेकर दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है.. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बर-'अक्स चेहरे की. यह ऐसा पहलू है, जो बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त है. पीएम मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर ही बीजेपी 2014 और 2019 के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब रही थी. अब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अब चंद महीने ही शेष हैं. बतौर प्रधानमंत्री बीजेपी के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 9 साल बाद भी देश के एक बड़े तबक़े में उसी तरह से है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष भी है. इस दरम्यान नरेंद्र मोदी के रवैये, राजनीति करने के तरीक़े और केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ी है. विपक्षी दलों के साथ ही जनता के बीच से एक तबक़ा पीएम मोदी पर निरंकुश प्रवृत्ति के साथ काम करने का आरोप लगाते रहा है.

नरेंद्र मोदी के बर-'अक्स चेहरे में पीछे विपक्ष

इसके बावजूद केंद्रीय राजनीति में अभी भी नरेंद्र मोदी की छवि और लोकप्रियता इतनी ज़ियादा है कि बतौर विपक्ष के चेहरे के तौर पर उनकी काट खोजना बेहद मुश्किल है. वो भी चुनाव नतीजा से पहले लगभग असंभव है. इस बात को विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों के शीर्ष नेता भी अंदरखाने ज़रूर मानते होंगे. विपक्षी दलों को एक बात भली भांति समझ लेनी चाहिए कि अभी भी नरेंद्र मोदी बतौर नेता मतदाताओं के उतने हिस्से में ज़रूर बेहद लोकप्रिय हैं, जिससे भारत जैसी संसदीय व्यवस्था में बहुमत हासिल कर सत्ता पर आसीन हुआ जा सकता है. इस नज़रिये से विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों की ओर से आगामी लोक सभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के बर-'अक्स  चेहरा गढ़ने का कोई भी प्रयास अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा.

चेहरे के फेर में न उलझे विपक्षी गठबंधन

अगर उदाहरण से समझें तो इस बात को कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व बेहतर तरीक़ से महसूस कर रहा है, तभी उसकी ओर से इस तरह की कोशिश नज़र नहीं आती है. हालांकि पता नहीं क्यों, जेडीयू जैसी पार्टियां, जो अपने अस्तित्व को बचाने लिए 2024 के चुनाव में उतरने वाली है, उसके छुटभैये नेता नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी के बर-'अक्स चेहरा बनाने की कवायद करते रहते हैं. जिस पार्टी के सामने लोक सभा चुनाव में दहाई की संख्या को पार करने की चुनौती हो, उसके शीर्ष नेता को विपक्षी गठबंधन का चेहरा बनाने की कोशिश हास्यास्पद ही कही जा सकती है. जिस तरह से बीजेपी के पास सांगठनिक विस्तार है, नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है, उसमें विपक्षी गठबंधन को चेहरे की राजनीति के फेर में उलझने के ब-जाए चुनावी रणनीति को जनता से जोड़ने और सीटों के बंटवारे को लेकर नायाब और कारगर तरीक़ा खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. तभी 2024 के आम चुनाव में विपक्ष का गठबंधन नरेंद्र मोदी सरकार और बीजेपी के सामने दमदार चुनौती पेश करता हुआ नज़र आ सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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