सत्तर और अस्सी के दशक में जब मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों का हर दूसरा हीरो सिल्वर स्क्रीन पर आग उगल रहा था, तब उन्हीं के बीच कभी-कभार एक चेहरा ऐसा भी नजर आ जाता था, जो शांत, सौम्य और आंखों से बोलते हुए अपने किरदार को जीवंत बना देता था. अस्सी के दशक में आई 'स्वामी' फिल्म का वह शादी के फेरों और विदाई वाला दृश्य भुलाए नहीं भूलता, जिसमें दुल्हन बनी शबाना आजमी अपने पहले वाले प्यार की उधेड़बुन में डूबी हैं और दूल्हा बने उस अभिनेता का सहज सहानुभूति भरा भाव दर्शकों के मन में बस जाता है.
याद आता है 1975 में आई फिल्म 'निशांत' में गांव का वो अनाम, अकेला और असहाय स्कूल मास्टर, जिसकी पत्नी (शबाना आज़मी) को जमींदार का शादीशुदा जवान बेटा (नसीरुद्दीन शाह) अगवा कर ले गया है. 1976 में आई 'मंथन' के उस आदर्शवादी डॉक्टर राव को भला कौन भूल सकता है, जो गांव वालों को दूध का सही दाम दिलाना चाहता है और उस पर भरोसा करने वाली एक परित्यक्ता ग्रामीण महिला बिंदु (स्मिता पाटिल) के साथ मिलकर कॉपरेटिव मूवमेंट की नींव रखता है. लेस्बियन रिश्तों पर अप्रत्यक्ष रूप से बात करने वाली 1982 की मराठी फिल्म उम्बरठा में पत्नी को घर की चारदीवारी में कैद करने वाले वकील पति की याद अब भी ताजा है.
'इकबाल' फिल्म का वह क्रिकेट कोच तो याद ही होगा, जो एक मूक बधिर बच्चे के क्रिकेटिंग हुनर को तो पहचानता है, लेकिन पैसे और ईष्या के आगे उसे कुछ दिखाई नहीं देता. आज की पीढ़ी उन्हें 'डोर' फिल्म के ससुर और 'टाइगर जिंदा है' फिल्म के डॉक्टर शिनॉय के किरदार से याद रखती होगी, लेकिन जो लोग 80 और 90 के दशक में बड़े हुए हैं वे दूरदर्शन के धारावाहिक 'मालगुड़ी डेज' और उसके मुख्य बाल किरदार स्वामी के पिता को आजीवन नहीं भूल सकते.
यह एक ऐसा अभिनेता था, जो नेगेटिव या पॉजिटिव रोल के चक्कर में नहीं पड़ता था बल्कि हर तरह के रोल को परदे पर जीवंत बना देता था. जी हां, वह अभिनेता थे गिरीश कर्नाड, जिनके निधन से नाट्यलेखन, निर्देशन और अभिनय की दुनिया थोड़ी और गरीब हो गई है. गरीब इस मायने में कि गिरीश कर्नाड फिल्मों के परदे पर भले ही कोई क्रांति करते नजर नहीं आते थे लेकिन सामाजिक जीवन में उनका स्टैंड किसी क्रांति से कम नहीं था. उनके इसी निर्भीक स्टैंड की वजह से हर विधा के बुद्धिजीवियों को सरकारी छद्म से लड़ने का हौसला मिलता था.
उन्होंने साल 2003 में कर्नाटक के चिगमंगलूर जिले में लेखकों के एक समूह का नेतृत्व किया था, जो बांबाबुदंगिरी पहाड़ियों पर बने तीर्थस्थल पर दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करने के संघ परिवार के प्रयासों का विरोध करता था. वह पारंपरिक सांचे में ढले व्यक्ति नहीं थे. मौलिक रूप से कर्नाड भारतीय समाज की ऐसी शख़्सियत थे जो जीवंत लोकतंत्र में यकीन रखता था. वो हर उस शासन या संस्था का विरोध करते थे जो प्रतिगामी रुख अपनाती थी.
मुंबई के एक साहित्य सम्मेलन में उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल को लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार सम्मान दिए जाने के लिए आयोजकों की आलोचना की थी. कर्नाड का मानना था कि नायपॉल ने ऐसा कोई भी मौका नहीं छोड़ा जब वह मुसलमानों के खिलाफ न दिखे हों और मुसलमानों पर पांच शताब्दियों तक भारत में बर्बरता करने का आरोप न लगाया हो.
गिरीश कर्नाड बेहद जहीन और उच्च शिक्षित व्यक्ति थे. उन्होंने इग्लैंड में दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई की थी. वह अमेरिका भी गए और यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में पढ़ाया भी, लेकिन किसी राजनीतिक दल का पक्ष लिए बिना वह अपने विचारों को व्यक्त करने में कतई नहीं हिचकिचाते थे, फिर चाहे केंद्र की सत्ता में इंदिरा गांधी की सरकार रही हो, अटल बिहारी वाजपेयी की हो, मनमोहन सिंह की या मोदी की हो. उन्हें मजबूत व स्पष्ट सोच वाला कबीरधर्मा सामाजिक कार्यकर्ता कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी.
इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल का विरोध करते हुए उन्होंने एफटीआईआई के निदेशक पद से एक झटके में इस्तीफा दे दिया था. उनसे तत्कालीन सरकार के प्रमुख नेताओं की प्रशंसा में फिल्में बनाने को कहा गया था, जिससे उन्होंने साफ इंकार कर दिया था. केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता पर अयोध्या में एक सम्मेलन आयोजित किया था, जबकि बाबरी ढांचा ढहने के बाद केंद्र में उनके मित्र अटल जी की सरकार थी.
2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक बाद एक ऑनलाइन वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कर्नाड ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार चलाने में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'कमजोर दिलवाला' बताया था. पत्रकार गौरी लंकेश की पहली बरसी पर उन्होंने मौन प्रदर्शन किया था. इस दौरान वो नाक में ऑक्सीजन की पाइप और गले में एक प्लेकार्ड पहने दिखाई दिए थे, जिसमें लिखा था 'मैं भी शहरी नक्सल'. उनका तर्क एकदम स्पष्ट था कि अगर खिलाफ बोलने का मतलब नक्सल है, तो वह भी शहरी नक्सल हैं. गोहत्या के नाम पर हो रही मॉब लिंचिंग के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन ‘नॉट इन माय नेम’ की अगुवाई करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था- “हमारा एक संविधान है, कानून व्यवस्था है और इसके बावजूद अगर यह सब हो रहा है तो यह भवायह है. हम जानते हैं कि यह क्यों हो रहा है, यह धार्मिक नहीं राजनीतिक है.”
कर्नाड ने अपना पहला नाटक 'ययाति' ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई करते वक्त 1961 में लिखा था. इसके बाद महज 26 साल की उम्र में साल 1964 के दौरान उन्होंने अपना दूसरा नाटक 'तुगलक' लिखा, जो रंगमंच की दुनिया में मील का पत्थर बन गया. 1972 में हयवदन और 1988 में नागमंडल की रचना हुई. लेकिन उनके के अभिनय की शुरुआत यूआर अनन्तमूर्ति के एक उपन्यास पर आधारित 1970 में आई क्लासिक फिल्म 'संस्कार' से हुई थी. आगे चलकर वे न सिर्फ हिंदी फिल्मों के समानांतर सिनेमा में, बल्कि कई भाषाओं में मुख्यधारा की फिल्मों में अपनी उल्लेखनीय भूमिकाओं के लिए जाने और सराहे गए.
कर्नाड की सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर प्रतिबद्धता बड़े पैमाने पर इतिहास के उनके गहन अध्ययन का विस्तार थी, जहां उन्होंने चिंतन किया और 'तुगलक', 'द ड्रीम्स ऑफ टीपू सुल्तान' और 'ताले डंडा' जैसे नाटक लिखे. उन्होंने अपने नाटकों के लिए ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं तथा मिथकों का विषय के रूप में इस्तेमाल किया और उन्हें समकालीनता प्रदान करते हुए रंगमंच में एक क्रांति पैदा की. जब 1991 में लोगों ने उन्हें एक साइंस प्रोग्राम 'टर्निंग प्वाइंट' में देखा तो हैरान रह गए, जिसमें प्रोफेसर यशपाल साइंस से जुड़े मुश्किल सवालों को बड़ी ही आसानी से समझाया करते थे.
गिरीश कर्नाड ऐतिहासिक कथानकों की पृष्ठभूमि पर भविष्य का अहसास कराने वाले नाटककार थे. जहां 'तुगलक' में उन्होंने एक सनकी बादशाह की विफलताओं के दृश्य से आजादी के बाद के भारत की राजनीति को रेखांकित करने की कोशिश की, वहीं ययाति तथा अग्नि और बरखा में उन्होंने मानवीय आकांक्षाओं का समकालीन संदर्भ में प्रतिबिंब दिखाया. कर्नाड मानते थे कि आधुनिक जीवन की विसंगतियों को भूतकाल के मिथकों द्वारा जिस तरह से समझाया जा सकता है, वैसे आधुनिक परिस्थितियों से समझाना मुश्किल है.
उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1992 में कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और कालिदास सम्मान से नवाजा गया. भारत सरकार ने 1974 में पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण सम्मान दिया लेकिन दूसरी ओर अपनी बेबाक अभिव्यक्ति को लेकर वह अक्सर वह रूढ़िवादियों के निशाने पर रहे. कई बार उन्हें दुनिया से मिटाने की धमकियां भी दी गईं. लेकिन 81 वर्ष की अवस्था तक भी वह कभी विचलित नहीं हुए. आज कर्नाड दुनिया में नहीं हैं, लेकिन साहित्य, सिनेमा और रंगमंच को प्रतिरोध का जो व्याकरण वह सिखा गए हैं, उसे भला कौन मिटा सकता है.
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