अबकी बार 400 पार के दावे के साथ बीजेपी की अगुवाई में एनडीए लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुटा है. इस दावे को वास्तविकता का जामा पहनाने के लिए बीजेपी राज्यवार सियासी समीकरणों को साधने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहती है. इसके लिए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में शामिल दलों को एनडीए का हिस्सा बनाने की रणनीति पर भी बीजेपी आगे बढ़ रही है.


बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में बीजेपी को इस रणनीति के तहत मनमुताबिक़ कामयाबी मिलती भी दिख रही है. चंद दिनों पहले तक बिहार में नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा थे, लेकिन अब एनडीए के पाले में आकर 400 पार के दावे को मूर्त रूप देने की ज़ोर-आज़माइश में बीजेपी के साथ क़दमताल कर रहे हैं. इस कड़ी में अब उत्तर प्रदेश से राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख जयंत चौधरी का नाम जुड़ता दिख रहा है.


यूपी में बीजेपी की मजबूरी और जयंत चौधरी


दरअसल एनडीए के 400 पार वाले दावे के लिए जयंत चौधरी एक तरह से बीजेपी की मजबूरी हो गए हैं. सुनने या पढ़ने में शायद यह अटपटा लगे, लेकिन राजनीतिक सच्चाई यही है कि जयंत चौधरी फ़िलहाल बीजेपी के लिए ज़रूरत बन गए हैं. इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि 400 के पार के दावे के साथ उत्तर प्रदेश का बेहद गहरा नाता है. बिना उत्तर प्रदेश को साधे बीजेपी इस दावे को हक़ीक़त में नहीं बदल सकती है. इसी कड़ी में बीजेपी किसी भी क़ीमत पर जयंत चौधरी को अपने साथ लाना चाहती है. उत्तर प्रदेश की एक-एक सीट बीजेपी के लिए आख़िर क्यों महत्वपूर्ण है..अगर इस सवाल के जवाब की सियासी गहराइयों में जाएंगे, तो फिर बीजेपी के लिए जयंत चौधरी की मजबूरी से जुड़ी हर बारीकी को समझना आसान होगा.


बीजेपी की महत्वाकांक्षा से यूपी का संबंध


उत्तर प्रदेश और आगामी लोक सभा चुनाव को लेकर बीजेपी की महत्वाकांक्षा एक-दूसरे से सीधे तौर से जुड़े हैं. आगामी लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी को 2019 की तुलना में BUlk यानी थोक में सबसे अधिक सीट बढ़ाने की संभावना दिख रही है. इस संभावना को वास्तविक बनाने के लिए बीजेपी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से हिस्से में ही जनाधार रखने वाले जयंत चौधरी को अपने पाले में लाना चाहती है. जयंत चौधरी के बीजेपी के साथ आने से उत्तर प्रदेश की शत-प्रतिशत सीटों पर बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की दावेदारी बेहद मज़बूत हो जाएगी. वर्तमान में उत्तर प्रदेश का राजनीतिक समीकरण यही कहता है.


चुनाव को लेकर दावा और वादा का दौर उफान पर


आम चुनाव, 2024 को लेकर दावा और वादा का दौर उफान पर है. मतदान तारीख़ों की घोषणा होने में अभी वक़्त है, लेकिन यह निर्धारित है कि 18वीं लोक सभा के लिए आम चुनाव अप्रैल-मई में ही होना है. ऐसे में हर राजनीतिक दल और उसके शीर्ष नेता अपने-अपने लिहाज़ से दावा भी कर रहे हैं और वादा भी कर रहे हैं.


इन सबके बीच सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के तमाम नेता और कार्यकर्ता एक नारा को हर जगह प्रचारित और प्रसारित करने में जी-जान से जुटे हैं. यह नारा है अबकी बार..400 पार. बीजेपी के शीर्ष नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दावा को संसद तक में पुरज़ोर तरीक़े से रखा. राष्ट्रपति के अभिभाषण से जुड़े धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए लोक सभा में 5 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि..


"मैं देश का मिजाज  देख रहा हूँ कि एनडीए को तो 400 पार करवा के ही रहेगा. लेकिन भारतीय जनता पाटी को 370 सीट अवश्य देगा. बीजेपी को 370 सीट और एनडीए को 400 पार..."


