आगामी लोक सभा चुनाव के मद्द-ए-नज़र अलग-अलग राज्यों में सियासी खिचड़ी पकाने में तमाम राजनीतिक दल जुटे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 पार का लक्ष्य पहले ही तय कर दिया है. इसे अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अलग-अलग राज्यों में हर तरह का राजनीतिक हथकंडा अपना रहा है.
इस कड़ी में एक राज्य ऐसा भी है, जो बीजेपी के रणनीतिकारों के लिए गले की फाँस बना हुआ है. दक्षिण भारतीय राज्य केरल बीजेपी के लिए अबूझ पहेली सरीखा है. पिछले एक दशक में कम या ज़ियादा..देश के तक़रीबन हर राज्य में बीजेपी का विस्तार हुआ है. लेकिन दक्षिण भारत के तीन राज्य आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बीजेपी के जनाधार में सीट जीतने के लिहाज़ से कोई ख़ास इज़ाफ़ा नहीं हुआ है. इन तीनों राज्यों में से केरल में बीजेपी की स्थिति और भी दयनीय है.
केरल वर्षों से है बीजेपी के लिए गले की फाँस
केरल में पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से लगातार प्रयास भी किए जा रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता पिछले कुछ साल से लगातार केरल का दौरा कर रहे हैं. ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले कुछ महीनों में कई बार केरल के साथ तमिलनाडु का भी दौरा किया है. आधिकारिक दौरे के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में लगातार रोड शो और मंदिरों का दौरा भी कर रहे हैं.
केरल में बीजेपी का 10 सीट जीतने का दावा
प्रधानमंत्री ने 27 फरवरी को भी तिरुवनंतपुरम में जनसभा करते हुए सीपीआई (एम) सरकार के साथ ही कांग्रेस की जमकर आलोचना की. इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि आगामी लोक सभा चुनाव में केरल के लोग बीजेपी को दोहरे अंकों में सीट जिताकर अपना आशीर्वाद देंगे. जनवरी में भी प्रधानमंत्री ने केरल का दौरा किया था. दो महीने के भीतर यह उनका तीसरा केरल दौरा था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केरल में कम से कम 10 लोक सभा सीट जीतने का दावा कर रहे हैं. केरल की राजनीतिक खिचड़ी में जनाधार के आधार पर बीजेपी की स्थिति को देखते हुए 10 सीट का दावा सपना सरीखा ही कहा जा सकता है. ऐसा कहने के पीछे तर्क है. केरल के राजनीतिक समीकरणों के विश्लेषण से इसे ब-ख़ूबी समझा जा सकता है.
कभी लोक सभा सीट नहीं जीत पायी है बीजेपी
दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़कर बीजेपी तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में उतनी मजबूत स्थिति में कभी नहीं रही. उसमें भी जनाधार के मोर्चे पर केरल बीजेपी की सबसे कमज़ोर कड़ी है. तेलंगाना और तमिलनाडु धीरे-धीरे ही सही, बीजेपी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रही है. इसके विपरीत तमाम प्रयासों के बावजूद भी बीजेपी को केरल में सफलता नहीं मिली है. हम सब जानते हैं कि 6 अप्रैल 1980 को बीजेपी बतौर पार्टी अस्तित्व में आयी. उसके बाद से ही केरल की सियासी लड़ाई में नतीजों के लिहाज़ से बीजेपी को थोड़ी भी जगह बनाने में सफलता नहीं मिल पायी है.
आख़िर केरल में क्यों नहीं जीत पाती है बीजेपी?
लोक सभा के नज़रिये से बीजेपी केरल में अब तक खाता तक नहीं खोल पायी है. बीजेपी 1989 से केरल में लोक सभा सीट जीतने की कोशिश में लगी है. अगर विधान सभा चुनाव की बात करें, तो, बीजेपी सिर्फ़ 2016 में येन-केन प्रकारेण एक सीट जीतने में सफल हो पाई थी. बीजेपी 1996 से हर बार केरल के विधान सभा चुनाव में 100 से अधिक सीट पर चुनाव लड़ रही है, लेकिन 2016 में एक सीट को छोड़कर कभी कोई सीट नहीं जीत पाई है. हालाँकि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल की 20 में से कम से कम 10 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है. पार्टी का कहना है कि 2014 और 2019 के मुक़ाबले इस बार केरल में बीजेपी के पक्ष में बेहतर माहौल दिख रहा है.
