गुजरात की राजनीति में पाटीदारों को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर एकाएक नेता बनकर उभरने वाले हार्दिक पटेल अब बीजेपी में कब शामिल होंगे, ये तो वक़्त ही बताएगा.लेकिन पिछले कुछ बरसों से सरकार की खुलकर मुखालफत करने और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का हाथ थामने वाले हार्दिक ने गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष पद से आख़िर अचानक इस्तीफ़ा क्यों दे दिया? ये सवाल इसलिये कि राजनीति में जो दिखता है,वो कभी होता नहीं क्योंकि उसकी अपनी एक अलग दुनिया है,जो लोगों को दिन में ही तारे दिखाने के सपने में उलझाये रखती है,ताकि एक आम इंसान का ध्यान अपनी बुनियादी तकलीफों से भटक जाये.
गुजरात में इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होने हैं.उससे पहले हार्दिक के इस्तीफा देने की कई वजह हो सकती हैं,जो उन्होंने अपने इस्तीफ़े में भी बताई हैं.लेकिन लोग जानते हैं कि राजनीति में आने वाला कोई भी शख्स दूध से धुला नहीं होता, जिसके कलफदार सफेद कुर्ते के नीचे हर दाग़ छिपा होता है.लेकिन इस सच को मानने से भला कौन इनकार करेगा कि एक नेता को सबसे पहला और बड़ा डर ये होता है कि उसे किसी मामले में जेल की चारदीवारी के भीतर अपनी जिंदगी न काटनी पड़े.
कहने वाले तो कह ही रहे हैं कि हार्दिक पटेल ने इस्तीफा ही इसलिये दिया क्योंकि उन्हें जेल जाने का डर सता रहा था. ऐसी सूरत में बीजेपी के आगे 'शरणम गच्छामि' होने को राजनीति में कोई भी घाटे का सौदा कभी नहीं कहेगा. साल 2015 में हार्दिक पटेल ने जब पाटीदार समुदाय के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ा था, तब उनके खिलाफ सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए थे,जिसमें देशद्रोह और दंगा भड़काने जैसे संगीन अपराध भी शामिल हैं. मोटे अनुमान के मुताबिक साल 2015 से 2018 के बीच दर्ज हुई कम से कम 30 एफआईआर में हार्दिक को आरोपी के रूप में नामित किया गया है. इनमें से अकेले 7 मुकदमे तो 2015 में गुजरात में पाटीदार समुदाय के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग को लेकर हुए आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए थे क्योंकि पूरे आंदोलन की कमान उनके हाथ में थी.
पिछले दिनों ही हार्दिक ने सार्वजनिक रुप से कहा था कि देश की विभिन्न अदालतों में फिलहाल उनके खिलाफ 23 केस चल रहे हैं.अब जरा सोचिए कि जिस नेता पर इतने मुकदमे चल रहे हों और इनमें से किसी एक में भी उसे सजा हो जाये, तो उसका राजनीतिक कैरियर क्या ख़ाक बचेगा.
वैसे हार्दिक पटेल ने साल 2016 में गुजरात हाइकोर्ट के समक्ष अपने खिलाफ दर्ज मामलों के संबंध में राहत देने की गुहार लगाते हुए ये शपथ ली थी कि, ‘वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी गतिविधि में शामिल हुए बिना, जो अपराध हो सकता है, पाटीदार समुदाय की परेशानियों को उठाते रहेंगे, और उसके निवारण के लिए सरकार का विरोध करना जारी रखेंगे. वह राज्य भर में कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा करने वाले किसी भी कार्य या गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे. किसी भी तरह से जनता को उकसाने वाली गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे.’
हम सब ये मानते हैं कि न्यायपालिका कभी कार्यपालिका से न तो प्रभावित होती है और न ही उसकी दखल को बर्दाश्त करती है.लेकिन हार्दिक पटेल के इस्तीफे के बाद सियासी गलियारों में कई तरह के सवाल अगर उठ रहे हैं,तो जाहिर है कि उसके पीछे भी कोई वजह तो होगी.दरअसल,पिछले दिनों ही
दो अदालतों ने गुजरात सरकार को हार्दिक के खिलाफ मामले वापस लेने की अनुमति दी थी. एक मामला 2017 में मोरबी जिले के टंकारा में बिना अनुमति के सार्वजनिक रैली आयोजित करने के संबंध में था, और दूसरा 2017 में बीजेपी पार्षद के आवास में तोड़फोड़ के संबंध में था.यानी वडोदरा और सूरत की अदालत ने उनके खिलाफ दर्ज दो मुकदमों का निपटारा कर दिया. बता दें कि गुजरात हाईकोर्ट ने पिछले साल दिसंबर 2021 में हार्दिक पटेल पर दर्ज एफआईआर और चार्जशीट को भी रद्द कर दिया था. उनके खिलाफ यह एफआईआर 2017 में भोपाल में पुलिस द्वारा अनुमति देने से इनकार करने के बावजूद रोड शो आयोजित करने के लिए दर्ज की गई थी.
अब सवाल उठता है कि अपने समुदाय को आरक्षण दिलाने के लिए आंदोलन छेड़ने वाले हार्दिक पटेल पहले अचानक कांग्रेस की आंख का तारा क्यों बन गए थे और अब बीजेपी की गोद में बैठने को तैयार क्यों है? इसका मोटे तौर पर जो जवाब सामने आता है,वो ये है कि मुकदमे तो बड़ी वजह हैं ही लेकिन साथ ही गुजरात का जातीय समीकरण भी बेहद मायने रखता है.
गुजरात में पाटीदारों की आबादी 15 फीसदी के आसपास बताई जाती है.दरअसल,वहां पाटीदार समुदाय के दो कुनबे हैं जिसमें लेउवा पटेल 54 फीसदी और कड़वा पटेल 43 फीसदी हैं.लेकिन ये दोनों आपस में विभाजित भी हैं.गुजरात की राजनीति के जानकार कहते हैं कि अगर इन दोनों को साथ में मिला दिया जाए तो यह एक बड़ी राजनितीक ताकत बन जाती है. जिस पार्टी की ओर यह वोट ट्रांसफर होता है उस पार्टी की जीत तय हो जाती है. राज्य में कुल पाटीदारों में से कड़वा पटेल की हिस्सेदारी 6.5 फीसदी है, जबकि लेउवा पटेल की हिस्सेदारी तकरीबन 8 फीसदी है. हार्दिक पटेल कड़वा समाज से आते हैं. मगर उनकी पकड़ कड़वा और लेउवा दोनों पर है.
यही कारण है कि गुजरात में पहले बीजेपी व कांग्रेस की इस वोट बैंक पर खास नजर रहा करती थी लेकिन इस बार अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की भी इस मजबूत वोट बैंक पर गिद्ध निगाह लगी हुई है. अब देखना ये है कि बीजेपी के जहाज पर सवार होने की तैयारी में लगे हार्दिक पटेल अपने समुदाय का कितना वोट ट्रांसफर कराने में कामयाब हो पाते हैं. इसलिये कि सूरत नगर निगम में कब्ज़ा करने वाली आम आदमी पार्टी भी अब गुजरात में एक बड़ी ताकत बनकर उभर रही है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)