बीजेपी के लिए 400 के दावे का सियासी मायने!


प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान का चुनावी लाभ के लिए देश में बीजेपी के पक्ष में राजनीतिक माहौल बनाने से सीधा संबंध है, इसमें कोई दो राय नहीं है. हालाँकि प्रधानमंत्री के इस बयान और एनडीए के 400 के दावे का एक और मतलब है. उसी मतलब को साधने के लिए बीजेपी को उत्तर प्रदेश की सभी सीट चाहिए और इसके लिए पार्टी को जयंत चौधरी चाहिए.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर बीजेपी 2019 के लोक सभा चुनाव में लगातार दूसरा कार्यकाल हासिल करने में कामयाब रही थी. इस बार भी बीजेपी की नज़र लगातार तीसरे कार्यकाल पर है. सरकार बनाने में बीजेपी सफल हो जाएगी, बस इतने भर से बीजेपी की या कहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने वाली है.


पीएम मोदी की लोकप्रियता और साख का सवाल


हम सब जानते हैं कि बहुमत का आँकड़ा 272 का है. आगामी चुनाव में अगर बीजेपी महज़ इस आँकड़े तक पहुँचकर सत्ता बरक़रार रखने में कामयाब भी हो जाती है, तो यह एक तरह से बीजेपी के लिए जीत में भी हार जैसा ही होगा. मीडिया के अलग-अलग मंचों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह का माहौल पूरे देश में पिछले कई महीनों से बनाकर रखा है, उस माहौल की साख बरक़रार रखने लिए ज़रूरी है कि बीजेपी को इस बार 2019 की तुलना में काफ़ी अधिक सीट हासिल हो. प्रधानमंत्री मोदी ने आगामी चुनाव में बीजेपी के लिए 370 और एनडीए के लिए कुल मिलाकर 400 पार का आँकड़ा निर्धारित किया है.


क्या इस बार 70 सीट बढ़ा पाएगी बीजेपी?


हम सब जानते हैं कि आम चुनाव, 2019 में बीजेपी को 303 लोक सभा सी पर जीत मिली थी और एनडीए के खाते में बीजेपी मिलाकर 353 सीट गयी थी. या'नी एनडीए के बाक़ी तमाम सहयोगी मिलकर 50 सीट जीतने में सफल रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी का जो दावा है, उसके मुताबिक़ बीजेपी इस बार अपनी सीट में तक़रीबन 70 सीट बढ़ाने का लक्ष्य रखा है.


अगर बीजेपी की सीट 2019 के मुक़ाबले कम होती है, भले ही बहुमत के आँकड़े से वो संख्या ज़ियादा हो, ऐसा होने पर मनोवैज्ञानिक तौर यह बीजेपी के लिए और ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर बनाए गए माहौल के लिए बेहद नकारात्मक स्थिति होगी. यह एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उस लोकप्रियता से बनी साख से जुड़े दावे को तगड़ा झटका लगने जैसा होगा.बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को इसका भी एहसास है.


इस बार 2019 की तुलना में किस-किस राज्य में लाभ?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर बीजेपी ने जो माहौल बनाया है, उस माहौल को या सरल शब्दों में कहें, तो नरेंद्र मोदी की छवि को नुक़सान नहीं पहुँचे, इसके लिए ज़रूरी है कि बीजेपी 303 के पुराने आँकड़े में अभूतपूर्व तरीके़ से इज़ाफ़ा कर पाए. बीजेपी के लक्ष्य के हिसाब से 70 सीटों का इज़ाफ़ा होना चाहिए. ऐसा होने पर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के दावों को बीजेपी एक तरह से जनमत से मिले समर्थन के माध्यम से वास्तविकता का जामा पहना सकती है.


सवाल उठता है कि इतनी सीट (क़रीब 70) बीजेपी इस बार कैसे बढ़ाएगी. राज्यवार अगर नजर डालें, तो 2019 के आम चुनाव में विंध्य से उत्तर के जिन राज्यों में बीजेपी बेहद मज़बूत थी, उनमें उत्तर प्रदेश को छोड़कर कमोबेश सभी राज्यों वो या तो अपने दम पर या एनडीए के सहयोगियों के साथ मिलकर शत-प्रतिशत सीट हासिल करने में सफल रही थी.