यह बात सही है कि केरल में पिछले एक दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना दायरा बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत की है. हाल-फ़िलहाल के वर्षों में यहाँ अलग-अलग तरीक़ों से धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश भी की गयी है. उसके बावजूद केरल में बीजेपी की सियासी ज़मीन उतनी मज़बूत नहीं हुई है कि आम चुनाव, 2024 में पार्टी के पक्ष में कुछ बड़ा नतीजा आ सके.
तिरुवनंतपुरम और त्रिशूर को लेकर उम्मीद
आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी केरल में खाता भी खोल लेती है, तो, उसके लिए यह मील का पत्थर साबित हो सकता है. तिरुवनंतपुरम और तृश्शूर या त्रिशूर (Thrissur) दो ऐसे सीट हैं, जिसको लेकर बीजेपी सबसे अधिक आशान्वित है.
त्रिशूर सीट को लेकर बीजेपी के दावे में कुछ हद तक दम दिखता है. इस सीट से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर सुरेश गोपी 2019 में चुनाव लड़े थे. एक्टर से नेता बने सुरेश गोपी चुनाव जीत तो नहीं पाए थे, लेकिन 2,93,822 वोट पाकर सबको चौंका दिया था. सुरेश गोपी 28.2% वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर रहे थे. इस सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार के.पी. श्रीसन को 2014 में 1,02,681 वोट मिला था. सुरेश गोपी 2019 में बीजेपी के वोट में क़रीब-क़रीब तीन गुना वोट का इज़ाफ़ा करने में सफल रहे थे.
बीजेपी ने अप्रैल 2021 में हुए विधान सभा चुनाव में भी सुरेश गोपी को त्रिशूर सीट पर उम्मीदवार बनाया था. तीसरे नंबर पर रहते हुए वे 31.3% वोट पाने में कामयाब रहे थे. एलडीएफ के तहत सीपीआई और यूडीएफ के तहत कांग्रेस के वोट में काफ़ी कमी आयी थी, जबकि बीजेपी का वोट 2016 की तुलना में तक़रीबन 12 फ़ीसदी बढ़ गया था.
सुरेश गोपी की लोकप्रियता और पिछले दो चुनाव में प्रदर्शन को देखते हुए पूरी उम्मीद है कि बीजेपी इस बार भी त्रिशूर लोक सभा सीट पर उन्हें ही उम्मीदवार बनाएगी. गुरुवायूर मंदिर में हुए सुरेश गोपी की बेटी के विवाह समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले महीने 17 जनवरी को शामिल भी हुए थे.
तिरुवनंतपुरम में दो बार से दूसरे नंबर पर
इसी तरह से तिरुवनंतपुरम सीट को लेकर भी बीजेपी आशान्वित दिख रही है. इस सीट से कांग्रेस के शशि थरूर लगातार तीन बार से लोक सभा चुनाव जीत रहे हैं. 2014 और 2019 में बीजेपी यहाँ दूसरे नंबर पर रही थी. 2019 में एकमात्र सीट यही था, जिस पर बीजेपी दूसरे नंबर पर पहुंचने में सफल रही थी. पिछली बार बीजेपी नेता के. राजशेखरन 3,16,142 वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे. शशि थरूर की जीत का मार्जिन क़रीब एक लाख वोट था. बीजेपी उम्मीदवार ओ. राजगोपाल 2014 में तिरुवनंतपुरम सीट पर दूसरे नंबर पर रहे थे.
हालाँकि शशि थरूर की लोकप्रयिता को देखते हुए तिरुवनंतपुरम सीट पर कमल खिलाना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा. शशि थरूर के ख़िलाफ सीपीआई ने पार्टी के कद्दावर नेता और पूर्व सांसद पन्न्यन रवीन्द्रन को उम्मीदवार बनाया है. पन्न्यन रवीन्द्रन तिरुवनंतपुरम लोक सभा सीट पर 2005 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार को हराकर सांसद बने थे. रवीन्द्रन जैसे नेता की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद बीजेपी के लिए तिरुवनंतपुरम को लेकर उम्मीद बढ़ गयी है. पिछले दो बार के प्रदर्शन को देखते हुए बीजेपी को उम्मीद है कि दो लोकप्रिय नेता कांग्रेस के शशि थरूर और सीपीआई के पी. रवीन्द्रन की लड़ाई में उसके उम्मीदवार के आगे निकलने का रास्ता बन सकता है.
