क्या ज्ञानवापी का फैसला मथुरा की शाही ईदगाह पर भी डालेगा असर?
वाराणसी की चर्चित ज्ञानवापी मस्जिद और श्रृंगार गौरी मामले पर छिड़े विवाद को लेकर जिला अदालत का फैसला हिंदू पक्ष में आया है. फैसले के मुताबिक ज्ञानवापी-श्रृंगार गौरी केस सुनने लायक है, लिहाजा अब मामले में अगली सुनवाई 22 सितंबर को होगी. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इस फैसले का असर मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह के बीच उठे विवाद पर भी पड़ेगा क्योंकि वह मामला भी अदालत में लंबित है?
दरअसल, मथुरा में भी हिंदू और मुस्लिम पक्षों के बीच इसी तरह का कानूनी विवाद चल रहा है.पूरा विवाद वहां की 13.37 एकड़ भूमि के मालिकाना हक को लेकर है. इसमें से 10.9 एकड़ जमीन श्री कृष्ण जन्मस्थान के कब्जे में है, जबकि 2.5 एकड़ जमीन शाही ईदगाह मस्जिद के पास है. सुप्रीम कोर्ट के वकीलों हरिशंकर जैन, विष्णु शंकर जैन और रंजना अग्निहोत्री और तीन अन्य लोगों ने दो साल पहले याचिका दायर की गई थी.
याचिका में कहा गया है कि मुसलमानों की मदद से शाही ईदगाह ट्रस्ट ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया और ईश्वर के स्थान पर एक ढांचे का निर्माण कर लिया है. भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण का जन्म स्थान उसी ढांचे के नीचे स्थित है. याचिका में 13.37 एकड़ जमीन पर दावा करते हुए स्वामित्व मांगने के साथ ही शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की भी मांग की गई है.
बता दें कि सिविल कोर्ट ने पहले इस याचिका को खारिज कर दिया था. फिर हिंदू पक्ष ने याचिका को नए तरीके से मथुरा कोर्ट में दायर किया. उस पर बीती 19 मई को डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया कि यह याचिका सुनवाई योग्य है, लिहाजा सिविल कोर्ट इसपर सुनवाई करे. उल्लेखनीय है की इस याचिका में भी दावा किया गया है कि शाही ईदगाह मस्जिद कृष्ण जन्मभूमि के ऊपर बनी है, इसलिए उसे हटाया जाना चाहिए.
हिंदू पक्षकारों ने मांग की है कि इस मस्जिद परिसर के सर्वे के लिए एक टीम का गठन किया जाए जो मुआयना करके बताएं क्या इस मस्जिद परिसर में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां और प्रतीक चिन्ह मौजूद हैं जो ये बताते हैं कि यहां पर इस मस्जिद से पहले हिंदुओं का मंदिर हुआ करता था. अदालत में दायर याचिका में ये भी सवाल उठाया गया है कि जब यह जमीन श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की थी तो आखिर श्री कृष्ण जन्मभूमि सेवा संस्थान नाम की संस्था ने 1968 में ईदगाह कमेटी के साथ मिलकर मस्जिद को न हटाने का फैसला किस आधार पर कर लिया?
दरअसल श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के नाम से एक सोसाइटी 1 मई 1958 में बनाई गई थी. इसका नाम 1977 में बदलकर श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान कर दिया गया था. 12 अक्टूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ एवं शाही मस्जिद ईदगाह के प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता किया गया कि 13.37 एकड़ भूमि पर श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और मस्जिद दोनों बने रहेंगे. उसके बाद 17 अक्टूबर 1968 को यह समझौता पेश किया गया और 22 नवंबर 1968 को सब रजिस्ट्रार मथुरा के यहां इसे रजिस्टर किया गया था.
सवाल उठता है कि किसी विवाद को दोनों पक्षों ने आपसी सहमति से सुलझाते हुए अगर कोई समझौता कर लिया था,तो फिर 50 साल बाद उसे ठुकराते हुए एक नया कानूनी विवाद पैदा करने के पीछे आखिर क्या मकसद है? हालांकि इसका फैसला तो अदालत को ही करना है कि रजिस्टर्ड किये गए उस समझौते की कानूनी वैधता कितनी है लेकिन अंतिम फैसला न आने तक साम्प्रदायिक माहौल की फ़िज़ा पर तो असर पड़ता है.
आमतौर पर राजनीतिक दल अदालत के फैसले का सम्मान ही करते हैं,भले ही वह उनके पक्ष में न भी हो.लेकिन AIMIM के सुप्रीमो व हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने ज्ञानवापी-श्रृंगार गौरी मामले में वाराणसी की जिला अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए कहा है कि अदालत के इस फैसले के बाद देश में कई नई चीजें शुरू हो जाएंगी.अब हर मामले में कोई ना कोई कोर्ट पहुंच जाएगा और दावा करेगा कि आजादी से पहले से हम यहां इस तरह से काबिज थे.
उन्होंने कहा कि इस तरह से उपासना अधिनियम 1991को बनाने का मकसद की बेकार हो जाएगा. जबकि ये कानून इसलिये बनाया गया था, ताकि देश में धर्म स्थलों को लेकर विवाद थम जाएं. लेकिन इस मामले में आए फैसले ने ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम वापस 80-90 के दशक में जा रहे हैं. जिला अदालत के इस फैसले के बाद देश में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो जाएगी.
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