पुराने प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती वाले राज्य


इन राज्यों में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और हरियाणा शामिल हैं. पिछली बार राजस्थान की 25 में से 24 लोक सभा सीट पर बीजेपी और एक सीट पर उसकी सहयोगी आरएलपी की जीत हुई थी. उसी तरह से मध्य प्रदेश में बीजेपी को 29 में से 28 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. छत्तीसगढ़ में 11 में से 9 सीटें बीजेपी के खाते में गई थी.


गुजरात में शत-प्रतिशत सीटें जीतने का करिश्मा बीजेपी 2014 और 2019 दोनों बार ही कर चुकी है. दोनों बार बीजेपी के खाते में यहां की सभी 26 लोक सभा सीट गयी हैं. दिल्ली की सभी सात सीट भी बीजेपी 2014 और 2019 में जीतने में सफल हुई थी. उसी तरह से हिमाचल प्रदेश की सभी 4 सीट और उत्तराखंड की सभी 5 सीट भी 2014 और 2019 में बीजेपी के खाते में गयी थी.


उसी तरह से 2019  में बीजेपी को नीतीश कुमार के साथ मिलकर बिहार की 40 में से 39 सीट एनडीए के खाते में डालने में कामयाबी मिली थी. इस चुनाव में झारखंड की 14 में से 12 सीट बीजेपी की झोली में ही गयी थी. हरियाणा में भी पिछली बार बीजेपी 10 में से 10 सीट जीतने में सफल रही थी.


इस तरह से गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और झारखंड में चाहकर भी बीजेपी  के लिए 2019 की तुलना में सीट बढ़ाने की कोई ख़ास गुजांइश बचती नहीं है.


पश्चिम बंगाल और ओडिशा में प्रदर्शन दोहराने की चुनौती


बीजेपी पिछली बार पश्चिम बंगाल में 42 में से 18 सीट जीतने में सफल रही थी. हालाँकि इस बार ममता बनर्जी की मज़बूत स्थिति को देखते हुए बीजेपी के लिए उस प्रदर्शन को ही दोहराना आसान नहीं होगा. बीजेपी की संभावना को बल नहीं मिले, इसके लिए ही ममता बनर्जी ने पहले ही तय कर लिया है कि पश्चिम बंगाल की अधिक से अधिक सीट पर तृणमूल कांग्रेस ही चुनाव लड़ेगी. वो दो से अधिक सीट कांग्रेस को देने के लिए कतई तैयार नहीं हैं.


बीजेपी के लिए वहीं हाल ओडिशा में भी है. पिछली बार ओडिशा में बीजेपी को 21 में से 8 सीट पर जीत मिली थी. इस बार के राजनीतिक हालात को देखते हुए ओडिशा में पिछला प्रदर्शन ही दोहराने में सफल हो जाए, यही बीजेपी के लिए बड़ी बात होगी.


महाराष्ट्र में सीट बढ़ने की गुंजाइश बेहद कम


उसी तरह से बदले राजनीतिक हालात में महाराष्ट्र में अपनी संख्या बढ़ाना बीजेपी के लिए आसान नहीं है. पिछली बार उद्धव ठाकरे की शिव सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हुए बीजेपी को महाराष्ट्र की कुल 48 में से 23 मिली थी. शिवसेना को 18 पर जीत मिली थी. इस तरह से महाराष्ट्र से एनडीए के खाते 41 सीट आयी थी. इस बार बीजेपी के साथ शिवसेना का एकनाथ शिंदे गुट और एनसीपी का अजित पवार गुट है. दूसरे धड़े में कांग्रेस के साथ शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार के हिस्से वाला एनसीपी है. ऐसे में बदले समीकरण में बीजेपी चाहकर भी पिछले आँकड़े 23 में कोई बड़ा उछाल कर पाएगी, इसकी गुंजाइश ही नहीं बची है. उसके साथ ही एनडीए के लिए भी महाराष्ट्र में 41 का आँकड़ा दोहराना लगभग असंभव है.


