हमास-इजरायल जंग और मानवीय पहलू, इतिहास करेगा फ़ैसला, यूएन महासचिव के बयान को मिलना चाहिए महत्व
हमास-इजरायल के बीच 7 अक्टूबर से जंग जारी है. हालांकि इसे जंग कहना सही नहीं होगा. हमास के हमले के बाद इजरायल की ओर से जवाबी कार्रवाई में सिर्फ हमास के लड़ाकों पर ही नहीं, फिलिस्तीन के आम लोगों पर भी बे-इंतिहा ज़ुल्म ढाया जा रहा हैं. पूरी दुनिया देख रही है कि इजरायल सिर्फ़ हमास के लड़ाकों को निशाना नहीं बना रहा है. इजरायल की सैन्य कार्रवाई में गाजा में रह रहे मासूम लोगों, यहाँ तक कि बच्चों तक को नहीं छोड़ा जा रहा है. अब तो वेस्ट बैंक में भी आम लोगों की जान जा रही है.
गाजा में भारी तबाही और इजरायल के मंसूबे
इजरायल की सेना गाजा में रहने वाले लोगों पर कहर बरपा रही है. फिलिस्तीन में मौत का आँकड़ा 8 हजार के पार पहुँच चुका है. इनमें आम लोगों से लेकर महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं. इजरायली सेना की ओर ज़मीनी हमले तेज़ कर दी गयी है. इस इलाके में इंटरनेट और फ़ोन लाइन ठप है. वहाँ रहने वाले लाखों लोगों का संपर्क पूरी दुनिया से कट चुका है. इजरायल की ओर से बमबारी लगातार तेज़ होती जा रही है. वेस्ट बैंक इलाके में भी इजरायली सेना की कार्रवाई से आम लोग भी दहशत में हैं. इस इलाके में भी सैंकड़ों फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत हो चुकी है. अल ज़वायद और मेघाज़ी पर इजरायली हमले में कई लोगों के मारे जाने की संभावना है. इजरायली कार्रवाई से हज़ारों फिलिस्तीनी विस्थापित हो इधर-उधर शरण लेने को बेबस हैं.
गाजा के अल अहली अस्पताल में किस कदर मासूम लोगों की जानें गयी, यह पूरी दुनिया देख चुकी है. गाजा के अल-कुद्स अस्पताल पर हमले की आशंका से वहां के लोग भयभीत हैं. हद तो यह है कि फिलिस्तीन के पीड़ित इलाकों में राहत सामग्री भी पहुंचना बेहद मुश्किल है. इस मामले में भी इजरायल की ओर से लगातार असंवेदनशीलता का परिचय दिया जा रहा है.
मिडिल ईस्ट वार जोन बनने के मुहाने पर
इजरायल सेना की कार्रवाई हमास के 7 अक्टूबर के हमले के बाद की जवाबी कार्रवाई से काफ़ी आगे बढ़ गयी है. मिडिल ईस्ट का पूरा इलाका वार जोन में तब्दील होने के मुहाने पर खड़ा है. फिलिस्तीन के आम लोगों को एक बार फिर से अत्याचार की मार झेलनी पड़ रही है. इतना होने के बाद भी दुनिया के आर्थिक और सैन्य तौर से ताक़तवर मुल्कों की ओर से इस मामले से जुड़े मानवीय पहलू को पूरी तरह से नज़र-अंदाज़ किया जा रहा है. अगर मानवीय पहलू से जोड़ते हुए कुछ बयान आ भी रहा है, तो वो महज़ औपचारिकता ही दिख रही है. चाहे अमेरिका हो या पश्चिम के बाक़ी देश ..सबका ध्यान इलाके में अपने हितों पर ज़्यादा टिका है. अधिकांश देश खुलकर इजरायल की कार्रवाई का समर्थन करते नज़र आ रहे हैं.
मानवीय पहलू से आँख मूँदते बड़े देश
फिलिस्तीन के आम लोगों पर क्या हो रहा है, किस तरह से वो लोग भय के माहौल में जीने को विवश हैं, खाने-पीने के सामानों की आपूर्ति तक नहीं हो पा रही है. इन पहलुओं पर औपचारिकता से आगे बढ़कर सही मायने में वैश्विक व्यवस्था को आकार देने वाले देशों में सरकार के स्तर पर ग़ौर नहीं किया जा रहा है.
हालात को लेकर यूएन महासचिव की चिंता
हालाँकि इस बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतारेस बार-बार अपने बयानों से पूरी दुनिया को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. उनके बयानों से ज़ाहिर है कि वे चाहते हैं कि दुनिया के बड़े-बड़े देश इस मसले पर फिलिस्तीन के लोगों पर वर्षों से हुए इजरायली ज़ुल्म के नज़रिये से ग़ौर करें. ऐसा होने पर ही फिलिस्तीन के लोगों को फ़िलहाल बेइंतिहा ज़ुल्म से छुटकारा मिल सकता है.
