भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर वैश्विक रेटिंग एजेंसियां पूर्वाग्रह और औपनिवेशिक मानसिकता से हैं ग्रस्त, हमारी इकोनॉमी कर रही है बेहतर
![भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर वैश्विक रेटिंग एजेंसियां पूर्वाग्रह और औपनिवेशिक मानसिकता से हैं ग्रस्त, हमारी इकोनॉमी कर रही है बेहतर Global rating agencies are suffering from prejudice and colonial mentality regarding Indian economy भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर वैश्विक रेटिंग एजेंसियां पूर्वाग्रह और औपनिवेशिक मानसिकता से हैं ग्रस्त, हमारी इकोनॉमी कर रही है बेहतर](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2023/06/17/102a799428e2d49534251429d3045c501686993386590702_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
भारत में राजनीतिक दल अक्सर वैश्विक एजेंसियों की रेटिंग का हवाला देते है. अक्सर ही इकोनॉमी से लेकर प्रेस-फ्रीडम या हैप्पीनेस इंडेक्स तक का हवाला देकर सत्ता पक्ष पर विपक्षी पार्टियां हमला करती हैं. हालांकि, कई बार इनकी रेटिंग्स भी विवादित हो जाती है. खासकर, तब जब इकोनॉमी के मामले में श्रीलंका या अफगानिस्तान को भारत से बेहतर बता दिया जाए या हैप्पीनेस इंडेक्स में इनका स्थान भारत से ऊपर कर दिया जाए. रेटिंग्स कुल मिलाकर विवादों का माध्यम बन गए हैं या नहीं, यह तो अलग विषय है, लेकिन इन पर बहस होने लगी है, इतना तो तय है.
रेटिंग एजेंसियां पूर्वाग्रह से ग्रस्त
रेटिंग एक ऐसा प्रमाणपत्र है, जो ग्लोबल एजेंसियां जारी करती हैं. अब ये ग्लोबल एजेंसी कौन हैं, इन्हें कौन चलाता है, किनका इसमें स्टेक है? रेटिंग एक तरह से उस बच्चे के फेल-पास करने का सर्टिफिकेट है, जो ये एजेंसी देती है.
अब एजेंसी तो बाहरी है, एक्सटर्नल है, कोई हमारी तो है नहीं. यह कमोबेश पश्चिमी देशों और मीडिया द्वारा संचालित और शासित है, जिनके अपने पूर्वाग्रह हैं. वहां लोग बैठे हैं, जिनको लगता है कि अरे, ये कैसे इतना अच्छा कर सकता है, इंडिया इतना आगे कैसे हो सकता है, इसकी इकोनॉमी इतनी बेहतर कैसे हो सकती है, ये तो तीसरी दुनिया का देश है, वगैरह-वगैरह.
इसका एक सीधा सा गणित तो यह देख सकते हैं कि रेटिंग में जो दो-तीन पैरामीटर (पैमाना) है, उनमें एक डेट यानी कर्ज वाला भी मसला होता है. इंडिया के बारे में भी कहा जाता है कि हमारा फिस्कल यानी राजकोषीय घाटा है, वो बहुत अधिक है. हमारे राजस्व यानी रेवेन्यू की तुलना में. लोग यह मानते हैं कि यह किसी भी देश के लिए अच्छा नहीं है. हालांकि, भारत जैसे देश के लिए यह बहुत जरूरी है और इसका फायदा भी होता है. यह दिख भी रहा है. हम वेलफेयर स्टेट (लोककल्याणकारी राज्य) हैं, तो हमारे लिए यह बहुत आवश्यक है.
इसी का एक दूसरा उदाहरण है. ग्रीस और इटली दोनों देश ऐसे हैं, जो डिफॉल्ट हो गए. उनका कर्ज इतना बढ़ गया कि वे चुका नहीं पाए. फिर भी, वे सूची में भारत से ऊपर हैं. तो, ये कैसे हो गया...लेकिन, दुनिया किसी तरह की वस्तुनिष्ठता या ऑब्जेक्टिविटी से नहीं चलती, सब्जेक्टिविटी यानी विषयनिष्ठता से चलती है. उनके अपने पूर्वाग्रह हैं. यह एक-दो दिनों की बात है नहीं. पूर्वाग्रह लंबे समय में बनता है और जाने में भी काफी टाइम लगता है.
औपनिवेशिक मानसिकता से करते हैं काम
इसे 'ह्वाइट मैन्स बर्डन सिंड्रोम' तो नहीं कहेंगे, हां यह औपनिवेशिक पूर्वाग्रह जरूर कहेंगे, जो उनके दिमाग में बैठा हुआ है और वो जा नहीं रहा है. इसके अलावा एक बात और है. 'पर्सनल वेंडेटा' के लिए भी लोग कई बार इस तरह का काम करते हैं. बड़े-बड़े जर्नल में वे कहने को कॉलमनिस्ट हैं, जर्नलिस्ट हैं. उनके हिसाब से अगर प्रधानमंत्री में खराबी है, तो फिर देश में भी खराबी है. हालांकि, ऐसा होता नहीं. व्यक्ति और देश तो अलग होते हैं. कई बार उनको लगता है कि अगर वे देश की तारीफ कर देंगे, तो फिर पीएम की भी तारीफ हो जाएगी. वे ऐसा ही करते हैं. ये दोनों अलग हैं, इसको समझना चाहिए.