पंजाब में अकेले सीट बढ़ाने की स्थिति में नहीं


पंजाब में 13 लोक सभा सीट है. पंजाब में बीजेपी कभी भी कोई बड़ी ताक़त रही नहीं है. यह तथ्य ज़रूर है कि इससे पहले शिरोमणि अकाली दल के सहयोग से बीजेपी पंजाब में 2019 में दो सीट, 2014 में दो सीट, 2009 में एक सीट और 2004 में तीन सीट जीतने में सफल रही है. बिना शिरोमणि अकाली दल के पंजाब में बीजेपी के फ़िलहाल कोई ख़ास संभावना नहीं है. इस समीकरण के मद्द-ए-नज़र ही बीजेपी उन संभावनाओं पर भी काम रही है, जिससे चुनाव से पहले शिरोमणि अकाली दल को एनडीए का हिस्सा बनाया जा सके. पंजाब में अब आम आदमी पार्टी सबसे मज़बूत राजनीतिक ताक़त है. उसके सामने न तो बीजेपी और न ही शिरोमणि अकाली दल अलग-अलग तगड़ी चुनौती पेश करने की स्थिति में हैं.


संख्या बढ़ाने को लेकर पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति!


सिक्किम को मिलाकर पूर्वोत्तर के 8 राज्यों में कुल 25 लोक सभा सीट है. इनमें सबसे अधिक असम में 14 सीट है, जहाँ पिछली बार बीजेपी को 9 सीट पर जीत मिली थी. त्रिपुरा में भी पिछली बार बीजेपी को दोनों ही सीट पर जीत मिली थी. अरुणाचल प्रदेश की दोनों सीट भी बीजेपी के खाते में ही गयी थी. मणिपुर की दो में से एक सीट बीजेपी जीतने में सफल रही थी. 2019 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी को पूर्वोत्तर की इन 25 में से 14 सीट पर जीत मिली थी. सिक्किम, मिज़ोरम और नागालैंड की एक-एक सीट और मेघालय की दो सीट पर बीजेपी के लिए इस बार भी कोई ख़ास उम्मीद नहीं है. इस तरह से उत्तर पूर्व के राज्यों से बीजेपी के लिए सीट बढ़ने की बड़ी गुंजाइश भी बेहद कम है.


दक्षिण भारत में सीट कम होने की आशंका


अगर दक्षिण भारत के पाँच राज्यों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु की बात करें, तो इन राज्यों में भी बीजेपी के लिए पिछली बार के मुक़ाबले सीट बढ़ाने की गुंजाइश न के बराबर दिखती है. इसके विपरीत 2019 की तुलना में बीजेपी को इस बार कुल मिलाकर दक्षिण भारत में नुक़सान की संभावना अधिक दिख रही है. दक्षिण भारत के इन 5 राज्यों..तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में कुल मिलाकर 129 लोक सभा सीट है. इनमें से 29 सीट बीजेपी के खाते में गयी थी.


कर्नाटक और तेलंगाना में प्रदर्शन दोहराने पर नज़र


कर्नाटक और तेलंगाना में बीजेपी 2019 जैसी स्थिति में नहीं है. इन दोनों ही राज्यों में इस बार राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल चुका है. कर्नाटक और तेलंगाना में इस बार बीजेपी के लिए पिछला प्रदर्शन दोहराना आसान नहीं होगा. आम चुनाव, 2019 में बीजेपी को कर्नाटक में कुल 28 में से 25 सीट पर जीत मिली थी. वहीं तेलंगाना की 17 में से 4 लोक सभा सीट बीजेपी के खाते में गयी थी.


इस बार कर्नाटक और तेलंगाना दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की स्थिति मज़बूत है, जो पिछली बार नहीं थी. बीजेपी को इसका लाभ भी मिला था. इस दोनों ही राज्यों में अब सरकार भी कांग्रेस की है. इस बार कर्नाटक में बीजेपी के साथ एच. डी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस होगी. उसके बावजूद इतना तो तय है कि यहाँ पिछला प्रदर्शन (25 सीट) दोहराना बीजेपी के लिए एक तरह से दिन में तारे देखने जैसा ही दुरूह कार्य है. यही हाल तेलंगाना का है, जहाँ कांग्रेस की मज़बूती से बीजेपी की संभावना को झटका लगा है. बीजेपी के लिए यहाँ पिछली बार की तरह 4 सीट हासिल करना ही बड़ी उपलब्धि होगी.


आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के लिए कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखती है. इन तीनों ही राज्यों में पिछली बार बीजेपी का यहाँ खाता तक नहीं खुला था. इस बार भी इन तीनों राज्यों को मिलाकर बीजेपी को इक्का-दुक्का सीट हासिल होने से अधिक की संभावना नहीं है. 


आंध्र प्रदेश में बीजेपी की डगमग है स्थिति


हालाँकि आंध्र प्रदेश में बीजेपी कोशिश में है कि पवन कल्याण की जन सेना पार्टी और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी को साथ लाकर एनडीए की झोली में कुछ सीट डाली जाए. ऐसा हो भी गया, तब भी वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस की ताक़त के सामने एनडीए के लिए बहुत सीट की उम्मीद नहीं बचती है.


उसमें भी एक दशक बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति में सुधार का संकेत मिल रहा है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी की बहन वाई.एस. शर्मिला की दिख रही है. फ़िलहाल वाई.एस. शर्मिला आंध्र प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं. इस साल जनवरी की शुरूआत में वाई.एस. शर्मिला ने अपनी पार्टी ..वाईएसआर तेलंगाना पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया. उसके बाद कांग्रेस की ओर से उन्हें आंध्र प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गयी है.


क़रीब एक महीने में ही वाई.एस. शर्मिला ने आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की उम्मीदों को लेकर अच्छा-ख़ासा माहौल तैयार कर दिया है. उसको देखते हुए इतना तक कहा जाने लगा है कि इस बार आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के लिए जीत का सफ़र 2019 की तरह आसान नहीं रहने वाला है. कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन से जगन मोहन रेड्डी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. 


कांग्रेस के उभार से आंध्र प्रदेश में इस बार अपने प्रदर्शन में सुधार करने की चंद्रबाबू नायडू की उम्मीदों को भी झटका लग सकता है. पिछली बार आंध्र प्रदेश में जगन मोहन की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस कुल 25 में से 22 सीट पर जीत मिली थी. बाक़ी तीन सीट चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के खाते में गयी थी.


तमिलनाडु और केरल से ख़ास उम्मीद नहीं


तमिलनाडु और केरल ऐसा राज्य है, जहाँ जनाधार के मामले में बीजेपी अभी भी सबसे कमज़ोर स्थिति में है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के तमाम प्रयासों के बावजूद बीजेपी इन दोनों ही राज्यों में उस स्थिति में बिल्कुल नहीं है कि आगामी लोक सभा चुनाव में कुछ बड़ा हासिल कर पाएगी. इन दोनों राज्यों में खाता खुल जाए, यही बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. ऐसे भी एआईएडीएमके....बीजेपी से नाता तोड़कर तमिलनाडु में एनडीए की उम्मीदों को पहले ही बड़ा झटका दे चुकी है. फ़िलहाल तमिलनाडु में बीजेपी उस स्थिति में नहीं है कि इस बार कोई बड़ा करिश्मा देखने को मिले. उसी तरह से केरल में भी कांग्रेस और सीपीआई (एम) के सामने बीजेपी की राजनीतिक ज़मीन अभी वैसी तैयार नहीं हो पायी है, आगामी लोक सभा चुनाव में कुछ लाभ हो.


सर्वाधिक संभावना वाला प्रदेश है उत्तर प्रदेश


तमाम राज्यों के समीकरणों को देखने के बाद इतना तो बिल्कुल कहा जा सकता है कि सीट बढ़ाने के लिहाज़ से बीजेपी के लिए सबसे अधिक संभावना वाला प्रदेश..उत्तर प्रदेश ही है. उत्तर प्रदेश में कुल 80 लोक सभा सीट है. 2014 और 2019 दोनों ही बार बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त भी उत्तर प्रदेश ही था. इसके बावजूद पिछली बार से तुलना करें, तो इस बार भी यहाँ बीजेपी के साथ ही एनडीए के लिए सीट बढ़ाने की गुंजाइश सबसे अधिक है.


