(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
जयराम से सलमान खुर्शीद तक पर वार, वफादारी-कार्यशैली पर सवाल, गुलाम नबी की 'आत्मकथा' से मच सकता है बवाल
गुलाब नबी आजाद ने अपने जीवन के सफर को 'आजाद' नाम से एक किताब की शक्ल में लिखा है. यह उनके जीवन की कहानी है. एक लेखक होने के नाते मैं इसका स्वागत करता हूं कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले राजनेता ने अपने सफर को कलमबंद किया है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को इसका फायदा मिल सके. यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हो जाता है.
गुलाम नबी आजाद, जैसा कि हम सभी जानते हैं, कांग्रेस से जुड़े रहे. उनका 55 साल का सफर रहा. उन्होंने कांग्रेस की बहुत कामयाबी-नाकामयाबी में कंट्रीब्यूशन दिया. बहुत लोगों को उम्मीद थी कि बहुत सी नई बातें आएंगी. आजाद ने यह जीवनी जो है, बहुत सलीके से लिखी है. सलीके से कहने का मतलब है कि उन्होंने अपनी राजनीति को जस्टिफाई किया है. तो, ये इस किताब की कमजोरी भी है, ताकत भी है. गुलाम नबी आजाद ने उसमें कई ऐसी बातें कहीं हैं, जो पहले हमें नहीं पता थीं. जैसे, एक पूरा चैप्टर जो उन्होंने खास तौर पर कांग्रेस की दुर्गति होने पर लिखा है, खासकर पिछले कुछ वर्षों से. इसी में उन्होंने लिखा है जो हमें पता नहीं था, वो बड़ा चौंकाने वाला लगा.
जैसे, वह कहते हैं कि जब अनुच्छेद 370 हटाने का राज्यसभा में ऐलान हो रहा था और अमित शाह जब घोषणा कर रहे थे तो आजाद अपना इयरपीस फेंककर चले गए. कांग्रेस समेत संपूर्ण विपक्ष से उन्होंने समर्थन का अनुरोध किया और हम सब जानते हैं कि वह राज्यसभा में धरने पर बैठ गए. हालांकि, जयराम रमेश जो चीफ ह्विप थे, वह अपनी जगह से हटे नहीं, बैठे रहे. अब इस बात का जयराम रमेश को खंडन करना चाहिए. अगर उन्हें लगता है कि यह तथ्यात्मक तौर पर सही नहीं है, तो वह पुरजोर खंडन करें. नहीं तो देश को बताना होगा उनको कि वह क्या सोच रहे थे.
किताब से कांग्रेस के अंदर खलबली मचा सकती है?
किताब में तो बड़ी खलबली है. हालांकि, उन्होंने अभी कांग्रेस के लिए दरवाजे बंद नहीं किए हैं. किताब में उन्होंने गांधी परिवार के ऊपर इशारों में बात की है. जैसे, देखिए हमें याद है कि जब उन्होंने पार्टी छोड़ी 2022 में तो जो चिट्ठी लिखी थी, वह बड़ी तल्ख थी. कांग्रेस सुप्रीमो पर, सोनिया गांधी, राहुल आदि सब पर तंज था. हालांकि, किताब में वह इशारों में अपनी बात करते हैं. हां, अपने सहयोगियों को उन्होंने जरूर कस कर लताड़ा है. एक प्रसंग का मैं जिक्र करना चाहूंगा. उन्होंने कड़वे मन से लिखा है कि लोगों ने पार्टी छोड़ने पर उन पर आक्षेप लगाया कि जिस सीढ़ी ने उन्हें चढ़ाया, उसी को उन्होंने गिरा दिया. गुलाम नबी खुद को सीढ़ी बताते हैं और कहते हैं कि उन्होंने कई को ऊपर चढ़ाया. वह जैसे सलमान खुर्शीद का नाम लेते हुए कहते हैं कि सलमान खुर्शीद ने जब यह बात कही तो उससे वह आहत हैं. देखने की बात है कि अब जो कांग्रेस के दूसरे नेता हैं, जैसे जयराम रमेश हैं या सलमान खुर्शीद या वेणुगोपाल, वे कुछ जवाब देते हैं या नहीं.
जीवनी से क्या संदेश देना चाहते हैं?
