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Guru Nanak Jayanti: न हिंदू हूं न मुसलमान, न भीड़ में हूं, न ही कोई शोर हूं, इसलिए मैं कोई और हूं!

Guru Nanak Jayanti 2021: "जो हद करे, सो पीर जो बेहद करे सो औलिया, जो हद-बेहद करे, उसका नाम फ़क़ीर." आज ऐसे ही एक ऐसे फ़क़ीर के इस धरती पर 550 साल पहले अवतार लेने का दिन है, जिसे सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव के रुप में दुनिया याद कर रही है. आज उनके प्रकाशोत्सव  का उत्सव मनाया जा रहा है लेकिन साढ़े पांच सदी पहले मजहब, जाती, ऊंच-नीच और भेदभाव के अंधेरे को मिटाने का जो दिया उन्होंने जलाया था,उसकी लौ आज इतनी मद्धिम हो गई है कि कोई नहीं जानता कि इसे अपनी एक फूंक मारकर कब, कोई बुझा देगा. इसलिए, नानक को आप फ़क़ीर मानिये या अवतारी पुरुष लेकिन वे आज उस ज़माने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए हैं कि उन्होंने कभी ये उपदेश नहीं दिया था कि एक इंसान, किसी दूसरे से इतनी नफ़रत करने लगे कि वो उसके खून का प्यासा बन जाए. गुरु नानक को किसी खास धर्म या जाति से जोड़ने वालों को ये जरूर सोचना चाहिए कि इतनी  सदियों पहले आखिर ये वचन उन्हींने क्या सोचकर कहे होंगे- "अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे, एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मंदे."

दरअसल,गुरुनानक ने भारतवर्ष की धरती पर एक इंसान के रूप में ही अवतार तब लिया था,जब उस वक़्त के समाज में चारों तरफ अन्याय, अत्याचार, ऊंचनीच, भेदभाव और मज़हबी जुनून के साथ ही स्त्री को उसके हक़ न देने का बोलबाला था. ऐसे समय में नानक की कही बातें या उनके उपदेश उन सबके लिए बेहद खतरनाक बन गए थे, जो खुद को धर्म का सबसे बड़ा ठेकेदार माना करते थे और जिन्हें ये भ्रम था कि उनकी मर्जी के बगैर कुछ भी नहीं हो सकता.क्योंकि उस दौर के ऐसे धार्मिक ठेकेदारों ने लोगों को अपने धर्म व अंधविश्वास को मानने की ऐसी घुट्टी पिला दी थी,जो किसी अफीम के नशे से कम नहीं थी. उस माहौल में गुरुनानक ने अपने दो शिष्यों भाई मरदाना और भाई बाला को लेकर इतिहास के मुताबिक चार उदासियाँ कीं. इन उदासियों का अर्थ ये है कि अंधविश्वास और धार्मिक कट्टरता के साये में जी रहे लोगों को जागरूक करने के मकसद से उन्होंने लंबी यात्राएं कीं. उसका दायरा आज के भौगोलिक भारत तक ही सीमित नहीं था, बल्कि अफगानिस्तान से लेकर ईरान और मक्का-मदीना तक उन्होंने इसे अपने पैरों से नापा. वे  महीनों-सालों तक लोगों को 'इक ओंकार' का मूलमंत्र समझाने में लगे रहे कि तुम चाहे जिस धर्म में पैदा हुए हो लेकिन तुम्हें इस संसार में लाने वाला वो ईश्वर-परमात्मा-अल्लाह एक ही है.उसे चाहे जिस नाम से पुकारों लेकिन उसी ने तुम्हे पैदा किया, वही तुम्हारी पालना करता है और तय वक़्त पर वही तुम्हारे शरीर को नश्वर कर देता है,इसलिये वह दो-तीन या चार नहीं है, वो सिर्फ एक ही है और इसीलिए वो -इक ओंकार है.

इतिहासकार मानते हैं कि नानक एक ऐसे अवतारी फ़क़ीर थे,जिनके पास करामात दिखाने के लिए कई सिद्धियां थीं लेकिन उन्होंने इसका इस्तेमाल कभी नहीं किया. उनके जीवनकाल की सिर्फ एक ही घटना ऐसी चर्चित है, जब उन्हें एक मौलवी को समझाने के लिए ये करामात दिखाने पर मजबूर होना पड़ा था. ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक गुरुनानक देव जी अपने दोनों चेलों के साथ जब मक्का की यात्रा पर थे,तब उन्हें रात्रि में किसी ऐसी जगह पर विश्राम करना पड़ा,जहां का सर्वेसर्वा एक मौलवी था. नानक जब लेट गए,तो उनके पैर उस मक्का की तरफ थे, जो दुनियाभर के मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र स्थान है.एक हिंदू फ़क़ीर की इतनी जुर्रत देख वह मौलवी आगबबूला हो गए और तमाम लानत-मलानातें कर डाली. तब गुरुनानक ने बेहद विनम्रता से उस मौलवी से कहा- ए खुदा के नेक बंदे, तू मेरे पैर उस तरफ घुमा दे,जहां मक्का नहीं है.इतिहास में दर्ज है कि उस मौलवी ने जब नानक के पैरों को अपने हाथ में लेकर घुमाना शुरु किया,तो उसे हर तरफ सिर्फ मक्का का ही दीदार हो रहा था.ये अजूबा देखकर वे मौलवी साहब ये कहते हुए नानक जी के चरणों पर गिर पड़े कि "न आप हिंदू हो न मुसलमान लेकिन पीरों के पीर हो,लिहाज़ा मेरी गुस्ताखी बख्श दीजिये."

