लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संसदीय प्रणाली में आम चुनाव या'नी सरल शब्दों में कहें, तो लोक सभा चुनाव देश के नागरिकों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण होता है. मौजूदा साल हम सबके लिए आम चुनाव का ही वर्ष है. चुनाव में अब दो-तीन महीने ही बचे हैं. चुनाव बिल्कुल दहलीज़ पर है. देश के तमाम राजनीतिक दल तो आम चुनाव, 2024 को लेकर पिछले कई महीनों से रणनीति बनाने और उनको अंजाम देने में जुटे हैं. इनमें सत्ताधारी दलों के साथ ही तमाम विपक्षी पार्टियाँ भी शामिल हैं.


संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दल चाहे कोई हो, उनके लिए सर्वोच्च प्राथमिकता चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करना ही होता है. सैद्धांतिक तौर से राजनीतिक दल कुछ भी दावा करें, व्यवहार में यही एकमात्र सत्य है. इसलिए हर पार्टी जनता का समर्थन पाने के लिए तरह-तरह की नीतियाँ बनाती है.


मतदाता सिर्फ़ वोट डालने तक हैं सीमित!


ऐसे में एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि क्या लोक सभा चुनाव को लेकर देश के नागरिकों, ख़ासकर मतदाताओं..को भी किसी तरह की रणनीति बनानी चाहिए या फिर मतदान के लिए दिन बस औपचारिकता मानते हुए वोट डालने की प्रक्रिया को पूरी कर लेनी चाहिए. यह बेहद ही गंभीर मसला है, जिसको लेकर देश के लोगों को ख़ुद में व्यापक विचार-विमर्श करने की ज़रूरत है.


आज़ादी के बाद संविधान तैयार किया गया. फिर संविधान को देश के नागरिकों के नाम पर स्वीकार और लागू किया गया. उसके बाद संसदीय व्यवस्था के तहत हर पाँच साल पर आम चुनाव  कराने से जुड़ा प्रावधान लागू होता आया है. इसे ही हम सरल शब्दों में लोक सभा चुनाव भी कहते हैं. इस चुनाव के माध्यम से ही यह तय होता है कि अगले पाँच साल के लिए  कौन-सा राजनीतिक दल या दलों का गठबंधन केंद्र की सत्ता को संचालित करेगा. इस चुनाव के माध्यम से ही कार्यपालिका का निर्धारण होता है. इस चुनाव से केंद्रीय विधायिका या'नी संसद के दो सदनों में से एक लोक सभा के सदस्यों का चयन देश के मतदाता प्रत्यक्ष तौर से करते हैं.



मतदाताओं को भी बनानी चाहिए रणनीति


हालाँकि जब से भारत में आम चुनाव की व्यवस्था लागू हुई है, उस वक़्त से ही इस विमर्श को उतना महत्व नहीं दिया गया है कि चुनाव से पहले देश के मतदाताओं को भी अपनी रणनीति बनानी चाहिए. न तो राजनीतिक तौर से इस विमर्श को महत्व दिया गया है और न ही मीडिया की ओर से भी कोई ख़ास ज़ोर दिया गया है. ऐसा होने के कारण ही अब तक हमारे देश में चुनाव की पूरी प्रक्रिया में मुद्दे कौन-कौन से हावी रहेंगे, किन मुद्दों को उछाला जाएगा..किन मुद्दों को महत्व नहीं दिया जाएगा..सिद्धांत में नहीं लेकिन व्यवहार में यह पूरी तरह से राजनीतिक दलों के नियंत्रण में ही रहा है.


चुनाव में सियासी मुद्दा बनाम वास्तविक मुद्दा


इस प्रवृत्ति की वज्ह देश को, देशवासियों को काफ़ी नुक़सान भी हुआ है. इसमें राजनीतिक के साथ ही आर्थिक और सामाजिक नुक़सान भी समाहित है. इसी पहलू से जुड़ा विमर्श है कि चुनाव में सियासी मुद्दे ही हमेशा हावी रहेंगे या फिर वास्तविक मुद्दों पर भी कभी चुनाव होगा. यह सियासी मुद्दा बनाम वास्तविक मुद्दा से जुड़ा विमर्श है, जिसे देश के नागरिकों को..मतदाताओं को गंभीरता से समझने और उसपर चिंतन करते हुए भविष्य में मतदान करने से पहले अपनी रणनीति भी तय करने की दरकार है.


