चुनावी राजनीति इतिहास से नहीं चलती है बल्कि नया इतिहास रचती भी है. गुजरात के चुनावी मौसम में अटकलें हैं, सस्पेंस हैं और उम्मीदें भी हैं. लेकिन इस सब के बीच बीजेपी और कांग्रेस की धड़कने भी बढ़ गई हैं कि आखिरकार क्या होगा. खासकर कांग्रेस की चाल से मुकाबला रोचक हो गया है.


जो कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में 83 साल के बुजुर्ग नेता वीरभद्र सिंह की अगुवाई में बीजेपी से दो दो हाथ कर रही है, वहीं कांग्रेस गुजरात में चार युवा नेताओं के सहारे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चक्रव्यूह रच रही है. कांग्रेस 1995 के बाद गुजरात में इतनी बार हारी है कि उन्हें पता नहीं है कि दुश्मन को हराने के लिए कितनी शक्ति की जरूरत है इसीलिए वो किसी भी युवा नेता से हाथ मिलाने को तैयार है.


खासकर पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के बीजेपी विरोधी रूख और राहुल गांधी से नजदीकी के बाद ये सवाल उठ रहा है कि गुजरात में टक्कर कांटे की हो गई है. उसमें भी दो राय है कि चुनावी सर्वे के मुताबिक बीजेपी गुजरात में साफ जीतती नजर आ रही है वहीं गुजरात और देश से जुड़े हुए राजनीतिक विश्लेषक की मानें तो इस बार का चुनाव काटों का होगा.


22 साल बाद पहली बार बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर होगी और पहली बार जीत और हार का फासला चंद सीटों का होगा यानि अगर बीजेपी जीतती है तो बीजेपी को 100-110 सीटें मिल सकती है और कांग्रेस जीतती है तो उसे करीब 95 सीटें मिल सकती हैं.




क्या हार्दिक से बीजेपी को नुकसान होगा?


गुजरात में पाटीदारों की मेहरबानी से बीजेपी सत्ता में आती है और बीजेपी की वजह से गुजरात में पाटीदारों का वर्चस्व बना हुआ है. मतलब पाटीदार बिना बीजेपी नहीं और बीजेपी बिना पाटीदारों की पूछ नहीं है. यही वजह है कि 22 सालों से राज्य में बीजेपी सत्ता में बनी हुई है.


कांग्रेस ने गुजरात में खाम मतलब क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम वोटरों के सहारे राज किया लेकिन कांग्रेस को मात देने के लिए बीजेपी ने पाटीदारों, व्यापारी वर्ग और अगड़ी जातियों के दम पर सत्ता पाई. खासकर मंडल और कमंडल की राजनीति के बाद बीजेपी गुजरात में मजबूत हुई लेकिन पहली बार हो रहा है कि हार्दिक पटेल पाटीदारों के रहनुमा होकर बीजेपी के वोट में सेंध लगाने का दावा कर रहे हैं.


वहीं बीजेपी को पाटीदारों की पार्टी कही जाती है. लोकसभा से लेकर विधानसभा में बीजेपी सदस्यों में पाटीदारों की तूती बोलती है. गुजरात में पाटीदारों की जनसंख्या करीब 15 फीसदी मानी जाती है और कहा जाता है कि 182 सीटों में से 80 सीटों पर निर्णायक वोटर पाटीदार हैं.


गौर करने की बात है 2012 के चुनाव में बीजेपी के 115 विधायकों की जीत हुई थी जिसमें 44 सिर्फ पाटीदार विधायक थे यानि 38 फीसदी पाटीदार के विधायक हैं. 44 विधायकों में से करीब 10 गुजरात सरकार में मंत्री भी हैं और राज्य के उपमुख्यमंत्री और गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष भी पाटीदार हैं.



यही नहीं केन्द्र में मोदी सरकार में गुजरात के 6 मंत्री शामिल हैं जिसमें 2 मंत्री पाटीदार जाति से हैं. कहने का मतलब है पाटीदारों ने बीजेपी को जितना समर्थन किया और उससे ज्यादा पाटीदार समाज ने बीजेपी से फायदा उठाया. यही वजह रही है कि बीजेपी में कई बार राजनीतिक तूफान आये लेकिन पार्टी की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ.


ठाकुर नेता शंकरसिंह बाघेला और पाटीदार नेता आत्माराम पटेल पार्टी तोड़कर भी सत्ता में आने से नहीं रोक पाये वहीं पाटीदारों के सबसे बड़े नेता केशुभाई पटेल ने भी मोदी को हराने की कोशिश की लेकिन पाटीदारों को बीजेपी से रिश्ता नहीं टूटा.