वैसे इतिहास के पन्नों में एक और सच्चा वाक्या दर्ज है,जो आज भी हमें इंसानियत का वो रास्ता दिखाता है,जिस पर चलना कई लोगों के लिए इतना आसान नहीं है. सब जानते हैं कि गुरु नानक के साथ हर वक़्त साये की तरह साथ  रहने वाले उनके दो शिष्यों में से एक रबाब बजाने वाले भाई मरदाना मुसलमान थे, जबकि भाई बाला हिन्दू थे.एक दिन मरदाने की बीबी पति से शिकवा करते हुये कहती है, मुसलमान औरतें मुझे ताना मारती हैं कि  तेरा पति मुसलमान हो कर एक हिंदू फ़क़ीर के पीछे पीछे रबाब उठा कर दिन रात घूमता रहता है, इस पर मरदाना अपनी बीबी से पूछता है, तो तुमने उनको क्या जवाब दिया? मैं क्या जवाब देती ठीक ही तो ताना मारती हैं, मैं चुप रह गई. वाकई में वो बेदी कुलभूषण है. बेदीयों के वंश में पैदा हुए हैं और हम मरासी मुसलमान, तब मरदाना ने पत्नी से कहा- नहीं, तुम्हें कहना चाहिए था कि मैं जिसके पीछे रबाब उठा कर घूमता रहता हूं, न वो हिंदू है न मुसलमान है. वो तो सिर्फ अल्लाह और राम का रूप है. वो ईश्वर है, गुरू है, वो किसी समुदाय मे नही बंधा हुआ और वो किसी किस्म के दायरे की गिरफ्त में नहीं है, घर वाली यकीन नहीं करती, कहती है,अगर एसा है तो वो कभी हमारे घर आया क्यों नहीं और न ही कभी हमारे घर उसने भोजन किया है, अगर आपके कहने के मुताबिक़ सब लोग उसकी निगाह मे एक हैं  तो गुरू नानक कभी हमारे घर भी आएं, हमारा बना हुआ भोजन भी करें, मरदाना कहने लगा, चलो फिर आज ऐसा ही सही. तूं आज घर में जो पड़ा है उसी से भोजन बना. मैं बाबा जी को लेकर आता हूं, घर वाली यकीन नहीं करती वो कहती है मैं बना तो देती हूं पर वो आएगा नहीं, वो बेदीयों का वंशज हैं बड़ी ऊंची कुल है, वो भला हमारे घर क्यों आने लगे, और फिर मेरे हाथ का भोजन? मुझे ऐसा मुमकिन नहीं लगता. मैं मुस्लिम औरत हम मरासी मुसलमान!!

मरदाना क्या जवाब देता है ? मरदाने ने भी कह दिया अगर आज बाबा नानक न आये तो यारी टूटी, पर तूं यकीन रख यारी टूटेगी नहीं, तो अच्छा मैं चलता हूं, पर साथ में ये भी सोचता हुआ चल पडता है कि कहीं घर वाली के सामने शर्मिंदा न होना पड़े, बाबा कहीं जवाब न दे दे, यही सोचता हुआ चला जा रहा है, अभी दो सौ कदम ही चला होगा की उसे बाबा जी रास्ते में ही मिल गए, दुआ सलाम की, सजदा किया स्वाभाविक रूप से पूछ लिया, बाबा जी आप कहाँ चले  ? तो गुरुनानक बोले ,मरदाने आज सुबह से दिल कर रहा था दोपहर का भोजन तुम्हारे घर चल कर करूं, तो मरदाने फिर चलें तुम्हारे घर  ? ये सुनते ही मरदाना रो पड़ा.मुंह से चीख निकल गई "बाबा जी" कहने लगा एक छोटा सा रत्ती भर शक मन मे आया था. पर बाबा जी दूर हो गया सच में आप सांझे हैं, इसलिए कहते हैं कि सच्चा गुरू वो है जो मन की शंका मिटा दे, जिसका नाम,जिसका ज्ञान और जिसका अहसास इंसान के मन की सभी शंकाएँ दूर कर दे, मशहूर शायर शकील आज़मी की ग़ज़ल का एक शेर है, जो ऐसे फ़क़ीर पर बिल्कुल मौंजू लगता है- "न मैं भीड़ हूं, न मैं शोर हूं, मैं इसलिये कोई और हूं, कई रंग आए गए मगर, कोई रंग मुझपे चढ़ा नहीं."

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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