हम सब जानते हैं कि एक बार फिर से देश के लोगों के सामने आम चुनाव से जुड़ी प्रक्रिया पूरी होने वाली है. इस साल होने वाला चुनाव 18वाँ लोक सभा चुनाव होगा. चुनाव के केंद्र में वो मुद्दे रहें, जिसकी परिकल्पना हमारे संविधान में की गयी है, जिसकी वास्तविक ज़रूरत देश के लोगों को है.  नागरिकों या मतदाताओं को मतदान से पहले की रणनीति बनाते समय इन मसलों पर व्यापक सोच-विचार कर फ़ैसला करना चाहिए.


चुनाव में मुद्दों को तय करें आम नागरिक


हमारे यहाँ जिस तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था है, उसमें राजनीतिक दलों से, जनप्रतिनिधियों से..सरकार से..सीधा संवाद करने या सवाल पूछने की गुंजाइश बेहद कम है. सरल शब्दों में कहें, तो चुनाव ही एकमात्र मौक़ा होता है, जब हम राजनीतिक दलों से, सरकार के राजनीतिक नुमाइंदों से उम्मीदवारों के माध्यम से सीधे सवाल कर सकते हैं. पार्टियों के बड़े -बड़े नेता तो रैलियाँ और जनसभाएं करते हुए सिर्फ़ अपनी बात जनता को सुना देते हैं. लेकिन हर निर्वाचन क्षेत्र में राजनीतिक दलों के उम्मीदवार चुनाव के समय कम से कम एक बार उस संसदीय क्षेत्र में आने वाले मतदाताओं से ज़रूर रू-ब-रू होते हैं. यही वह अवसर होता है, जब मतदाता सीधे अपने मुद्दों को उन उम्मीदवारों के सामने रख सकते हैं, अपने सवालों को उन उम्मीदवारों के ज़रिये राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँचा सकते हैं.


राजनीतिक जवाबदेही तय करने पर ज़ोर


चुनाव एक ऐसा अवसर है, जिसका इस्तेमाल देश के नागरिक राजनीतिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं. हालाँकि लोकतंत्र में वास्तविक तौर से इस काम को अंजाम तभी दिया जा सकता है, जब नागरिक भी चुनाव से पहले बेहतर तैयारी करें, अपनी रणनीति बनाएं, जनहित से जुड़े मुद्दों और अपनी वास्तविक ज़रूरतों की सूची कम से कम मन में ही तैयार करके रखें.


लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार की भूमिका


इसके लिए ज़रूरी है कि देश के मतदाताओं को अपने संविधान, संवैधानिक हक़ के साथ ही इस बात की बुनियादी जानकारी हो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत एक संसदीय प्रणाली में सरकार का क्या काम होता है. भारत में सरकार की व्यवस्था एक लोक कल्याणकारी राज्य के लिहाज़ से की गयी है. सरकार का काम देश के लिए.. देश के नागरिकों के लिए बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था को सुनिश्चित करना है.


सरकार का काम देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा करते हुए हर नागरिक के लिए बुनियादी ज़रूरतों को सुनिश्चित करना है, जिससे देश के हर नागरिक का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो सके. सरकार या राजनीतिक दलों का काम देश के लोगों को नैतिकता या धार्मिकता का पाठ पढ़ाना नहीं है. कम से कम भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो संविधान यही कहता है. इन सारे बिन्दुओं पर ग़ौर करते हुए मतदाताओं को अपनी रणनीति बनानी चाहिए.