जब केशुभाई पटेल 2012 के चुनाव में मोदी के खिलाफ गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाकर मोदी को चुनौती देने की कोशिश की तब भी मोदी की हार नहीं हुई बल्कि केशुभाई पटेल को महज दो सीटें और 4 फीसदी वोट मिले. पाटीदारों में भी चार उपजाति होती है लेऊवा पटेल, कडवा पटेल, अनजाना पटेल और मटिया पटेल.


हार्दिक पटेल कडवा पटेल से हैं और मोदी की भी पकड़ पाटीदारों में जबर्दस्त है. यही नहीं आरएसएस और बीजेपी से पाटीदारों का पुराना रिश्ता है. गुरुवार को ही मोदी स्वामी नारायण संप्रदाय के अक्षरधाम मंदिर के रजत जयंती समारोह में शरीक हुए. स्वामीनारायण संप्रदाय में पाटीदारों की काफी बड़ी तादाद है.


माना जा रहा है कि स्वामीनारायण संप्रदाय के कार्यक्रम में मोदी के शामिल होने से हार्दिक पटेल के प्रभाव को कम करने की कोशिश थी. अब ये भी साफ है कि हार्दिक पटेल की वजह से बीजेपी को नुकसान होगा लेकिन कितना नुकसान होगा ये कहना अभी मुश्किल है.


वहीं दूसरी बड़ी बात ये है आरक्षण की मांग को लेकर हार्दिक पटेल अगर कांग्रेस को समर्थन करते हैं तो बीजेपी को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं. अगर हार्दिक खुद अपने उम्मीदवार उतारते हैं तो पाटीदार वोट बंटने से बीजेपी को कम नुकसान हो सकता है.




चक्रव्यूह में फांसने की राहुल की चाल?


राहुल गांधी भले विकास के मुद्दे पर मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन ये छलावा है क्योंकि ये मुद्दा इतना मजबूत था तो राहुल जैसे युवा नेता को वैशाखी की क्यों जरूरत पड़ी. एक नहीं चार-चार वैशाखी- हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर, जिग्नेश मेवानी और प्रवीण राम.


ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं वहीं जिग्नेश राहुल से हमदर्दी रखते हैं. उना कांड के प्रतिरोध में खड़े हुए दलित आंदोलन के नेता के रूप में जिग्नेश उभरे लेकिन इन लोगों की परीक्षा अभी होनी है. मोदी भी ओबीसी जाति से आते हैं वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में दलित और आदवासी वोटरों ने बीजेपी को जमकर वोट दिया था.


वहीं आरएसएस और बीजेपी का संगठन बहुत मजबूत है और गुजरात को हिंदुत्व का प्रयोगशाला कहा जाता है. यहीं नहीं बीजेपी के लिए और भी समस्या है. कहा जा रहा है कि बीजेपी के प्रति किसानों का गुस्सा बढ़ा है वहीं जीएसटी की वजह से व्यापारी परेशान हैं.


यही बात नोटबंदी के दौरान फैली थी कि नोटबंदी की वजह से जनता परेशान है. उत्तरप्रदेश में क्या हुआ किसी से छिपी नहीं है. ये भी सच है कि सरकार से सिर्फ असंतोष की वजह से सत्तारूढ पार्टी चुनाव नहीं हार जाती है बल्कि ये भी देखा जाता है कि विकल्प कौन है. विकल्प में राहुल गांधी हैं जिनके पास सिर्फ चार यार बनाने के अलावा कोई दूरदृष्टि नहीं दिख रही है.


यूपीए के 10 साल के राज में राहुल ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिसे याद किया जा सकता है. मोदी से जनता खुश हैं या नाराज ये चुनाव के बाद पता चलेगा लेकिन एक बात ये भी सही है कि मोदी हमेशा एक्शन में रहते हैं और निर्णायक नेता की भूमिका में रहते हैं.


निर्णायक नेता की खूबी ये होती है कि स्थिति से लड़ते हैं डरते नहीं है. ये भी सच है कि राहुल मोदी के निर्णायक छवि से बहुत ही सचेत हैं इसीलिए उन्हें मोदी को घेरने के लिए चार नेताओं की चक्करघिरनी लगानी पड़ी है. ये भी सच है कि गठबंधन और सांठगांठ की वजह से कभी कभी बड़े नेता को भी चित किया जाता है. इससे यही जाहिर होता है कि हर बार की तरह इस बार लड़ाई एकतरफा नहीं होगा बल्कि कांटो की टक्कर होगी. आखिरकार कौन जीतेगा और कौन हारेगा ये तो 18 दिसंबर को ही पता चलेगा.


धर्मेन्द्र कुमार सिंह राजनीतिक-चुनाव विश्लेषक हैं और ब्रांड मोदी का तिलिस्म के लेखक हैं.