आजाद साहब का पूरा सम्मान है, मेरे मन में, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि जो जीवनी होती है, वह आइ, मी, माइसेल्फ पर केंद्रित होती है. मतलब, मैं कितना अच्छा हूं, मैंने कितना काम किया. अब, जैसे प्रणब मुखर्जी कहते थे. वह बोलते थे कि तीन बातें होती हैं और दो बातें बताते थे. उनसे मैं जब पूछता था कि तीसरी बात आपने बताई नहीं तो प्रणव दा हंसते थे. बोलते थे कि यही तो एक पॉलिटिशयन का काम है कि वह सारी बातों का जिक्र न करे. तो, जो परिपाटी प्रणव दा की थी, उसी को आजाद ने आगे बढ़ाया है. जैसे वह 90 के दशक का जिक्र करते हैं. बताते हैं जो यूपी-बिहार में कांग्रेस का पतन हुआ. उसी में वो कहते हैं कि जो अलाएंस यानी गठबंधन हुए, सपा से यूपी में किया, उससे कांग्रेस को नुकसान हुआ. हालांकि, वह इसमें अपनी भूमिका को गोलमोल कर जाते हैं. इसी तरह जब वह यूपीए की बात करते हैं तो बताते हैं कि सोनिया गांधी उस समय कांग्रेस अध्यक्षा होने के साथ यूपीए की चेयरपर्सन भी थीं तो उन्हें पार्टी के लिए कम समय मिला. हालांकि, उस समय पाठक जानना चाहेगा कि क्या आजाद साहब ने उस समय कोई चिट्ठी-पत्री लिखी थी, कुछ अपने स्तर पर किया था?
मौखिक रूप से कुछ सोनिया गांधी को कहा, बोले कि वह कोई एक पद छोड़ दें. तो, उस समय तो जो उनके विरोधी कहते हैं वह मलाई खाते रहे. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने रहे 2007-08 तक और फिर जब आए केंद्र की राजनीति में तो 2014 तक मिनिस्टर रहे. ये उस समय की खामोशी और अब मुखर रहना राजनीतिक पैंतरेबाजी है. ये कई अध्यायों में है. जैसे, वह आंध्र की राजनीति पर जब लिखते हैं. जब आंध्र का विभाजन हुआ तो वह लिखते हैं कि तेलंगाना के लीडर दिल्ली में रहे, तो उनको उन्होंने कहा कि राज्य जाकर कहें कि तेलंगाना कांग्रेस ने बनवाया है और इस मैसेज को देने से वे चूक गए.
इसी वजह से उनकी हार हुई.
गुलाम नबी आजाद की आगे की राह क्या है?
जिस तरह से वह इंटरव्यू दे रहे हैं, बार-बार नरेंद्र मोदी की तारीफ कर रहे हैं तो मुझे लग रहा है कि इसका संबंध कश्मीर से है. वहां चुनाव होनेवाले हैं, तो उनको भी ऐसे आदमी की जरूरत है जो कश्मीर को जानता है औऱ जिसकी नेशनल-इंटरनेशनल पहचान हो, समझदारी हो. हो सकता है गुलाम नबी उस भूमिका में खुद को पा रहे हों. अब देखिए, कश्मीर की राजनीति तो है बड़ी कठिन. एक तरफ तो उन्हें अपना जनाधार बनाना है, दूसरी तरफ उन्हें केंद्र यानी नरेंद्र मोदी और भाजपा की गुड बुक में रहना है. हालांकि, वह अधिक झुके दिखेंगे तो कश्मीर घाटी में उन्हें वैसा समर्थन नहीं मिलेगा. यह बड़ी मुश्किल राह है. वह कभी 370 के बारे में कुछ कहते हैं, कभी कुछ कहते हैं. तो, गुलाम नबी के भविष्य को ये बातें मुश्किल बनाती हैं.
एक बात और मैं कहूंगा कि वह कांग्रेस के बड़े अच्छे मैनेजर थे. वह इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, संजय गांधी या राहुल गांधी जो भी कांग्रेस के सर्वेसर्वा रहे, पी वी नरसिंह राव, सीताराम केसरी रहे, उनके साथ आजाद के अच्छे संबंध रहे. वह लीडर नहीं हैं, मैनेजर हैं. जैसे आप राहुल को देखिए. वह सावरकर के बारे में साफ बात बोलते हैं, उसके लिए कोर्ट-कचहरी जाते है. क्षेत्रीय नेता जैसे ममता बनर्जी हैं या और भी कोई, वे भी सीधी बात करते हैं. आजाद साहब जो हैं, वो जलेबी आज तक छानते आए हैं. इसलिए, अब स्टैंड लेने वाली भूमिका में उनके साथ गड़बड़ होती है. उनकी मानसिकता शीर्ष नेतृत्व की तरफ देखकर राजनीति करने की रही है. आज जब खुद उनको लीडर बनना है, तो वो उसमें थोड़े मिसफिट नजर आते हैं.
[ये आर्टिकल रशीद किदवई जी के निजी विचारों पर आधारित है.]