डेढ़ दशक में बीजेपी का वोट शेयर बढ़ा है
एक समय था, जब केरल में बीजेपी का जनाधार नगण्य था, लेकिन 2019 में यहाँ बिना कोई सीट जीते 13% वोट पा जाती है. 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर केरल में क़रीब 10.5% रहा था. 2009 में यह आँकड़ा 6.3% था. इससे हम कह सकते हैं कि पिछले डेढ़ दशक में भले ही बीजेपी सीट नहीं जीत पा रही हो, लेकिन अपना जनाधार दोगुना करने में कामयाब रही है. 2009 में बीजेपी 19 सीट पर चुनाव लड़ी थी और 17 पर तीसरे नंबर पर रही थी. वहीं 2014 में 18 सीट पर लड़ते हुए 17 पर तीसरे नंबर पर रही थी. पिछली बार बीजेपी 15 सीट पर चुनाव लड़ी थी और 14 पर तीसरे नंबर पर रही थी.
सियासी ज़मीन मज़बूत नहीं हो पा रही है
बीजेपी केरल में डेढ़ दशक में जनाधार तो दोगुना कर ली, लेकिन जीतने की स्थिति में नहीं आ पा रही है. पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी ने कई नौकरशाहों, अभिनेताओं और खिलाड़ियों को अपने साथ जोड़ा है. इनसे वोट शेयर बढ़ाने में मदद मिली है, लेकिन जीत नहीं मिल पा रही है. दरअसल इसके लिए केरल का अलग राजनीतिक समीकरण बहुत हद तक ज़िम्मेदार है. केरल की राजनीति में बीजेपी की सियासी ज़मीन धीरे-धीरे ही सही, मज़बूत हो रही है. सवाल उठता है कि इसके बावजूद आख़िर क्यों केरल में बीजेपी जीतने की स्थिति में नहीं आ पा रही है.
केरल में है अनोखा राजनीतिक समीकरण
दरअसल शुरू से ही केरल की राजनीति वाम दलों और कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती रही है. राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत केरल नया राज्य बनता है. उसके बाद से ही वाम दल और कांग्रेस ही यहाँ की सत्ता पर बारी-बारी से आते रहते हैं. केरल में मुख्य रूप से दो राजनीतिक धड़ा है. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ( मार्क्सवादी) यानी सीपीआई (एम) की अगुवाई में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (LDF) है. वहीं कांग्रेस की अगुवाई में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (UDF) है. केरल में हमेशा ही एलडीएफ और यूडीएफ के बीच ही सियासी लड़ाई सीमित रही है.
कांग्रेस और वाम दलों के इर्द-गिर्द राजनीति
एलडीएफ और यूडीएफ को लेकर केरल के लोगों में कुछ इस कदर माहौल है कि बीजेपी की तमाम कोशिश बेकार हो जा रही है. केंद्रीय राजनीति के लिहाज़ से इस बार आगामी लोक सभा चुनाव में केरल में अनोखी स्थिति है. बीजेपी को हराने के लिए देशव्यापी स्तर पर कांग्रेस और तमाम वाम दल एक पाले में हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा हैं. इसके बावजूद केरल में कांग्रेस और वाम दल आमने-सामने हैं.
यूडीएफ के तहत केरल में कांग्रेस 16, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग दो, केरल कांग्रेस (जे) और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी एक-एक सीट पर चुनाव लड़ रही है. यूडीएफ में दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के उम्मीदवार मौजूदा सांसद ई टी मोहम्मद बशीर और अब्दुल समद समदानी ही होंगे. हालाँकि दोनों की सीट बदल दी गयी है. वर्तमान में पोन्नानी से सांसद बशीर मलप्पुरम से चुनाव लड़ेंगे. वहीं मलप्पुरम से मौजूदा सांसद समदानी.. पोन्नानी से चुनाव लड़ेंगे. मलप्पुरम और पोन्नानी दोनों ही संसदीय क्षेत्र उत्तरी केरल में पड़ता है और दोनों ही मुस्लिम बहुसंख्यक निर्वाचन क्षेत्र है.
