गुजरात के मोरबी में हुए इस हादसे के बाद देवभूमि हरिद्वार-ऋषिकेश वाले जरुरत से ज्यादा सावधान हो जाएं, जहां इसी तरह से राम-लक्ष्मण झूले बने हुए हैं. सारी दर्दनाक तस्वीरे देखकर शायद उत्तराखंड सरकार को अब ये तो होश आ ही जाना चाहिए कि इन दोनों झूलते हुए पुलों पर एक ही वक़्त में लोगों की आवाजाही को काबू में रखने का नियम बनाने को लेकर कोई सख्त फैसला लिया जाये. अगर ले लिया तो बहुत बेहतर अन्यथा कोई नहीं जानता कि ऐसे ही किसी दर्दनाक हादसे की खबर सुनने के लिए कब देश को मजबूर होना पड़ेगा.


ऐसे हादसे क्यों होते हैं और उसके लिए आखिर दोषी कौन है, इसका पता न तो मीडिया लगा सकता है और न ही जनता. मीडिया सिर्फ उस सचाई या तथ्य को उज़ागर करने की जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाता है लेकिन अगर ऐसे किसी भी मामले में सरकार में बैठे किसी ताकतवर मंत्री का वरदहस्त किसी कॉन्ट्रेक्टर को मिला हुआ है, तो जाहिर है कि उसे दबाने-छुपाने की तमाम कोशिशें की जाएंगी, जो पहले भी होती रही हैं. लेकिन सोचने वाली बात ये भी है कि ऐसी लीपापोती पर देश का निष्पक्ष मीडिया भला चुप कैसे रह सकता है. अमूमन रहता भी नहीं है लेकिन फिर भी देश की बहुसंख्य जनता के जेहन में एक सवाल उठता है कि हकीकत को दरकिनार कर दूसरे मुद्दों पर उलझाने की कवायद जब मीडिया करता है, तो यही लगता है कि वो पूरी तरह से निष्पक्ष नहीं है और सरकार की गोद में बैठा हुआ है.


दुनिया में हादसे दो तरह के ही होते हैं. एक वे जो कुदरत की तरफ से आते हैं और दूसरे वो जो इंसान की किसी लापरवाही की वजह से ही मासूम मौतों की वजह बनते हैं. गुजरात के मोरबी में मच्छु नदी पर बने इस केबल पुल का गिरना, एक मानव निर्मित दुर्घटना है, जिसके दोषियों को बख्शा नहीं जाना चाहिये. बड़ा सवाल ये है कि इस पुल की मरम्मत करने के बाद जब आम जनता के लिए खोल दिया गया, तब वहां टिकटों को बांटने पर कोई पाबंदी क्यों नहीं लगाई गई. दूसरा, ये कि मरम्मत करने वाली कंपनी ने ये क्यों नहीं बताया कि इस पुल पर एक ही वक़्त में कितने लोगों के खड़े होने की क्षमता है. तीसरा व अहम सवाल ये भी स्थानीय नगरपालिका से फिटनेस सर्टिफिकेट मिले बगैर जनता के लिए क्यों खोल दिया गया. अगर खोलना ही था, तो छठ पूजा के पर्व को देखते हुए वहां पुलिस का इंतजाम क्यों नहीं किया गया, जो ये देखती कि पुल पर जरुरत से ज्यादा लोगों का जमावड़ा न हो सके.


अब आप इसे मोरबी के स्थानीय पुलिस-प्रशासन की चूक मान सकते हैं, जिसने कभी ऐसे हादसे के बारे में सोचा तक नहीं होगा. दरअसल, ये गुजरात सरकार की ऐसी लापरवाही को उजागर करती है, जिसने गांधीनगर के सचिवालय में बैठकर कभी आंकलन ही नहीं लगाया कि राज्य के दूरदराज के इलाकों में ऐसी कौनसी संवेदनशील जगह हैं, जो छठ पूजा के मौके पर किसी हादसे को न्योता दे सकती हैं. इस हादसे में मासूम मौतों का आंकड़ा कहां जाकर रुकेगा, कोई नहीं जानता. देश का इतिहास बताता है कि ऐसे हर हादसे पर राजनीति होती आई है लेकिन अगले कुछ दिन में गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान होना है, लिहाज़ा ये लापरवाही से हुई मानवीय त्रासदी से ज्यादा एक सियासी हथियार बन जायेगा. यही सत्तारुढ़ सरकार को भी रास आता है क्योंकि इस बहाने उसे अपने गुनाहों से बचने का बेहतरीन मौका मिल जाएगा.


इस देश में बहुत सारे लोग उनके नाम से ही चिढ़ते हैं, लेकिन उसी ओशो रजनीश ने बरसों पहले कहा था कि " हमारी सरकारों की ये आदत बन चुकी है कि वो किसी भी लापरवाही का दोष अपने ऊपर लेना ही नहीं चाहती, इसलिये देश में ऐसे हादसे आगे भी  होते रहेंगे क्योंकि इससे कुछ खास लोगों की जेबें गर्म होती है, जो आम लोगों को नज़र नहीं आ सकती."
कानून के जानकारों के मुताबिक गुजरात के मोरबी में जो कुछ हुआ, वह सिर्फ स्थानीय प्रशासन नहीं बल्कि राज्य सरकार के खिलाफ भी गैर इरादतन हत्या का मामला बनता है. इसलिये कि उसने जानते-बुझते हुए सिर्फ अपनी लापरवाही से इतने सारे मासूम जिंदगियों को मौत के मुंह मे धकेला है.



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