उत्तराखंड में हल्द्वानी के एक इलाके में अतिक्रमण की कार्रवाई के दौरान 8 फरवरी (गुरुवार) को हिंसा भड़क उठती है. देखते-देखते ही हिंसा व्यापक रूप ले लेती है. इसमें पाँच लोगों की मौत हो जाती है. दो सौ से अधिक लोग घायल हो जाते हैं. घायलों में आम लोगों के साथ ही पुलिसकर्मी, नगर पालिका के कर्मचारी और पत्रकार भी शामिल बताए जा रहे हैं. आगजनी की घटना में कई वाहनों को जला दिया जाता है.


प्रशासन की ओर से दी गयी जानकारी के मुताबिक़ उपद्रवियों की भीड़ ने पेट्रोल बम भी फेंका और आगज़नी भी की. उसके बाद अराजक तत्वों ने बनभूलपुरा पुलिस थाने का घेराव करने की भी कोशिश की. भीड़ से गोलियाँ चलने की भी आवाज़ आयी. उसके बाद पुलिस ने भीड़ को हटाने के लिए हवा में गोली चलाई. जिलाधिकारी का यह भी कहना है कि लोगों की मौत जिस गोली से हुई है, वो भीड़ ने चलाई या फिर पुलिस ने चलाई..इसकी जाँच की जाएगी.


पुलिस थाने और पुलिसकर्मियों पर हमला करने के सिलसिले में तीन प्राथमिकी दर्ज की गयी है. कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि भीड़ को कथित रूप से उकसाने में तक़रीबन 15 से  20 लोग शामिल हो सकते हैं.


हल्द्वानी में हिंसा के बाद तनाव की स्थिति


इस हिंसा के बाद शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ता है. इंटरनेट बंद करना पड़ता है. प्रशासन की ओर से उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया जाता है. हिंसा के अगले दिन 9 फरवरी को शहर की सड़कों पर सुरक्षाकर्मियों के अलावा आम लोग नहीं दिखाई पड़ते हैं. चारों ओर सन्नाटा पसरा रहता है. केंद्रीय सुरक्षाबलों की बटालियन हल्द्वानी की सड़कों पर मार्च करते नज़र आते हैं. सुरक्षा के मद्द-ए-नज़र शहर के संवेदनशील इलाकों में भारी पुलिस बल तैनात किया गया है.


देश लोक सभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है. ऐसे में देश के बाक़ी राज्यों की तरह उत्तराखंड में 8 फरवरी को हुई हिंसा बेहद चिंता का विषय है. फ़िलहाल स्थिति नियंत्रण में है. इस बीच सोशल मीडिया से लेकर तमाम मंचों से पूरे मामले को हिंदू बनाम मुस्लिम के रूप में भी बनाने की भरपूर कोशिश की जा रही है. आने वाले लोक सभा चुनाव को देखते हुए हल्द्वानी की हिंसात्मक घटना के बाद बने माहौल को किसी भी तरीक़े से सही नहीं कहा जा सकता है.


अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान हुई हिंसा


आधिकारिक या सरकारी तौर से मामले को समझने का प्रयास करें, तो हिंसा की यह वारदात हल्द्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में हुई. नैनीताल की जिलाधिकारी वंदना सिंह और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रहलाद मीणा ने घटना से जुड़ी सारी जानकारी मीडिया से साझा की. इन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि पूरा मामला अतिक्रमण हटाने की मुहिम और उसके विरोध से जुड़ा है. सरकारी स्तर पर बनभूलपुरा में अतिक्रमण हटाने का काम चल रहा था. नगरपालिका के कर्मचारी और पुलिसकर्मी इस काम में लगे हुए थे.


जिलाधिकारी वंदना सिंह के मुताबिक़ इस क्षेत्र के 'मलिक का बगीचा' पर कथित रूप से खड़े दो ढाँचे को ध्वस्त किया जा रहा था. स्थानीय लोग इन इमारतों को मदरसा और मस्जिद बता रहे हैं. इन्हीं इमारतों को ध्वस्त करने के क्रम में हिंसा भड़क उठती है. जिलाधिकारी वंदना सिंह का कहना है कि ये दोनों इमारतें अवैध तौर से बनाई गयी थी और इसका सरकारी दस्तावेज़ में कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है. सरकारी रिकॉर्ड में धार्मिक संरचना के तौर पर रजिस्टर नहीं है. उन्होंने जानकारी दी कि यह एक ख़ाली संपत्ति है और नगर निगम के दस्तावेज़ में नज़ूल भूमि के तौर पर दर्ज है. नोटिस देने और स्वयं से अतिक्रमण हटाने की मियाद पूरी होने के बाद ही नगरपालिका की ओर से यह कार्रवाई की जा रही थी. प्रशासन का कहना है कि पिछले कई दिनों से हल्द्वानी के अलग-अलग इलाकों में अतिक्रमण हटाने की मुहिम चलाई जा रही थी.


