हाल ही में आए ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एडुकेशन (AISHE) के आंकड़े हमें बताते हैं कि मुस्लिम स्टूडेंट्स का नामांकन 2019-20 के मुकाबले 8 फीसदी तक घट गया है. इसको अगर संख्या में बदलें तो यह 1,79,147 की होगी. यह हालिया वर्षों में किसी भी समुदाय के लिए सबसे बड़ी गिरावट है. दूसरी तरफ दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के नामांकन में क्रमशः 4.2 प्रतिशत, 11.9 फीसदी और 4 प्रतिशत की वृद्धि 2019-20 के मुकाबले हुई है.
सरकार की ओर से नहीं मिल रही तवज्जो
मुसलमानों के नामांकन में अगर 1 फीसदी भी कमी आई है, तो ये बहुत है. वैसे यह आंकड़े भी कम बताए जा रहे हैं. सच पूछिए तो संख्या कहीं और अधिक होगी. इसकी हम सभी को, पूरे देश को, पूरे समाज को बहुत अधिक चिंता करनी है. यह बहुत बड़ा मसला है पूरी कम्युनिटी के लिए. हुआ ये है कि पिछले 70-75 वर्षों में ये समुदाय और पिछड़ता गया और पिछड़ता ही चला जा रहा है. इसका कोई उपाय भी नहीं दिख रहा है. एक उपाय था जो स्कॉलरशिप का, उसे भी सरकार ने फिलहाल बंद कर दिया है. सरकार की तरफ से उतनी तवज्जों नहीं दी जा रही है, जितनी देनी चाहिए. बात करने की बात और है. यह बिल्कुल अलहदा बात है कि बारहां कहा जाता है कि माइनॉरिटी कम्युनिटी का अपीज़मेंट किया जा रहा है. यह बात स्टैटिस्टिकली बिल्कुल भी सही नहीं है. हां, आप झूठ को हजार बार दोहराएंगे तो वो सच बन ही जाएगा. पूरी दुनिया में 'अफरमेटिव एक्शन' का एक कॉन्सेप्ट है. जो अल्पसंख्यक या कमजोर समुदाय होते हैं, जैसे हमारे यहां जैसे दलित हैं, आदिवासी हैं जो दशकों से पिछड़े हैं, उनके लिए एक अफर्मेटिव एक्शन लिया जाता है. उसी तरह अल्पसंख्यक समुदाय के लिए भी लिया जाता है, लेकिन पिछले 10 साल में धीरे-धीरे जो कुछ भी था, वह भी कम होता जा रहा है. इसके परिणाम घातक होंगे. इसका शुरू में तो एक अलग जोश रहता है कि हमने सब खत्म कर दिया, सब इंसान बराबर हो गए, लेकिन सच्चाई ये है कि सब बराबर नहीं हैं. उनको बराबर लाने की कोशिश करना हम सब की जिम्मेदारी है.
यह बात दुखद है कि 20-25 करोड़ जिस समुदाय की आबादी है, वह शिक्षा से लाभान्वित न हो. इससे भला किसका फायदा होगा, इससे जो समाज में भेदभाव पैदा होगा और अगर ये समाज सरकार पर अपना कॉन्फिडेन्स खो दे कि सरकार ये जो है, वह हमारे लिए कुछ नहीं करेगी, तो वह कितना गलत होगा. हमारे पीएम जैसा कहते हैं, 'सबका साथ, सबका विकास', तो वो साबित करना होगा. महज ये कहना कि हमने गैस सिलेंडर दे दिया, काफी नहीं है. इन लोगों को तो निकालना पड़ेगा.
मदरसों-मुसलमानों के बारे में गलत धारणाएं
एक आरोप ये भी है कि मदरसों में पढ़ाई केवल मजहबी होती है. हम तो अभी 'अलायंस फॉर इकनॉमिक एम्पावरमेंट ऑफ अंडरप्रिविलेज्ड' के तहत घूम रहे हैं, पूरे देश में देखा है मदरसों को. हम हर तरह के मदरसों में जाकर बातचीत करते हैं. आज का मदरसा वह नहीं है जो आज से 10-15 साल पहले थे. आज के मदरसों में वो केमिस्ट्री पढ़ाते हैं, मैथ्स पढ़ाते हैं, फिजिक्स पढ़ाते हैं, लेकिन उनकी हालत नहीं है कि वह दूसरे स्कूलों से खुद की तुलना कर सकें. उनके पास टीचर्स को तनख्वाह देने का सरमाया नहीं है, उपकरण खरीदने के पैसे नहीं हैं. तो, समाज की, हम सब की जिम्मेदारी है कि हम हाथ बढ़ाएं और उनको मदद दें, उनको खींच लें. सच्चर आयोग ने भी यही कहा है, रंगनाथ कमीशन ने भी यही कहा है. बार-बार ये कहा जाता है कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है, कई बार बोल दिया जाता है कि मुसलमान तो नियो-ब्राह्मिन हो गए हैं, यह ठीक नहीं है. आप किसी भी समुदाय को अगर निकालना चाहते हैं तो उसका हाथ पकड़ना होगा. रिलीजन की वजह से कोई अलग है, इस बात को भी छोड़ना होगा. आज से 20 साल बाद अगर आप महसूस करें कि दलित और आदिवासी तो आगे निकल गए, मुसलमान बहुत पिछड़ गए तो मुसलमानों के लिए रिजर्वेशन करना पड़ेगा क्या? इससे समाज में एक असंतोष आता है, एक उबाल आता है.