नागरिक सर्वोपरि से जुड़े विमर्श को महत्व


एक बेहद ही महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसे आज़ादी के बाद से ही व्यवहार में उस तरह का महत्व नहीं मिला है, जिसकी परिकल्पना हमारे संविधान में की गयी है. किसी भी लोकतांत्रिक देश में जहाँ संविधान के मुताबिक़ प्रशासनिक व्यवस्था चलती है, उसमें नागरिक से ऊपर कोई नहीं होता. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था का मकसद सिर्फ़ और सिर्फ़ नागरिकों को बेहतर व्यवस्था प्रदान करना ही है.


लोकतांत्रिक व्यवस्था में न तो संसद, न ही सांसद, न तो सरकार, न ही सरकारी नुमाइंदे, न तो न्यायपालिका, न ही जज..बल्कि देश के नागरिक या कहें आम नागरिक सर्वोच्च होते हैं. इस विमर्श को भारत में व्यावहारिक तौर से महत्व नहीं दिया गया है. सैद्धांतिक तौर से सरकार और राजनीतिक दल इसका दावा ज़रूर करते हैं, लेकिन जब व्यवहार में अमल की बात आती है, तो पूरा संदर्भ ही बदल जाता है.


व्यवहार के स्तर पर भी नागरिक हों सर्वोपरि


न सिर्फ़ सिद्धांत में, बल्कि व्यवहार में भी नागरिक सर्वोपरि हैं, लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में इससे बड़ा या महत्वपूर्ण कोई विमर्श नहीं है. सैद्धांतिक के साथ ही व्यावहारिक तौर से भी देश में सबसे बड़े माननीय और सम्माननीय नागरिक हैं.


विडंबना देखिए कि आज़ादी के बाद ही व्यवहार में इससे उलट विमर्श को महत्व दिया गया है. कभी संसद को सर्वोपरि बता दिया जाता है..कभी राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को सर्वोपरि बताया दिया जाता है. कभी जजों को सर्वोपरि बता दिया जाता है. न सिर्फ़ बता दिया जाता है, बल्कि व्यवहार में अमल भी ऐसे ही विमर्श पर दिखता है. इन लोगों की भावनाएं भी छोटी-छोटी बातों पर आहत हो जाती है, छोटी-छोटी बातों पर इनका अनादर या असम्मान हो जाता है.


हालाँकि जो देश में सर्वोपरि हैं या'नी देश के आम नागरिक उनकी भावनाओं के आहत होने और उनके सम्मान के साथ खिलवाड़ से पूरे राजनीतिक तंत्र का वास्तविकता में कोई सरोकार नहीं रहता है. हर दिन देश के करोड़ों नागरिकों की भावनाएं आहत होने वाली घटनाएं होती हैं, लेकिन आम लोगों की  भावनाएं आहत न हो.. इसे महत्व देने का विमर्श और माहौल व्यवहार में सरकारी और राजनीतिक स्तर पर बनने ही नहीं दिया जाता है.


सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की जवाबदेही


ऐसे माहौल के लिए किसी एक राजनीतिक दल को दोष नहीं दिया जा सकता है. वास्तविकता यह है कि दशकों से पूरा राजनीतिक तंत्र ही इसमें शामिल रहा है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में चाहे सत्ताधारी दल हो या फिर विपक्षी दल ..दोनों की राजनीतिक जवाबदेही व्यवहार में भी जनता और सिर्फ़ जनता के प्रति होनी चाहिए. हालाँकि हमारे यहाँ ऐसा नहीं दिखता है.


इसके विपरीत हालात यह है कि तमाम राजनीतिक दलों के नेता आपसी आरोप-प्रत्यारोप और एक-दूसरे को ही जवाब देने में जुटे रहते हैं. देश की राष्ट्रीय मीडिया या कहें मुख्यधारा की मीडिया भी राजनीतिक दलों और नेताओं के इस खींचतान को ख़बर मानकर या जानबूझकर बनाकर दिन-रात उसमें उलझी रहती है. चुनाव में मतदान करने से पहले इन पहलुओं पर भी मतदाताओं को गंभीरता से ग़ौर करने की ज़रूरत है.