जिलाधिकारी वंदना सिंह का यह भी कहना है कि हल्द्वानी की हिंसा पूरी तरह से अकारण थी. यह अराजक तत्वों का काम था, जो ढाँचों को बचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे. इसके विपरीत वे लोग सरकारी कर्मचारियों, राज्य सरकार की मशीनरी और कानून-व्यवस्था को निशाना बना रहे थे.


नज़ूल भूमि पर बना था मदरसा- जिलाधिकारी


नज़ूल भूमि पर किसी का भी मालिकाना हक़ नहीं होता है. लंबी अवधि से ऐसे ज़मीन बिना वारिसों के ही खाली पड़ी रहती है. ऐसे ज़मीन को सरकार अपने अधिकार में ले लेती है. नज़ूल ज़मीन का रिकॉर्ड सरकारी राजस्व से जुड़े डॉक्यूमेंट में आधिकारिक तौर से नहीं होता है.


जहाँ पर हिंसा हुई, वो घनी आबादी वाला इलाका है. यहाँ पर मुस्लिमों की संख्या ज़ियादा है. बनभूलपुरा क्षेत्र में रेलवे की ज़मीन पर हुए अतिक्रमण को हटाने के लिए हल्द्वानी प्रशासन पिछले कई दिनों से अभियान चला रहा है. प्रशासन की ओर बार-बार यही कहा जा रहा है कि जैसे ही तथाकथिक अवैध मदरसे को तोड़ने का काम हुआ, बड़ी संख्या में लोग आकर हंगामा करने लगे. फिर पत्थरबाज़ी होने लगी, जिसके बाद पुलिस की ओर से जवाबी कार्रवाई की गयी. बाद में भीड़ ने नाराज़ होकर थाने पर हमला बोल दिया.


हिंसा और प्रशासन की लापरवाही का भी मसला


प्रशासन की ओर से कहा जा रहा है कि ध्वस्तीकरण की कार्रवाई शुरू करने से पहले नगर निगम उसका विधिक रूप से क़ब्ज़ा ले चुका था. इसके बावजूद इस तरह की हिंसा होती है, तो प्रशासन पर भी कई सवाल खड़े होते हैं. जब प्रशासन को पता था कि इलाका संवेदनशील है, उस हिसाब से अतिक्रमण की कार्रवाई से पहले पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी किसकी बनती है..सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है.


जो लोग भी हिंसा में शामिल थे, चाहे वो किसी भी धर्म से संबंध रखते हों, उन पर सख़्त से सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन फिर भी सवाल यह है कि आख़िर ऐसी हिंसा हुई कैसे. प्रशासन को पता था कि धर्म से जुड़ा मामला है, तो पर्याप्त सावधानी क्यों नहीं बरती गयी.


जब धार्मिक भावनाओं से जुड़ा मसला था...


ज़मीन किसकी है, मालिकाना हक़ किसका है..यह सब अलग मुद्दा है, लेकिन जब धार्मिक भावनाओं से जुड़ा मसला हो, प्रशासन को अतिक्रमण हटाने की पूरी कार्रवाई संवेदनशीलता के साथ ही सतर्कता से करने की ज़रूरत होती है. हिंसा के व्यापक स्वरूप को देखते हुए हल्द्वानी के मामले में प्रशासन की ओर से ऐसा नहीं किया गया. 


हम सब जानते हैं कि लोक सभा चुनाव को लेकर देश में क्या माहौल है..उत्तराखंड में क्या माहौल है. राजनीतिक तबक़े की ओर से हिन्दु-मुस्लिम के नाम पर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश भी लगातार की जा रही है. ऐसे में हल्द्वानी प्रकरण में एक और मुद्दे पर विचार किए जाने की ज़रूरत है. चुनावी और राजनीतिक लाभ के पहलू से भी हिंसा की इस घटना को समझने की ज़रूरत है.


अतिक्रमण हटाने का अभियान अचानक घटने वाली कोई घटना नहीं है. प्रशासन उस इलाके की संवेदनशीलता से भी वाक़िफ़ होगी, इसमें भी कोई दो राय नहीं है. उसके बावजूद इस तरह की हिंसा हो रही है, जिससे पूरे शहर में माहौल सांप्रदायिक हो जा रहा है, तो फिर इसके लिए उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार की भी जवाबदेही बनती है.


