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गोवा चुनाव: समंदर वाले प्रदेश में भगवा लहराने वाले पर्रिकर के बेटे को क्यों नहीं मिला टिकट?

Goa Assembly Election 2022: समंदर वाले प्रदेश गोवा की चुनावी सियासत में एक ऐसा उफान आया है, जो बताता है कि बीजेपी को दोबारा सत्ता में वापसी करने का ओवर कॉन्फिडेंस है, लेकिन ये दांव उल्टा पड़ने के खतरे भी हैं. गोवा में बीजेपी को स्थापित करने और वहां पहली बार भगवा पार्टी की सरकार बनाने वाले मनोहर पर्रिकर के इस दुनिया से चले जाने के बाद पार्टी ने उनके परिवार को एक तरह से हाशिये पर धकेल दिया है. पार्टी के फैसले से इसका साफ संकेत मिल चुका है.

पर्रिकर गोवा के मुख्यमंत्री तो रहे ही, साथ ही देश के रक्षा मंत्री भी रह चुके हैं. पिता की राजनीतिक विरासत को जिंदा रखने और उसे आगे बढ़ाने के लिए उनके बेटे उत्पल पर्रिकर ने उस पणजी सीट से टिकट मांगा था,जहां से उनके पिता लगातार छह बार विधायक चुने गए. बीजेपी नेतृत्व ने उनकी इस फरमाइश को एक ही झटके में ठुकरा दिया और दो ऐसी सीटों से चुनाव लड़ने का विकल्प दे डाला, जहां न पार्टी का जनाधर है और न ही खुद उनका.

उत्पल ने अपने पिता के आदर्शों और नैतिकता के उसूलों को अपनाते हुए दल बदलने की अवसरवादिता का सहारा नहीं लिया, बल्कि ये ऐलान कर दिया कि वे पणजी से ही निर्दलीय उम्मीदवार के बतौर चुनाव लड़ेंगे. टिकट पाने और चुनाव जीतकर बेतहाशा दौलत कमाने की भूख के पीछे दौड़ रही मौजूदा राजनीति में इसे ईमानदारी की मिसाल ही समझा जायेगा, जिसकी तारीफ भी की जानी चाहिए. शायद इसीलिए उत्पल ने आज अपने पिता की पारंपरिक सीट से ही चुनाव लड़ने का एलान करते हुए साफ कर दिया कि मैं सत्ता या किसी पद के लिए नहीं लड़ रहा हूं. मैं अपने पिता के मूल्यों के लिए लड़ रहा हूं, BJP के पुराने कार्यकर्ता मेरे साथ हैं."

हालांकि गोवा के विधानसभा चुनाव में पहली बार कूदने वाली आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने इस फैसले से पहले ही उत्पल को अपनी पार्टी से टिकट देने का ऑफर भी दिया था. यहां तक कि आम आदमी पार्टी के गोवा उपाध्यक्ष वाल्मीकि नाईक ने भी ये कह दिया था कि "अगर उत्पल पर्रिकर पणजी सीट से 'आप' के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहते है तो मैं उनके लिए अपनी उम्मीदवारी छोड़ने को तैयार हूं." वैसे गोवा में आप तो पहली बार चुनावी-मैदान में उतरी है, लेकिन ममता बनर्जी की टीएमसी वहां पहले से मौजूद है और उसका एक विधायक भी है. अगर ममता और केजरीवाल सही मायने में बीजेपी को अपना कट्टर विरोधी मानते हैं तो सियासत का उसूल तो ये कहता है कि उन्हें उत्पल पर्रिकर के समर्थन में पणजी सीट से अपनी पार्टी का उम्मीदवार ही नहीं खड़ा करना चाहिए.

उत्पल को पिता की पारंपरिक सीट से टिकट न दिए जाने के पीछे बड़ी अजीब दलील दी जा रही है. गोवा के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने एक न्यूज चैनल से बातचीत में ये तो स्वीकार किया कि मनोहर पर्रिकर गोवा में सत्तारूढ़ बीजेपी के सबसे बड़े नेता थे, लेकिन उन्होंने घोषित किया कि उनके बेटे उत्पल को "भाजपा के साथ काम करना चाहिए, सीखना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिए". राणे ने कहा, "सिर्फ इसलिए कि आप किसी के बेटे हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि आपको टिकट मिलेगा. विरासत को आगे बढ़ाने का मतलब यह नहीं है कि टिकट दिया ही जाएगा." 

इससे बीजेपी की दोहरी या जिसे कहें कि टिकट बांटने की विरोधाभासी नीति उजागर होती है. यूपी के चुनाव में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को नोएडा से दोबारा टिकट दिया जाता है तो वहीं पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत कल्याण सिंह के पोते संदीप सिंह को उनकी पारंपरिक अतरौली सीट से चुनाव-मैदान में उतारा जाता है. इसलिये सवाल उठता है कि फिर मनोहर पर्रिकर के परिवार के साथ ही यह भेदभाव क्यों किया गया?

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पांच साल पहले भी राजनाथ केंद्र में मंत्री थे और आज भी हैं. तब भी उनके दबाव में ही पार्टी ने बेटे को टिकट दिया था. जहां तक कल्याण सिंह के पोते की बात है तो उनके जिंदा रहते हुए ही संदीप सिंह ने खुद को राजनीतिक रुप से स्थापित कर लिया था. वैसे भी कल्याण परिवार के अलावा किसी और को अगर पार्टी टिकट देती भी तो खुद संदीप ही उसे हरवा देते, जबकि उत्पल को टिकट दिलवाने के लिए न तो मनोहर पर्रिकर इस दुनिया में है और दूसरा पार्टी के स्थानीय नेताओं को ये गुमान है कि उत्पल की इतनी हैसियत नहीं कि वे बीजेपी उम्मीदवार को हरवा सकें. शायद यही वजह है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने भी उत्पल की बात को कोई तवज्जो नहीं दी.

वैसे यह बताना भी जरुरी है कि पणजी से मौजूदा विधायक अतनासियो मोंटेसेरेट कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए मनोहर पर्रिकर के निधन के बाद 2019 के उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत दर्ज की थी, लेकिन बाद में वे बीजेपी में शामिल हो गए. उपचुनाव में भी ऐन वक्त पर बीजेपी ने उत्पल को टिकट देने से इंकार कर दिया था. तब वे खामोश रहे, लेकिन बताते हैं कि पिछले तीन सालों से वे मौजूदा विधायक के कथित भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर पार्टी नेतृत्व को नसीहत देते रहे हैं. अपने साथ हुई नाइंसाफी को लेकर इस बार वे अपने दम पर चुनाव-मैदान में उतरते हैं तो जाहिर है कि 40 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव में सबसे ज्यादा रोचक और कांटे का मुकाबला पणजी सीट पर ही होगा. 

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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