अभी-अभी ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में इको-समिट हुआ. इसमें दुनिया भर के विशेषज्ञों ने इकट्ठा होकर मंथन किया. विकसित और विकासशील देशों के भी वैज्ञानिक वहां थे, समुद्र से लेकर पहाड़ और नदियों तक, यानी हमारे वातावरण में जो भी वैसे तत्व जो पर्यावरण को प्रभावित कर सकते हैं, उन पर चर्चा हुई. आज विकसित देश भी पीड़ित हैं. विनाश के सबसे बड़े रिसेप्टर भी वही बन चुके हैं. उन्होंने जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है, उससे जलवायु परिवर्तन उनके घर तक पहुंच चुका है, उनके दैनिक जीवन को भी प्रभावित कर रहा है, उनके आर्थिक विकास को तो प्रभावित कर ही रहा है. उनके शहर जो काफी विकसित हैं, साफ-सुथरे हैं, वे भी प्राकृतिक संसाधनों से वंचित हो चुके हैं, हो रहे हैं, उनका कोरल रीफ नष्टप्राय है, जलमार्ग से आवागमन प्रभावित है और इसीलिए वे क्लाइमेट-फाइनेंसिंग पर फोकस कर रहे हैं. लगभग इसी समय पेरिस में क्लाइमेट-फाइनेंसिंग पर भी विश्वस्तरीय कांफ्रेंस भी इसी वजह से हुई.
मौसम का अतिवादी रुख चिंतनीय
हमने जमीन का सदुपयोग नहीं किया. जो भूमि-उपयोग होना चाहिए, उस पर हमने काम नहीं किया. विकसित देशों ने थोड़ा काम इस पर किया है. उनके शहर, उनके ग्रामीण हिस्से, उनके प्राकृतिक हिस्से बहुत ही सिंक्रोनाइज्ड हैं, लेकिन विकासशील देशों को इस पर काम करना है. हालांकि, विकसित देश ग्लोबल वॉर्मिंग से अधिक प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि इस ग्रह पर उनकी भौगोलिक स्थित ही ऐसी है, लोकेशन ही ऐसी है. धरती की अगर कैरिइंग-कैपेसिटी (जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों का अनुपात) कम हो रही है, तो वह कहीं न कहीं तो दिखेगा ही.
एक्स्ट्रीम वेदर पैटर्न या मौसम का अतिवादी रुख इसी का परिणाम है. हमने दरअसल आज तक बैंड-एड सॉल्यूशन दिया है, फौरी राहत दी है, कोई दीर्घकालीन योजना नहीं सोची है, जो जल्द से जल्द होनी चाहिए. खुशकिस्मती से अभी हमारे देश में जी20 की बैठकें हो रही हैं. वहां तो यह एजेंडा का मुख्य बिंदु होना चाहिए. वहां यह चर्चा होनी चाहिए कि गरीब देशों को किस तरह फंड मुहैया कराया जाए, ताकि वे क्लाइमेट फाइनेंसिग के लिए तैयार हो सकें. विकासशील और विकसित देशों के बीच एक सुर बनना चाहिए, ताकि हम मिलकर इसका सामना कर सकें.
दुनिया को है खतरे का अहसास, मिलकर करना होगा काम
दूसरे विश्व युद्ध के बाद आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक की स्थापना हुई थी, क्योंकि लड़ाई में जो देश तबाह हुए थे, उनको फिर से ठीक करने के लिए युद्धस्तर पर काम करने और वित्त की जरूरत थी. ठीक उसी तरह, आज वर्ल्ड बैंक और उस तरह की व्यवस्था को आगे बढ़कर क्लाइमेट-क्राइसिस से निबटने के लिए क्लाइमेट-फाइनेंसिंग करनी होगी. पेरिस में अभी पिछले हफ्ते क्लाइमेट-फाइनेंसिंग पर जो वर्ल्ड-कांफ्रेंस में उन पांच चीजों पर चर्चा हुई है, जो नवंबर 2022 में शर्म-अल-शेख में कोप27 के लिए तय हुई थीं. इसमें पांच बिंदु टेकअवे के तौर पर सारे राष्ट्राध्यक्ष अपने साथ ले गए थे. इसमें यह तय हुआ था कि लॉस और डैमेज को बहुत ढंग से देखा जाए, जो क्लाइमेट-चेंज के चलते हुआ है, उसको हमें रिस्टोर करना है और विश्व के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सी ही रखना है.
साथ ही, बिजनेस को उत्तरदायी बनाना है, और वही पेरिस में भी देखने को मिला है. विकासशील देशों को पारदर्शी, ईमानदार तरीके से सपोर्ट करने की बात थी औऱ पांचवीं चीज जो थी, वह कार्यान्वयन यानी इम्प्लिमेंटेशन की थी. क्लाइमेट-फाइनेंसिंग मॉडल पर बहुत विस्तार से पेरिस में चर्चा हुई और उसको आगे बढ़ाने की बात भी हुई है. विकासशील देशों में एक बारबेडास की प्रधानमंत्री ने इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं.
विकसित देश पूरा करें अपना वादा
विकसित देशों का व्यवहार लगभग दोहरा रहा है. वे आइवाश करते हैं. उन्होंने क्लाइमेट फाइनेंसिंग का जिक्र शुरू कर दिया है और वे 2030 तक दोहराते रहेंगे, लेकिन दूसरी तरफ वो जीवाश्म आधारित उद्योगों पर कब्जा कर पूरी दुनिया पर छाना चाहते हैं. लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में आप ये देख सकते हैं. अभी युगांडा में फ्रांस की कंपनी टोटलएनर्जीज काम कर रही है, वह ऑयल बेस्ड पर काम करती है, इस कांफ्रेंस से तुरंत पहले 870 माइन्स का वहां प्रबंधन करने का काम किया है.
विकसित देश नहीं चाहते हैं कि ब्राजील औऱ भारत जैसे देश इस सेक्टर में आएं, बस वे मुनाफा कमाते रहें. यह बहुत ही चिंता की बात है. हालांकि, यह भी एक बात है कि विकसित देश अपने कारनामों से ही खुद परेशान हैं. ऑस्ट्रेलिया का ग्रेट बैरियर रीफ तबाह हो चुका है, अमेरिका के कई ऐतिहासिक स्थान डूब सकते हैं आनेवाले वर्षों में, तो विकसित देशों को सुधरना होगा औऱ अपना वादा पूरी ईमानदारी से पूरा करना होगा, वरना दुनिया की तबाही में बहुत अधिक समय नहीं बचा है.
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