हल्द्वानी राजनीतिक तौर से है कांग्रेस का गढ़


राजनीतिक और चुनावी पहलू पर बात करने से पहले हल्द्वानी विधान सभा के बारे में जान लेते हैं. हल्द्वानी विधान सभा सीट.. नैनीताल-उधमसिंह नगर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में पड़ता है. हल्द्वानी से फ़िलहाल कांग्रेस के सुमित हृदयेश विधायक हैं. उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से ही हल्द्वानी विधान सभा क्षेत्र एक तरह से कांग्रेस का गढ़ है. पिछले पाँच विधान सभा के चुनाव में इस सीट पर चार बार (2002, 2012, 2017, 2022) कांग्रेस की जीत मिली थी. अलग राज्य बनने के बाद यहाँ बीजेपी सिर्फ़ 2007 में ही जीतने में सफल हो पायी थी. जब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था, तब हल्द्वानी विधान सभा सीट पर 1993 और 1996 में बीजेपी जीतने में सफल रही थी.


दूसरी तरफ नैनीताल-उधमसिंह नगर लोक सभा सीट पर पिछली दो बार से बीजेपी जीत रही है. यह लोक सभा सीट 2009 चुनाव से अस्तित्व में है. 2009 में इस सीट से कांग्रेस को जीत मिली थी. फ़िलहाल बीजेपी के अजय भट्ट यहाँ से लोक सभा सांसद हैं. वे मोदी सरकार में रक्षा राज्य मंत्री हैं.


जल्दबाज़ी और उतावलेपन में कार्रवाई - कांग्रेस


हल्द्वानी की हिंसा के बाद राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी तेज़ हो गया है. कांग्रेस नेता और हल्द्वानी के विधायक सुमित हृदयेश ने प्रशासन को कटघरे में खड़ा किया है. उनका कहना है कि प्रशासन की ओर से जल्दबाज़ी में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की गयी है. हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई पहले से 14 फरवरी तय थी, उसके बावजूद स्थानीय प्रशासन ने जल्दबाज़ी और उतावलेपन में यह कार्रवाई की है. उन्होंने इसे प्रशासन की एक बड़ी चूक बताया है. उनका यह भी कहना है कि कार्रवाई से पहले स्थानीय लोगों और मौलानाओं को भरोसे में लेना चाहिए था.


हल्द्वानी की हिंसा साज़िश का परिणाम - बीजेपी


दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने हल्द्वानी की हिंसा को साज़िश बता रही है. बीजेपी के कई सांसदों का कहना है कि उत्तराखंड के हल्द्वानी में हिंसा 'साजिश' प्रतीत हो रही है. बीजेपी सांसदों की मांग है कि दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. बम, देशी पिस्तौल  के साथ ही दूसरे हथियारों का इस्तेमाल किया गया. सरकारी अधिकारियों और पुलिस पर हमला किया गया. बीजेपी नेताओं का कहना है कि साज़िश को देखते हुए आस-पास के हर घर में तलाशी अभियान चलाया जाना चाहिए और दोषियों के ख़िलाफ़ बिना नरमी बरते सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए.


सांप्रदायिक रंग देकर चुनावी लाभ लेने का आरोप


इस बीच विपक्षी दलों की ओर से कहा जा रहा है कि बीजेपी हिंसा की इस घटना को सांप्रदायिक रंग देकर चुनावी लाभ लेने की रणनीति पर आगे बढ़ रही है.  शिवसेना (यूबीटी) सांसद प्रियंका चतुर्वेदी का कहना है कि किसी भी घटना से बीजेपी का एकमात्र इरादा ध्रुवीकरण का होता है. उन्होंने स्पष्ट तौर से कहा कि ""जब इरादा केवल ध्रुवीकरण होता है तो यही होता है... कर्फ्यू लगाया जाता है. मणिपुर की घटनाओं को देखिए. हर राज्य में बीजेपी ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ उसे ध्रुवीकरण का लाभ मिलेगा. उनका आज़माया हुआ मॉडल वोटों के लिए लोगों का ध्रुवीकरण करना है. प्रियंका चतुर्वेदी ने यह भी कहा कि अगर पुलिस पर हमला किया गया है तो यह शर्मनाक है, यह दिखाता है कि भाजपा शासित राज्यों में कितनी गुंडागर्दी चल रही है.