दूसरी तरफ़ केरल में एलडीएफ के तहत सीपीआई (एम) 15, सीपीआई 4 और केरल कांग्रेस (एम) एक सीट पर चुनाव लड़ रही है. सीपीआई (एम) ने 15 लोकसभा सीट के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. इनमें के.के. शैलजा और टी.एम. थॉमस भी शामिल हैं. सीपीआई अपने चार उम्मीदवार का एलान पहले ही कर चुकी है. सीपीआई ने वायनाड सीट पर पार्टी के वरिष्ठ नेता और डी राजा की पत्नी एनी राजा को उम्मीदवार बनाया है. वायनाड से फ़िलहाल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी सांसद हैं. केरल कांग्रेस (एम) ने कोट्टायम सीट के लिए मौजूदा सांसद थॉमस चाज़िकादान को ही फिर से उम्मीदवार बनाया है.
विपक्षी गठबंधन में साथ, फिर भी आमने-सामने
देशव्यापी स्तर पर गठबंधन के बावजूद केरल में कांग्रेस और वाम दल मिलकर चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं. दिल्ली में बैठे राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया इस सवाल को बार-बार उठा रहे हैं. हालाँकि केरल की राजनीति को समझने वालों के लिए यह सवाल बेमानी है. दरअसल वाम दलों और कांग्रेस दोनों के लिए ही केरल की लड़ाई आपसी है. केरल में दोनों की राजनीति एक-दूसरे के विरोध पर ही टिकी है. यहाँ बीजेपी की कोई ख़ास गुंजाइश नहीं है. यहाँ सीटों को लेकर तालमेल होने की परिस्थिति में बीजेपी को ही फ़ाइदा होता, इस बात का एहसास वाम दलों और कांग्रेस दोनों को है. ऐसा होने पर केरल की लड़ाई वामदल-कांग्रेस गठबंधन बनाम बीजेपी हो जाएगी. इससे बीजेपी को अपना आधार बढ़ाने का सीधा मौक़ा मिल जाता.
ऊपरी तौर पर वाम दलों के तमाम नेता भले बयान दे रहे है कि कांग्रेस को केरल में अपना हित त्याग देना चाहिए. लेकिन वास्तविकता यही है कि अंदर-ख़ाने कांग्रेस और वाम दलों में शुरू से इस पर सहमति रही है कि केरल में पुरानी व्यवस्था के तहत ही दोनों आपस में भिड़ेंगे. इससे केरल की राजनीति में सेंधमारी करना बीजेपी के लिए दुरूह कार्य बना रहेगा.
मज़बूत ज़मीनी स्तर की संरचना का अभाव
बीजेपी जिस तरह की राजनीति पर भरोसा करती है और उसके तहत पार्टी का विस्तार करती आयी है, केरल के लोगों पर उसका असर नहीं हो पाता है. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली बीजेपी केरल में पार्टी का संगठनात्मक ढाँचा भी उस तरह से तैयार नहीं कर पायी है, जैसा उत्तर भारत के राज्यों में है. सीपीआई (एम) या कांग्रेस की तरह केरल में बीजेपी के पास मज़बूत ज़मीनी स्तर की संरचना का अभाव है.
प्रभावशाली और जिताऊ स्थानीय नेताओं का संकट
केरल में प्रभावशाली स्थानीय नेताओं का अभाव बीजेपी की कमज़ोरी का एक महत्वपूर्ण पक्ष है. बीजेपी के पास केरल में ऐसे नेता नहीं हैं जिनके नाम पर वहाँ के लोग पार्टी पर भरोसा कर सकें. केरल में बीजेपी की कमान के. सुरेंद्रन संभाल रहे हैं. 2019 के लोक सभा चुनाव में के. सुरेंद्रन पथानामथिट्टा सीट से चुनाव लड़ा था और तीसरे नंबर पर रहे थे. वे फरवरी 2020 से पार्टी प्रदेश अध्यक्ष हैं. इसके बाद 2021 में हुए विधान सभा चुनाव में उनके ही नेतृत्व में बीजेपी चुनाव लड़ी थी. सुरेंद्रन ख़ुद दो सीट कोन्नी और मंजेश्वरम से लड़े और दोनों जगह हार गए. सुरेंद्रन 2009 और 2014 में कासरगोड लोक सभा सीट पर भी जीतने में नाकाम हुए थे. मेट्रो मैन के नाम से प्रसिद्ध ई. श्रीधरन को भी बीजेपी ने 2021 में पलक्कड़ विधान सभा सीट से चुनाव लड़ाया था, लेकिन वे भी जीत नहीं पाए थे.