चुनाव में वास्तविक मुद्दों को महत्व क्यों नहीं?


अगर आज़ादी के बाद से ही चुनाव-दर-चुनाव नागरिकों के वास्तविक मुद्दों को राजनीतिक दलों ने महत्व दिया होता, तो आज देश में तक़रीबन 80 करोड़ नागरिकों को हर महीने खाने के लिए पाँच किलोग्राम मु्फ्त में राशन देने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हद तो यह है कि सरकार और सत्ताधारी दल इस तरह की योजनाओं को उपलब्धि के तौर पर बताने में एड़ी-चोटी को ज़ोर लगा देते हैं, जबकि भारत जैसे देश के लिए, पूरे शासन व्यवस्था के लिए...सरकार के साथ ही राजनीतिक तंत्र के लिए यह बेहद शर्म की बात है. इसी तरह के कई और मसले हैं.


भारत को 1947 में ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मिली. अब 75 साल से अधिक का समय हो चुका है. उसके बावजूद पूरा सरकारी और राजनीतिक तंत्र मिलकर भी देश में उच्च गुणवत्ता वाली प्राथामिक शिक्षा ( Primary Education) और प्राथमिक चिकित्सा (Primary Health) से जुड़ी उच्च कोटि की सेवाओं को हर नागरिक के लिए मुफ्त में सुनिश्चित नहीं कर पाया है. इन दो पहलुओं के लिए जिस तरह की बुनियादी संरचना होनी चाहिए, उस दिशा में गंभीरता से किसी भी सरकार ने का नहीं किया है. साथ ही साथ विपक्ष में रहने के दौरान तमाम राजनीतिक दलों ने भी इन मुद्दों पर लगातार सरकार को संसद से लेकर सड़क पर घेरने की कोशिश नहीं की है.


हालाँकि हर सरकार वक़्त-वक़्त पर दावा ज़रूर करती है कि इन दो मोर्चों पर सरकारी स्तर पर ख़ूब काम किया गया है. वहीं चुनाव के वक़्त विपक्षी दल भी ऐसा ही करते नज़र आते हैं कि उन्होंने इन मुद्दों को ख़ूब उठाया है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही है. ये दो पहलू ऐसे हैं, जिन पर शुरू से ही गंभीरता से काम किया गया होता, तो, अब तक देश और देशवासियों की तस्वीर कुछ और होती.


ऐसे हालात के लिए कौन है ज़िम्मेदार?


ऐसा नहीं है कि इस हालात के लिए मौजूदा सरकार या उससे जुड़ी पार्टी ही सिर्फ़ जिम्मेदार है. आज़ादी के बाद के से ही देश में जिन-जिन दलों की सरकार रही है, ऐसे हालात के  लिए उन सबकी जवाबदेही बनती है. इनके अलावा जो राजनीतिक दल विपक्ष में रहे हैं, उनकी भी जवाबदेही बनती है.


ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि संसदीय व्यवस्था में विपक्षी दलों की भूमिका सिर्फ़ सरकार का विरोध या आलोचना करने तक ही सीमित नहीं है. विपक्ष अगर जनता की वास्तविक ज़रूरतों को विमर्श का मुद्दा नहीं बना पा रहा है या ऐसा करने के लिए लगातार संघर्ष करते हुए नज़र नहीं आ रहा है, तो फिर उसकी भी राजनीति जवाबदेही जनता के प्रति बनती है. कुल मिलाकर सत्ता पक्ष हो या विपक्ष हो, सबकी जवाबदेही जनता को लेकर होनी चाहिए, न कि एक-दूसरे को लेकर. इस विमर्श को भी महत्व देने और उसको समझने की ज़रूरत हर मतदाता को है.