कांग्रेस के कुछ नेताओं का तो यह भी कहना है कि तमाम प्रयासों के बावजूद फरवरी 2022 में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी हल्द्वानी से नहीं जीत पायी थी. भविष्य में हल्द्वानी में बीजेपी के पक्ष में माहौल बन सके, इसके लिए हिन्दू-मुस्लिम विमर्श गढ़कर शहर का माहौल ख़राब करने की कोशिश की जा रही है. आगामी लोक सभा चुनाव में यहाँ बीजेपी को बढ़त बनाने में मदद मिल सके, इसके लिए भी हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव को किसी न किसी तरह से बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है. कांग्रेस के साथ ही स्थानीय लोगों के बीच से भी इस तरह की बातें निकलकर सामने आ रही हैं.



 


समान नागरिक संहिता और हल्द्वानी में हिंसा


एक और भी बहुत ही महत्वपूर्ण बात है. उत्तराखंड विधान सभा से 7 फरवरी या'नी बुधवार को समान नागरिक संहिता या'नी (UCC) से जुड़ा विधेयक ध्वनि मत से पारित होता है और उसके अगले ही दिन हल्द्वानी में इस तरह की हिंसक घटना होती है. आज़ाद भारत के इतिहास में उत्तराखंड विधान सभा.. समान नागरिक संहिता का विधेयक पारित करने वाली पहली विधान सभा बन गई है. अलग-अलग संगठनों और समुदाय की आपत्तियों के बावजूद प्रदेश की बीजेपी सरकार यूसीसी पर क़ानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ती है. अब विधान सभा से पारित होने के बाद यह विधेयक राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा. राष्ट्रपति की अनुमति के बाद ही यह क़ानून का रूप ले पाएगा.


यूसीसी का उत्तराखंड के सांप्रदायिक माहौल पर असर


उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता को लेकर पिछले दो साल से राजनीतिक माहौल बनाने का प्रयास चल रहा था. हालाँकि समान नागरिक संहिता को लेकर जो असली मकसद है, वो अगर राज्य विशेष सीमित है, तो फिर उसका कोई ख़ास मतलब नहीं रह जाता है. दरअसल समान नागरिक संहिता सही मायने में पूरे देश के लिए एक तरह के सिविल क़ानून की बात करता है, न कि एक अलग-अलग राज्य के लिए अलग-अलग क़ानून की बात.


हमारे संविधान के भाग 4 में राज्य की नीति के निदेशक तत्व ( DIRECTIVE PRINCIPLES OF STATE POLICY) के तहत अनुच्छेद 44 में स्पष्ट तौर से कहा गया है कि '' राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में (throughout the territory of India) नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा."  इसका मतलब ही है कि संविधान में भी यही अवधारणा व्यक्त है कि देश के लिए समान नागरिक संहिता होना चाहिए, न कि अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग नागरिक संहिता बने.


केंद्रीय स्तर पर अगर ऐसी कोशिश हो, तो उसका कोई निहितार्थ समझ में आता है, लेकिन राज्य स्तर पर इस तरह की कवायद को राजनीतिक लाभ से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है. उत्तराखंड की सरकार तमाम विरोधों के बावजूद राज्य के लोगों के लिए यूसीसी ले आती है. हालाँकि अभी विधेयक ही पारित हुआ है, क़ानून का रूप लेने में अभी समय है. लेकिन राजनीतिक तौर से तो माहौल पक्ष बनाम विपक्ष का बन ही चुका है. अन्य संगठनों और समुदाय के साथ ही मुस्लिम समुदाय के बड़े तबक़े से यूसीसी का विरोध हम सब जानते हैं.


प्रदेश को राजनीतिक प्रयोग का केंद्र न बनाया जाए!


सवाल और आशंका तो यह भी है पिछले दस साल से केंद्र की सत्ता पर विराजमान बीजेपी ने समान नागरिक संहिता को लेकर राजनीतिक और सरकारी प्रयोग करने के लिए उत्तराखंड को ही क्यों चुना है. बीजेपी समान नागरिक संहिता को लेकर अगर इतनी ही संजीदा है, फिर मोदी सरकार ने केंद्रीय स्तर पर क़ानून बनाने के लिए इस अवधि में कोई ठोस पहल क्यों नहीं की. प्रयोगशाला के तौर पर उत्तराखंड का चयन क्यों किया गया. पहाड़ी राज्य है. छोटा राज्य है. विरोध के स्वर को अनसुनी करना या दबाना आसान होगा..यह सब कुछ पहलू हैं, जो विचारणीय हैं.


यूसीसी से जुड़े विधेयक का विधान सभा से पारित होना और उसके अगले ही दिन हल्द्वानी में प्रशासन की ओर से अतिक्रमण हटाने से जुड़ी ऐसी कार्रवाई करना जिससे धार्मिक माहौल बिगड़ सकता है.. इन दोनों का ही सीधे तौर से तो कोई संबंध नहीं है, लेकिन कुछ सवाल और कुछ शंका ज़रूर सामने आते हैं.