अप्रैल, 2023 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए.के.एंटनी के बेटे अनिल एंटनी ने बीजेपी का दामन थामा. इस बार संभावना है कि बीजेपी उन्हें उम्मीदवार बनाएगी. केरल में बीजेपी टी. वेल्लापल्ली की भारत धर्म जन सेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. संभावना है कि बीजेपी 16 और बीडीजेएस 4 सीट पर चुनाव लड़ेगी.
बीजेपी की रणनीति का अब तक असर क्यों नहीं?
बीजेपी की सबसे बड़ी चिंता भी यही है कि केरल में मोदी फैक्टर प्रभावी नहीं हो पाता है. यहाँ सीपीआई (एम) का कैडर आधारित पकड़ मज़बूत स्थिति में है. कांग्रेस देश में बाक़ी राज्यों में सीट के लिए तरस रही है, लेकिन केरल में उसकी स्थिति काफ़ी मज़बूत है. बीजेपी की उम्मीदों को केरल में तभी पंख मिल सकता है, जब कांग्रेस या सीपीआई (एम) की स्थिति कमज़ोर हो.
मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की अगुवाई में सीपीआई (एम)...मई 2016 से केरल की सत्ता पर क़ाबिज़ है. उसी तरह से पिछली बार केरल की 20 में से अकेले 15 सीट जीतने में कांग्रेस सफल रही थी. कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ के खाते में 19 सीट गयी थी. 2014 में यूडीएफ के खाते में 12 सीट गयी थी. इनमें कांग्रेस की 8 सीट शामिल थी. एलडीएफ को खाते में 8 सीट गयी थी, जिसमें सीपीआई (एम) की 5 सीट शामिल थी. लोक सभा के लिहाज़ से केरल में कांग्रेस की दावेदारी अभी भी मज़बूत है. इस बार बीजेपी का पूरा ज़ोर कांग्रेस के इस दबदबे को ख़त्म करने पर है.
केरल की बेहतर छवि और राजनीति का संबंध
2011 की जनगणना के मुताबिक केरल की आबादी में 54.9% हिन्दू हैं. वहीं मुस्लिम 26.6% और ईसाई 18.4% हैं. केरल की गिनती भारत के सबसे ज्यादा साक्षर और जागरूक राज्य के तौर पर होती है. साक्षरता दर के मामले में केरल देश का नंबर वन राज्य है. विकास के अन्य मानकों पर केरल भारत का सबसे विकसित राज्य है. केरल मानव विकास सूचकांक में भी पहले पायदान पर है. केरल राज्यों के स्वास्थ्य सूचकांक में भी अव्वल ही रहता है. यहाँ की राजनीति बाक़ी राज्यों से अलग है. यहाँ चुनाव के दौरान धर्म और जाति की तुलना में विकास से जुड़े मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं. केरल में धर्म के नाम पर वोट का ध्रुवीकरण भी अभी तक नहीं हो पाया है.
भविष्य में केरल में बीजेपी बन सकती है विकल्प!
केरल की राजनीति में शुरू से कांग्रेस-सीपीएम का ही आधिपत्य रहा है. केरल से जुड़ी बीजेपी की उम्मीदों के पक्ष में सबसे प्रमुख और सकारात्मक पहलू यही हो सकता है. केरल के लोगों के पास कांग्रेस और वाम दलों के अलावा कोई और मज़बूत विकल्प नहीं रहा है. बीजेपी केरल में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए मेहनत कर रही है और दावेदारी भी पेश कर रही है. इससे भविष्य में विकल्प के तौर पर यहाँ बीजेपी ख़ुद को स्थापित कर सकती है, इसकी भरपूर गुंजाइश है. आगामी लोक सभा चुनाव में यहाँ बीजेपी को खाता खोलने में भी कामयाबी मिल जाती है, तो यह भविष्य में पार्टी के विस्तार के नज़रिये से महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो सकता है.
ऐसे यह भी अनोखा पहलू है कि इस बार लोक सभा चुनाव में केरल में चाहे कांग्रेस की अगुवाई में यूडीएफ की जीत हो या फिर वाम दलों के एलडीएफ की, दोनों ही परिस्थितियों में विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की ही सीट बढ़ेगी. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी सभी 42 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. ऐसे में अब पश्चिम बंगाल को छोड़ दें, तो तमिलनाडु और कर्नाटक के साथ ही केरल से ही विपक्षी गठबंधन इंडिया को सबसे अधिक सीट मिलने की संभावना है.
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