आम चुनाव, 2014 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 71 और उसकी सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को दो सीट पर जीत मिली थी. इस तरह से उत्तर प्रदेश में एनडीए के खाते में 80 में 73 सीट गयी थी. इसके पाँच साल बाद 2019 में बीजेपी को मायावती और अखिलेश यादव के साथ आने से उत्तर प्रदेश में नुक़सान उठाना पड़ा था.


आम चुनाव, 2019 में बीजेपी उत्तर प्रदेश में 62 सीट ही जीत पायी थी और  सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को दो सीट पर जीत मिली थी. इस तरह से वोट शेयर में 7 फ़ीसदी से अधिक का इज़ाफ़ा होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 2014 की तुलना में 9 सीट का नुक़सान हुआ था.


यूपी की सभी 80 सीट पर एनडीए की नज़र


इस बार बीजेपी की नज़र उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीट पर है. अगर बीजेपी ऐसा कर पाती है, तो, पिछली बार के मुक़ाबले सिर्फ़ उत्तर प्रदेश से ही एनडीए की 19 सीट बढ़ सकती है. इतना ही नहीं बीजेपी की सीट संख्या में भी 10 या उससे अधिक का इज़ाफ़ा हो सकता है. अपने सहयोगियों के साथ मिलकर बीजेपी चाहती है कि प्रदेश की सभी सीट आगामी लोक सभा चुनाव में एनडीए के खाते में चली जाए.


उत्तर प्रदेश है बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त


उत्तर प्रदेश में बीजेपी काफ़ी मज़बूत स्थिति में है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राम मंदिर फैक्टर बीजेपी यहाँ बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त है. इसके साथ ही मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस बार अखिलेश यादव के साथ नहीं है. बसपा प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ रही है. विरोधी वोट में बिखराव होने के कारण उत्तर प्रदेश में यह फैक्टर भी बीजेपी के लिए काफ़ी सकारात्मक साबित होने वाला है. उत्तर प्रदेश में मायावती के अखिलेश के साथ चुनाव लड़ने के फ़ैसले से बीजेपी को न्यूनतम 10 सीटों का नुक़सान होने की संभावना बन सकती थी. हालाँकि मायावती के रुख़ से वह संभावना चुनाव से पहले ही ज़मीन-दोज़ हो गयी.


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समीकरण पर नज़र


पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीट ऐसी हैं, जहाँ बीजेपी को समाजवादी पार्टी और जयंत चौधरी की आरएलडी के साथ से हार का ख़तरा सता रहा था. अकेले दम पर राष्ट्रीय लोक दल की कोई ख़ास राजनीतिक हैसियत लोक सभा चुनाव के नज़रिए से अब नहीं है. यह राजनीतिक वास्तविकता है. लेकिन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ मिलकर आरएलडी के मिलने से पश्चिम उत्तर प्रदेश की कम से कम 10 से 18 सीट पर बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है. सहारनपुर और मुरादाबाद डिवीज़न में पड़ने वाली सीट के साथ ही मेरठ, अलीगढ़ और आगरा को लेकर बीजेपी कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहती है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में 27 सीट है. इनमें से 22 पर जाट वोट बेहद निर्णायक साबित होते हैं. पिछली बार बीजेपी इन 22 में से 8 सीट पर हारी थी.


जयंत चौधरी से बीजेपी को क्या होगा लाभ?


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के जनाधार के साथ जाट-मुस्लिम वोट बैंक के एकजुट रहने से होने वाले राजनीतिक ख़तरे को टालने के लिए बीजेपी की कोशिश है कि जयंत चौधरी को भी नीतीश कुमार की तरह एनडीए का हिस्सा बना लिया जाए. इसके लिए बीजेपी की ओर से जयंत चौधरी को मनभावक प्रस्ताव दिए जाने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के तहत अखिलेश यादव आरएलडी को प्रदेश में 7 सीट देने के लिए पहले ही एलान कर चुके हैं. इस बीच कहा जा रहा हैकि अखिलेश यादव ने आरएलडी उम्मीदवार को समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर उतारने की जो शर्त रखी है, उससे जयंत चौधरी नाराज़ हैं. इसी को देखते हुए वो एनडीए के पाले में जाने को लेकर उतावले दिख रहे हैं.


