हार्दिक पटेल की प्रेस कॉन्फ्रेंस देख-सुन कर तो फिलहाल यही लगता है कि कांग्रेस पार्टी गुजरात में पाटीदार अनामत आन्दोलन समिति (पास) को अपने काफी पास बिठा लेने में कामयाब हो गई है. लेकिन जिन लोगों ने हार्दिक पटेल को उनके जुलाई 2015 में हुए राजनीतिक अन्नप्राशन संस्कार के समय से देखा-समझा है उन्हें अब भी पूरी तरह विश्वास नहीं हो रहा कि हार्दिक ज्यादा देर तक किसी पलड़े में बैठे रह सकते हैं. गुजरात विधानसभा चुनाव के मतदान से पहले ही अगर वह कोई नया बखेड़ा खड़ा कर दें, तो आश्चर्य नहीं होगा. हार्दिक की विशेषता यह है कि वह शानदार वक्ता बन चुके हैं और विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने में माहिर हैं. मीडिया से भी वह बखूबी निपटना सीख गए हैं लेकिन उनमें वह परिपक्वता नहीं झलकती जो एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ में होनी चाहिए. इस लिहाज से उन्हें अभी राजनीतिक शिशु ही कहा जा सकता है और जिस कांग्रेस पार्टी से उनकी गलबहियां चल रही हैं, वह राजनीति की दादी अम्मा है.


हार्दिक के मुताबिक कांग्रेस ने ओबीसी दर्जे में पाटीदार समुदाय को जोड़कर सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 50% से ज्यादा आरक्षण देने की बात मान ली है और सरकार बनते ही पहला काम आरक्षण विधेयक पारित करने का ही होगा. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस से आरक्षण का फार्मूला उगलवाने के चक्कर में हार्दिक बार-बार अपनी रैलियां रद्द करने को मजबूर होते रहे. यहां तक कि अहमदाबाद की हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस भी गूलर का फूल बन गई थी. गुजरात में पहले चरण के चुनाव का नामांकन-समय समाप्त होने के बाद भी कांग्रेस और हार्दिक पटेल के बीच ऊहापोह की स्थिति बनी हुई थी.

‘पास’ की तरफ से आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस से बातचीत के लिए अधिकृत किए गए दिनेश बांभनिया और कोर कमेटी के अन्य पाटीदार नेता कांग्रेस के खिलाफ आग उगल रहे थे. इतना ही नहीं, कांग्रेस उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद 'पास' कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस के सूरत स्थित दफ्तर में तोड़फोड़ तक कर डाली. पहली ही सूची में वे बादाम की जगह चने के सूखे दाने मिलते देख कर जामे से बाहर हो गए थे. इससे पहले दिल्ली में होने वाली बैठक को कांग्रेस द्वारा नजरअंदाज किए जाने के बाद पास ने 24 घंटे का अल्टीमेटम दे दिया था. भाजपा से खुला पंगा लेने के बाद हार्दिक अगर एकमात्र विकल्प कांग्रेस के साथ ऐसी हरकतें कर रहे थे, तो इसे उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता और मानसिक अस्थिरता ही माना जाएगा. हार्दिक ने यह भी नहीं सोचा कि अगर खुदानख्वास्ता कांग्रेस की सरकार गुजरात में बन गई तो पाटीदारों के लिए आरक्षण उससे ही मांगना पड़ेगा!

घुटी हुई राजनीतिक पार्टी कांग्रेस हार्दिक की यह दुखती रग पहचान गई थी इसीलिए उनकी उच्च राजनीतिक महात्वाकांक्षा को सधुक्कड़ी संतोष में तब्दील करते उसे देर नहीं लगी. अब हार्दिक अपना हाथ चट्टान के नीचे दबा बैठे हैं और टिकटों की मांग छोड़कर मात्र पाटीदार आरक्षण पर ध्यान केंद्रित करने का संतई प्रवचन देने को मजबूर हैं. हालांकि उनकी अकड़ ज्यादा ढीली नहीं पड़ी है, क्योंकि पाटीदारों पर उनकी पकड़ अब भी काफी मजबूत है. भले ही भाजपा ने हार्दिक की छवि को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ उनके पांच प्रमुख सहयोगियों- चिराग पटेल, केतन पटेल, रेशमा पटेल, अमरीश पटेल और श्वेता पटेल को क्यों न तोड़ लिया हो!