जब ऐसा हुआ है और हिंसा भड़की है, तो सरकारी जवाबदेही से उत्तराखंड सरकार पीछे नहीं भाग सकती है. जब यूसीसी को लेकर पहले से ही प्रदेश में माहौल बिगड़ने की आशंका बनी हुई थी, तो वैसी परिस्थिति में हल्द्वानी के उस संवेदनशील इलाके में नगरपालिका की ओर से किसी भी अभियान से पहले क्या पूरी सतर्कता नहीं बरती जानी चाहिए थी.क्या वहाँ के स्थानीय निवासियों को भरोसे में नहीं लिया जाना चाहिए था. सवाल यह भी है, जिसकी राजनीतिक जवाबदेही पुष्कर सिंह धामी सरकार की ही बनती है.


प्रशासनिक और राजनीतिक जवाबदेही भी हो तय


हिंसा में शामिल उपद्रवी और अराजक तत्व तो ज़िम्मेदार हैं ही. जो भी दोषी है, उसको सख़्त से सख़्त सज़ा मिलनी ही चाहिए, लेकिन क्या प्रशासन और राजनीतिक अदूरदर्शिता के स्तर पर जो लापरवाही हुई है, उसकी सज़ा किसी को मिलेगी..सवाल यह भी है.


हल्द्वानी की गिनती उत्तराखंड के शांत इलाकों में की जाती है. इससे पहले कभी भी इस स्तर पर धार्मिक आधार पर माहौल बिगड़ने की घटना हल्द्वानी में नहीं देखी गयी है. चाहे हल्द्वानी के लोग हों, पूरे उत्तराखंड के आम लोग..या पूरे देश के आम लोग हों.. सबको एक बात गंभीरता के साथ समझने की ज़रूरत है. हिंसा से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. हम सबने जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था को पिछले सात दशक में बढ़ावा दिया है, उसमें एक आम नागरिक राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए सिर्फ़ एक संख्या मात्र है. सैद्धांतिक तौर से इसे लोग स्वीकार करें या न करें, लेकिन यही व्यवहार में वास्तविकता है.


हिंसा और चुनावी ध्रुवीकरण से हमेशा रहें दूर


चाहे आप किसी भी धर्म से हों, हिंसा से दूर रहें. हिंसा होते ही प्रशासन को जवाबी कार्रवाई में कुछ भी करने की छूट मिल जाती है और आप उनके लिए सिर्फ़ एक नंबर होते हो. घटना के बाद प्रशासन के पास पूरी ताक़त होती है.. ख़ुद को पाक-साफ़ बताने की और साबित करने की. लेकिन आम नागरिकों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं होती है. कुल मिलाकर नुक़सान सिर्फ़ और सिर्फ़ आम लोगों का ही होता है. चुनावी ध्रुवीकरण की कोशिशों से आम नागरिकों का न तो अतीत में कभी भला हो पाया है और न ही भविष्य में होने वाला है. इससे भला सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का ही होते आया है और आगे भी होते रहेगा. चुनावी एजेंडा का हथियार बनने से आम नागरिक सदैव बचें और किसी भी तरह की हिंसा की कोशिशों से दूर रहें.


प्रदेश में नहीं बिगड़ना चाहिए सांप्रदायिक माहौल


हल्द्वानी हिंसा को देखते हुए प्रदेश सरकार को भी हर वो कोशिश करनी चाहिए, जिससे उत्तराखंड के दूसरे इलाकों में माहौल नहीं बिगड़े. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड अपने आप में बेहद ख़ूबसूरत प्रदेश है. इसकी ख़ासियत रही है कि यहाँ सदैव ही सांप्रदायिक माहौल काफ़ी सौहार्दपूर्ण रहा है. हल्द्वानी हिंसा के बाद इस ख़ासियत पर कोई आँच नहीं आना चाहिए. यह ख़ासियत बरक़रार रहे, इसकी पूरी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही प्रदेश की सरकार की है.


उसके साथ ही इस दिशा में प्रदेश में राजनीति करने वाले हर दल की भी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही बनती है. इसके साथ ही आम लोगों ख़ासकर युवाओं को बिना सोचे-समझे किसी भी तरह की अफ़वाह के झाँसे में नहीं आना है. किसी राजनीतिक दल के नेता या कार्यकर्ता के साथ ही धार्मिक नेताओं और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के उकसावे में नहीं आना है. यह बेहद ज़रूरी और भविष्य के लिहाज़ से प्रासंगिक है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]