बीजेपी से जयंत चौधरी को भी है फ़ाइदा


इतना भी तय है कि बीजेपी जयंत चौधरी की पार्टी के लिए 7 सीट नहीं छोड़ने वाली है. कहा जा रहा है कि बीजेपी की ओर से आरएलडी के लिए सीधे तौर से 4 सीट का प्रस्ताव है. हालाँकि कितनी सीट चुनाव लड़ने के लिए कौन गठबंधन दे रहा है, जयंत चौधरी के लिए इससे अधिक महत्वपूर्ण अपनी पार्टी की प्रासंगिकता और अस्तित्व को बनाए रखना है. मई 2021 में अजीत सिंह के निधन के बाद ऐसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों में राष्ट्रीय लोक दल को लेकर पहले जैसा जुड़ाव नहीं रह गया है.


राष्ट्रीय लोक दल की प्रासंगिकता का सवाल


पिछली बार लोक सभा चुनाव में आरएलडी उस गठबंधन का हिस्सा थी, जिसमें सपा और बसपा थी. इस गठबंधन के तहत आरएलडी तीन सीट पर चुनाव लड़ी थी. उसे तीनों ही सीट पर हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव में जयंत चौधरी के पिता और राष्ट्रीय लोक दल के संस्थापक अजीत सिंह ख़ुद मुजफ्फरनगर सीट पर हार गए थे. जयंत चौधरी को बागपत सीट पर हार का सामना करना पड़ा था. लोक सभा चुनाव, 2014 में भी 8 लोक सभा  सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद आरएलडी का खाता नहीं खुला था. उस चुनाव में भी अजीत सिंह बागपत से हार गए थे. 2014 में आरएलडी का वोट शेयर एक फ़ीसदी से कम और 2019 में दो फ़ीसदी से कम रहा था.


विधान सभा में भले ही आरएलडी अकेले दम पर एक-दो सीट पर जीतने का दमख़म रखती हो, लेकिन लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से उसकी प्रासंगिकता अकेले दम बहुत कम रह गयी है. जैसा कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति और माहौल है, उसमें समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव जीतने की संभावना आरएलडी के पास कम है. वहीं बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से जीतने की संभावना भरपूर बन सकती है. जयंत चौधरी इस संभावना पर ज़रूर गौ़र कर रहे होंगे. समाजवादी पार्टी को छोड़कर जयंत चौधरी के एनडीए में जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह हो सकता है.


यूपी में सभी सीट पर एनडीए का दावा मज़बूत!


दूसरी ओर जयंत चौधरी का साथ मिलने से पश्चिम उत्तर प्रदेश में सभी सीटों पर एनडीए का दावा मज़बूत हो जाएगा. ऐसा होने से एनडीए के लिए उत्तर प्रदेश में 80 के आँकड़े को हासिल करने का लक्ष्य भी आसान हो सकता है. यही कारण है कि बीजेपी जयंत चौधरी को अपने पाले में लाने के लिए 4 सीट देने को भी तैयार दिख रही है. अगर ऐसा होता है तो इसकी संभावना बन रही है कि उत्तर प्रदेश में एनडीए के तहत बीजेपी 72 सीट पर, जयंत चौधरी की आरएलडी 4 सीट पर, अनुप्रिया पटेल की अपना दल ( सोनेलाल) दो सीट पर, संजय निषाद की निषाद पार्टी और ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी एक-एक सीट पर चुनाव लड़े.


जो राज्य 2019 में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी ताक़त बने थे, उनमें 10 से 12 राज्यों में पार्टी 2019 में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है. इस बार बीजेपी उन राज्यों में या तो उस प्रदर्शन को दोहराने में सफल होगी या नुक़सान का सामना कर सकती है. नुक़सान की किसी भी आशंका को टालने के लिए अब एनडीए में अपने सहयोगियों की संख्या बढ़ाने पर बीजेपी ज़ोर दे रही है. जयंत चौधरी भी उसी कड़ी का हिस्सा कहे जा सकते हैं.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]