मुस्लिम समाज की है अहम भूमिका
पहले शिक्षा मंत्री भारत के रिलीजन के आधार पर मुस्लिम थे. सर सैयद अहमद से लेकर जाकिर हुसैन तक, तमाम शिक्षाविद हुए. इसके बावजूद मुसलमान इतने पिछड़े हैं शिक्षा में तो इसमें मैं समाज की बड़ी भूमिका देखता हूं. मैं पाता हूं कि 1947 के बाद जो मुसलमान यहां बचे, जो अच्छे-आसूदा मुसलमान थे, उन्होंने पढ़ा-लिखाकर अपने बच्चों को बाहर भेज दिया. यहां जो रहे उनके बारे में समाज ने कभी सोचा नहीं कि उनको पढ़ाना-लिखाना है. नतीजा ये हुआ कि हमारे बच्चे मदरसों में पढ़ने लगे. नतीजा ये हुआ कि आठवीं, नवीं में पढ़ाई छोड़कर कोई काम करने लगे. आप आज की तारीख में अपने घर की मरम्मत कराएं तो आपको प्लम्बर, बढ़ई, इलेक्ट्रिशियन वगैरह सब मुसलमान ही मिलेंगे. टीवी, फ्रिज बनाने वाले मुसलमान ही मिलेंगे, दफ्तर जानेवाले या बिजनेस करनेवाले नहीं मिलेंगे. इसके साथ ही हमारे समाज में जो एक वर्गीकरण है कि हम अपनी जातवालों को ही काम देंगे, वह भी दिक्कत का सबब है. अपने ही लोगों को, अपनी जाति वालों को बढ़ाना हमारे दिमाग में है. यह गंभीर बात है.
जहां तक मुस्लिम समाज की बात है, हम सभी इसके जिम्मेदार हैं. इसका दूसरा नतीजा ये है कि मौलवी-मौलाना ने लीडरशिप अख्तियार कर ली. अब किसी समाज में अगर मौलवी-मौलाना लीडरी करेंगे, पढ़े-लिखे मुसलमान अगर अमेरिका वगैरह के ख्वाब देखेंगे, तो उस समाज का क्या होगा?
शिक्षा, शिक्षा, शिक्षा..बस यही है जवाब
पिछले 10 साल में मुसलमानों ने यह महसूस किया है कि शिक्षा लेनी है. वह कितनी जरूरी है. जामिया मिलिया इस्लामिया केंद्रीय विश्वविद्यालय का वीसी होने के नाते मुझे पता है कि जामिया में कितनी दूर-दूर से बच्चे आते थे. कॉन्फिडेन्स बनाना होगा. बच्चियां केवल जामिया में क्यों आएं या एएमयू में ही क्यों पढ़ें? वे किरोड़ीमल में जाएं, दूसरे कॉलेज में जाएं, यह करना होगा. ये समाज में कॉन्फिडेन्स लाना होगा. उनको बाहर आना होगा और शिक्षा लेनी होगी. मदरसों को इम्प्रूव किया जाए, गवर्नमेंट स्कूल में टीचिंग क्वालिटी बढ़ाई जाए, शिक्षकों को प्रशिक्षित करें, जो मौलाना आजाद स्कॉलरशिप बंद की है, उसका कोई उपाय करना होगा.
मुसलमानों का जो पैन-इस्लामिक मूवमेंट है, खयाल है. इस कॉन्सेप्ट के विरोध में भी बात हो रही है. हम कह रहे हैं कि आप केवल शरिया का मॉडर्न इंटरप्रेटेशन भी करें. हमें बच्चों को पढ़ाना है, जमाने के साथ कदमताल करना होगा. जहां तक बांग्लादेश में कुछ होने पर यहां के मुसलमानों की प्रतिक्रिया का सवाल है, तो वो यूनिवर्सल है. कोई घटना अगर केरल में या मणिपुर में ईसाइयों के खिलाफ होती है, तो दिल्ली में भी ईसाई लामबंद होते हैं, अगर कोई घटना तमिलनाडु में दलितों के खिलाफ हो तो दिल्ली में भी दलित उत्तेजित होते हैं. ये इसलिए होते हैं कि हम सबके दिमाग में ये बात है कि हम सब अपनी सोसाइटी का सोचें. अगर हमारी सरकार पर हमें पूरा भरोसा हो कि वह सबको इक्वली ट्रीट करेगी, पूरा न्याय करेगी तो ऐसी घटनाओं में कमी आ जाएगी.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)