एजेंडा-ड्रिवेन जो जर्नलिस्ट हैं, वे बहुत ताकतवर हैं, बडे-बड़े लोगों के बीच उठते-बैठते हैं. पश्चिमी देशों में वे इंडिया के बारे में परसेप्शन बनाते हैं, तो पश्चिमी देशोें के पास वही एक लेंस होता है, वे यहां आकर अगर दो-तीन महीने बिताकर काम करें, तो फर्क दिखता है. इकोनॉमिस्ट में अभी आप देख सकते हैं, पिछले महीने एक रिपोर्ट आयी है. वह बहुत संतुलित है. धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा है, लेकिन लोग उसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. क्या यह वही इंडिया है, इतना परिवर्तन इसमें कैसे आ गया?
भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य बेहतरीन
भारतीय अर्थव्यवस्था की जहां तक बात है, तो भविष्य बहुत उज्ज्वल है. अर्थव्यवस्था का पहला पैमाना आर्थिक विकास है. यह दिखलाता है कि आपके व्यापार की गतिविधियां क्या-क्या हो रही हैं, माहौल कैसा है? इसमें भी यह देखना पड़ता है कि जीडीपी ग्रोथ जो बताया जा रहा है, वह किस कंपोनेंट यानी कारक से आ रहा है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में यह दिख रहा है कि लोग खर्च कर रहे हैं. लोग खर्च करेंगे, तो बिजनेस बढ़ेगा, फिर संसाधनों का इस्तेमाल होगा और संपूर्ण इकोनॉमी को फायदा मिलेगा. हमारा घरेलू बाजार इतना बडा है कि इसी को संभालने में हमारी इकोनॉमी व्यस्त है. दूसरी बात ये है कि अनौपचारिकता हमारी ताकत है. हमारी इकोनॉमी चूंकि इनफॉर्मल है, तो मामला ठीक चल रहा है. वह एक तरह का रिजिलियंस, प्रतिरोधक क्षमता देता है. किसी भी क्राइसिस से उभरने के लिए यह काम आता है.
विश्व जो एक गांव था, वह हमने कोरोना काल में देख लिया. किस तरह से देश स्वार्थी हुए, कंपनियां किस तरह से बदलीं, वह बदल गया. पूरा जो प्रोडक्शन चेन था, वह बदल गया. आप पहले कुछ कहीं बनाते थे, कुछ और कहीं और फिर उसको एसेंबल करते थे. अब लोग प्लान बी और प्लान सी के लिए सोचते हैं. कोरोना में जो सप्लाई चेन टूटा, वैश्विक स्तर पर वह एक तरह से 'ब्लेसिंग इन डिसगाइज' ही था.
जो लोग पहले काम के प्रभावी होने पर जोर देते थे, अब 'शॉक' फैक्टर को भी ध्यान में रखते हैं. पहले के 'जस्ट इन टाइम' यानी प्रभावी बनने की जगह 'जस्ट इन केस' यानी अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा, पर शिफ्ट हो गया है. अब लोग कदम फूंककर चल रहे हैं. एक्सटर्नल फैक्टर पर हमारी अर्थव्यवस्था आश्रित नहीं है, इसलिए भी हम बचे हुए हैं.
हम अभी ट्रांजिशन के चरण में
हमारा देश अभी पूरी तरह विकसित नहीं है. हम अभी ट्रांजिशन के चरण में हैं. हमारे यहां कार्ड भी चल रहा है, कैश भी. हां, डिजिटलाइजेशन हुआ है, लेकिन लोग तो वही हैं. लोगों की आदत तो बदली है, कंपनियों ने लोगों की आदतों को भुनाया भी है, लेकिन हमलोग संस्थागत तौर पर बहुत रूढि़वादी भी हैं.
हम लोग बचत में यकीन करते ही हैं. कोविड से हमलोग इसीलिए जल्दी उबर गए. अभी आप चीन को देखिए तो उसकी हालत बद से बदतर होती जा रही है. जहां तक सरकार के ऊपर कर्ज की बात है, तो उसको समझना पड़ेगा कि क्या कर्ज लेकर हम बैठ गए हैं..नहीं, वह कर्ज हमारी इकोनॉमी में दोबारा आ गया है. जैसे, सरकार का जो खर्च है. वह सब्सिडी पर दे रही है, कैश ट्रांसफर कर रही है, ये सब कुछ कर्ज ही है, लेकिन वह घूम रहा है. कई जगह पर सब्सिडी ट्रांसफर हो रहा है.
आप अपने आसपास देखिएगा तो जो वर्ल्ड बैंक की परिभाषा है, वैसा 'गरीब' बहुत दिखता नहीं है. लोग खर्च कर रहे हैं. लोगों की बेसिक नीड्स का खयाल रखा गया है. कर्ज तो तब गलत हो जाता है, जब वह अनुत्पादक हो, अनप्रोडक्टिव हो, वह जब संसाधनों में, पूरे आर्थिक चक्र में शामिल हो गया, तो सस्टेनेबल पार्ट में शामिल हो गया, उस पर चिंतित होने की जरूरत नहीं है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]
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