हार्दिक पटेल की अगुवाई में हुए पाटीदारों के आन्दोलन के कारण ही गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को अपने पद से हाथ धोना पड़ा था. बाद में हुए स्थानीय चुनावों में भाजपा को इसका काफी नुकसान भी हुआ लेकिन तब से लेकर अब तक साबरमती में काफी पानी बह चुका है. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता की तर्ज पर यह भी स्पष्ट था कि पाटीदारों को आरक्षण दिलाने के मकसद में कामयाब होने के लिए हार्दिक को किसी एक राजनीतिक दल का दामन थामना था और 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त' के मुहावरे पर अमल करते हुए बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस उसकी सहज सहयोगी हो सकती थी.

लेकिन हार्दिक कह रहे हैं कि वह खुले तौर पर कांग्रेस का समर्थन नहीं करेंगे, किंतु भाजपा का विरोध करेंगे. आखिर यह किस समझदारी की रणनीति है और इससे पाटीदार मतदाताओं में किस तरह का संदेश जाएगा? कोई हार्दिक को यह समझाए कि इस तरह की मानसिकता के साथ युद्ध में उतरने पर पराजय के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता. आप या तो मित्र पक्ष में खड़े होते हैं या शत्रु पक्ष में. लेकिन लगता है कि हार्दिक चुनाव परिणामों को लेकर खुद सशंकित हैं और चुनाव बाद भाजपा के साथ सौदेबाजी का दरवाजा खोल कर रखना चाहते हैं. बशीर बद्र का शेर याद आता है- दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे/जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.

कांग्रेस के नज़रिए से देखें तो 22 साल गुजरात में सत्ता से बाहर रही पार्टी के लिए इस बार गुजरात चुनाव एक सुनहरी मौके के रूप में सामने आया है. नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में भाजपा पहली बार मज़बूत स्थानीय नेतृत्व का अभाव झेल रही है. ऊपर से दलित-पिछड़ा आंदोलन और एंटीइंकम्बैंसी का हथौड़ा सर पर बज ही रहा है. भाजपा के तीन साल के केंद्रीय शासन में नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से व्यापारी वर्ग में भी मोहभंग की स्थिति बनी है. गुजरात विकास के मॉडल की हवा निकलती नज़र आ रही है और 'विकास पागल हो गया है' जैसा नारा गूँज रहा है. कांग्रेस ने हार्दिक के अलावा गुजरात में उभरे दलित नेता जिग्नेश मेवानी, ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर और आदिवासियों के नेता छोटूभाई वसावा को भी अपने साथ जोड़ लिया है.

हालांकि हार्दिक पटेल ने कांग्रेस को अप्रत्यक्ष समर्थन देने की बात कबूल ली है लेकिन वह अब भी कांग्रेस के बैनर तले एक भी रैली करने को राजी नहीं हैं. जाहिर है भविष्य में कांग्रेस के सामने सबसे ज्यादा मुश्किल हार्दिक को साधने में ही होगी क्योंकि उनके सहयोग से अगर कांग्रेस ने गुजरात में सरकार बना भी ली तो यह तलवार लटकी ही रहेगी कि वह एक स्थिर सरकार होगी या नहीं. कहते हैं कि हार्दिक की बहन मोनिका राज्य सरकार की छात्रवृत्ति प्राप्त करने में विफल रही थीं इसलिए उन्होंने एक पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का निर्माण किया था. ऐसे में हार्दिक की भाजपा से निजी खुंदस को कांग्रेस के लिए अभयदान कैसे माना जा सकता है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)