भावनाओं और माहौल का खेल बन गया है चुनाव


जो वास्तविक मुद्दे होते हैं, जो देश के नागरिकों को बेहतर स्थिति में पहुँचाने से संबंधित मुद्दे होते हैं, उनको चुनाव में महत्व देकर सियासी जंग जीतना हर राजनीतिक दल के लिए मुश्किल का काम होता. इसकी तुलना में भावनाओं और माहौल के आधार पर जनता को बरगलाकर या उलझाकर चुनाव लड़ना और जीतना अधिक सरल काम है. भारत में इस प्रवृत्ति को शुरू से बढ़ावा दिया गया है.


धार्मिक भावनाओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जा रहा है. हालाँकि वास्तविकता है कि जिस देश, समाज में धार्मिक उन्माद का माहौल हमेशा हावी रहता है, ख़ासकर राजनीति और मीडिया विमर्श में, तो उसका ख़म्याज़ा आख़िरकार नागरिकों को ही भुगतना पड़ता है. उसमें भी महिलाओं पर इसका नकारात्मक असर ज़ियादा पड़ता है. यह प्रक्रिया धीमी होती है, जिसको आम लोग देर से समझते हैं या फिर जब समझते हैं, तब बहुत देर हो चुकी रहती है. इस बात को समझने के दुनिया के कई देश उदाहरण के तौर पर मौजूद हैं, जहाँ धार्मिक भावनाओं और धार्मिक उन्माद चुनाव में हावी रहता है.


हाल के वर्षों में सोशल मीडिया के प्रसार से इस तरह की प्रवृत्ति में और तेज़ी आयी है. एजेंडा कहें या प्रोपेगेंडा..तथ्य कहें या अफवाह ..उसके आधार पर जनता के बीच चंद सेकेंड में माहौल बना देना अब राजनीति दलों और नेताओं के लिए आसान हो गया है. हालाँकि बाद में तथ्य ग़लत भी निकलता है, लेकिन तब तक राजनीतिक दलों और नेताओं का काम हो जाता है. यहाँ तक कि बड़े तबक़े में अफवाह और झूठ चंद सेकेंड में सत्य के तौर पर पहुंचा दिया जाता है. इन सब बातों पर भी आम मतदाताओं को मंथन करने की ज़रूरत है.


विकसित राष्ट्र और आर्थिक असमानता का मुद्दा


अब हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में हैं. आने वाले समय में भारत को विकसित राष्ट्र भी बनना है. अगर हम विकसित राष्ट्र सिर्फ़ और सिर्फ़ अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर बने हैं, तो यह एक तरह से देश के नागरिकों के लिए छलावा ही होगा. हम विकसित राष्ट्र तो बन जायेंगे, लेकिन ऐसा होने पर चुनिंदा लोगों के पास तो अकूत संपत्ति और संसाधन होगा, बाक़ी जनता या लोग बस उन लोगों के लिए दिन-रात मेहनत करने वाले मज़दूर बनकर ही रह जायेंगे. यह आर्थिक असमानता से जुड़ा मसला है. भविष्य में विकसित राष्ट्र बनने के बाद यह समस्या और भी विकराल हो सकती है, अगर देश के आम नागरिकों ने समय पर अपनी रणनीति तैयार नहीं की. चुनाव में मतदान से पहले मतदाताओं को इस पहलू पर सोचना चाहिए.


वास्तविक मुद्दों से राजनीति हो जाएगी मुश्किल


सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि महँगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई, महिलाओं से जुड़ी हिंसा, यौन शोषण, बलात्कार और अन्य अपराध जैसे मुद्दे चुनाव में हावी क्यों नहीं हो पाते हैं. आख़िर क्यों सिर्फ़ उन मुद्दों और माहौल पर ही पूरा चुनाव निकल जाता है, जिनको सत्ताधारी दल और विपक्षी दल तैयार करते हैं. ऐसा होने में तमाम दलों की सहभागिता है. चाहे सत्ता पक्ष से जुड़े दल हों या फिर विपक्ष से.


ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या बतौर नागरिक हम सब अपने वास्तविक मुद्दों पर ग़ौर करके मतदान नहीं कर सकते हैं. इसका सीधा जवाब है कि बिल्कुल कर सकते हैं. बस इसके लिए मतदाताओं को भी हर चुनाव से पहले अपनी रणनीति पर काम करने की ज़रूरत है. यह काम ऐासा नहीं है, जिसके लिए इत्मीनान से बैठने की ज़रूरत है. चलते-फिरते, आपस में संवाद से इसे ब-ख़ूबी किया जा सकता है.


आम नागरिक क्यों बन गए हैं कार्यकर्ता?


आज़ादी के बाद से ही इस विमर्श को महत्व नहीं देने का ही नतीजा है कि आज देश में अजीब तरह का राजनीतिक माहौल है. राजनीतिक दलों से सीधे तौर से जुड़े नेता और कार्यकर्ता दिन-रात एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहे, यह बात तो किसी तरह से हज़्म हो जाती है.


इसके विपरीत अगर देश के आम नागरिक..मतदाता भी घर बैठे स्थायी पार्टी कार्यकर्ता बन जाएं, तो फिर यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था और देश के आम लोगों के लिए सही परंपरा नहीं है. ऐसा होने से सिर्फ़ और सिर्फ़ देश के आम लोगों का नुक़सान है. अगर हम किसी दल को वोट दे रहे हैं, तो इसका यह मायने नहीं हो जाता है कि हम उस दल का स्थायी समर्थक या कार्यकर्ता बन गए हैं. लेकिन भारत में इस तरह की प्रवृत्ति का तेज़ी से विकास हो रहा है.


राजनीतिक जवाबदेही से बचने का रास्ता


ऐसा होने से पार्टियों और उनके नेताओं को राजनीतिक जवाबदेही से बचने का आसान रास्ता मिल ही जाता है. इसके साथ ही सियासी मुद्दों को उछालकर नागरिकों के वास्तविक मुद्दों गौण करने का भी मौक़ा मिल जाता है. फिर राजनीति के साथ ही पूरी चुनावी प्रक्रिया उन्हीं सियासी मुद्दों और माहौल के इर्द-गिर्द घूमती है. सरकार चाहे कोई हो, उससे जुड़ी पार्टी कोई हो.. देश के हर नागरिक को उससे सवाल पूछने का अधिकार है. वोट देने के आधार पर आम नागरिकों की पार्टी के प्रति स्थायी निष्ठा तय करने की प्रवृत्ति लोकतंत्र में बेहद ही ख़तरनाक होती है.


एक उदाहरण से समझें, तो, प्रधानमंत्री चाहे किसी भी दल से हों, देश के हर नागरिक को अपने प्रधानमंत्री या अपनी सरकार से सवाल पूछने और बेहतरी के लिए दबाव बनाने का अधिकार है. प्रधानमंत्री भले ही किसी एक दल के नेता होते हैं, लेकिन जब वे इस पद पर आ जाते हैं, तो देश का हर नागरिक उनकी ज़िम्मेदारी है..इस विमर्श को भी देश के मतदाताओं को समझने और आत्मसात करने की ज़रूरत है.


'नागरिक सर्वोपरि' का विमर्श हो स्थापित


इन सब बातों पर देश के हर मतदाताओं को चिंतन-मनन कर अपनी रणनीति ज़रूर बनानी चाहिए. ऐसा होने पर ही भविष्य में व्यवहार के स्तर पर 'नागरिक सर्वोपरि' के विमर्श को महत्व देने के लिए तमाम राजनीतिक दल और उनके नेताओं के साथ ही सरकार और उनके नुमाइंदे सही मायने में विवश होंगे. फिर सही मायने में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव का महत्व भी स्थापित हो सकेगा. हर मसले पर सरकारी और राजनीतिक जवाबदेही भी सुनिश्चित हो पाएगी. देश उस दिशा में जाना चाहिए, जिसमें आम नागरिकों की वास्तविक ज़रूरतों को और उनसे जुड़े मुद्दों को चुनाव प्रक्रिया में महत्व मिले. यह काम राजनीतिक दल नहीं करेंगे, इतना तय है. यह काम देश के नागरिकों और मतदाताओं को ही करना होगा.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]