दरअसल एंटोनियो गुतारेस ने 24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मिडिल ईस्ट के मौजूदा हालात पर अपनी बात रखी. उनकी इस टिप्पणी में एक बात स्पष्ट था. इसमें उन्होंने पूरी दुनिया को बाक़ी पक्षों के साथ ही फिलिस्तीन के लोगों से जुड़े मानवीय पहलू की नज़र से हमास-इजरायल संघर्ष को देखने की बात कही है.
सुरक्षा परिषद में 24 अक्टूबर को एंटोनियो गुतारेस ने जो बयान दिया, उसमें कहीं भी हमास के 7 अक्टूबर के हमले को सही नहीं ठहराया गया है. हालांकि इजरायल समर्थक लोगों ने यूएन महासचिव के बयान को उस रूप में मीडिया के अलग-अलग रूप में प्रचारित किया. यहां तक कि इजरायल ने एंटोनियो गुतारेस के इस्तीफे तक की माँग कर दी.
पूरे मिडिल ईस्ट में युद्ध फैलने का ख़तरा
एंटोनियो गुतारेस ने कहा था कि गाजा में युद्ध के तेज़ होने से पूरे रीजन में इसके फैलने और बढ़ने का ख़तरा है. उन्होंने एक बात स्पष्ट किया था कि चाहे कुछ भी हो, नागरिकों का सम्मान और सुरक्षा मूल सिद्धांत है. इस सिद्धांत पर हर किसी को स्पष्ट होना चाहिए. एंटोनियो गुतारेस ने अपने बयान की शुरूआत में ही कह दिया था कि उन्होंने 7 अक्टूबर को इजरायल में हमास की ओर से भयावह और अभूतपूर्व आतंकी कृत्यों की स्पष्ट रूप से निंदा की है. इस हमला को लेकर उनका कहना था कि नागरिकों की जानबूझकर हत्या, घायल करना और अपहरण करने के साथ ही नागरिकों को निशाना बनाकर रॉकेट लॉन्च करने को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
नागरिकों का सम्मान और सुरक्षा मूल सिद्धांत
इसके बाद एंटोनियो गुतारेस ने अपनी टिप्पणी के ज़रिये उस दर्द को, उस पीड़ा को बयाँ करने की कोशिश की थी, जिससे फिलिस्तीन के लोग 56 सालों से झेल रहे हैं. गुतारेस का कहना था कि यह भी पहचानना महत्वपूर्ण है कि हमास के हमले अचानक नहीं हुए. फिलिस्तीनी लोग 56 वर्षों से घुटन भरी जकड़न का सामना कर रहे हैं. फिलिस्तीन के लोगों ने सेटलमेंट और हिंसा के नाम पर अपनी ज़मीन को लगातार खोया है. उनकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी. लोग विस्थापित होते गये. घर नेस्तनाबूद होते गये. फिलिस्तीन के लोगों के लिए अपनी दुर्दशा के राजनीतिक समाधान की उम्मीदें ख़त्म होती जा रही हैं. आगे एंटोनियो गुतारेस का कहना था कि फिलिस्तीनी लोगों की शिकायतें हमास के भयावह हमलों को उचित नहीं ठहरा सकतीं. साथ ही हमास के हमले के बदले में फ़िलिस्तीनी लोगों की सामूहिक सज़ा को उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
नागरिकों की हत्या से यूएन महासचिव चिंतित
यूएन महासचिव का यही कहना था कि सभी पक्ष अंतरराष्ट्रीय मानवीय क़ानून के तहत अपने दायित्वों पर कायम रहें और उनका सम्मान करें. नागरिकों को बचाने के लिए सैन्य अभियानों के संचालन में हमेशा सावधानी बरतें. अस्पतालों का सम्मान और सुरक्षा करें. इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र के उन फैसिलिटी को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश न की जाए, जिसमें 6 लाख से ज़्यादा फिलिस्तीनी शरण लिए हुए या रह रहे हैं.
एंटोनियो गुतारेस की मुख्य चिंता नागरिकों को हो रही परेशानी और उनकी मौत को लेकर है. यही वज्ह है कि वे कहते हैं कि किसी भी सैन्य संघर्ष में नागरिकों की सुरक्षा सर्वोपरि है. नागरिकों की सुरक्षा का मतलब उन्हें मानव ढाल के रूप में प्रयोग करना कभी नहीं हो सकता.
फिलिस्तीन के लोग 56 सालों से भुगत रहे हैं
इजरायल अपने नागरिकों की रक्षा का हवाला देकर फिलिस्तीन के लोगों पर 1967 के बाद से ही ज़ुल्म करता रहा है. इस बार भी हमाल के हमले का बहाना बनाकर यही कर रहा है. एंटोनियो गुतारेस इसको लेकर परेशान हैं. उन्होंने सुरक्षा परिषद में बेबाकी से कहा कि नागरिकों की रक्षा करने का मतलब दस लाख से अधिक लोगों को दक्षिण की ओर जाने का आदेश देना नहीं है, जहां कोई आश्रय नहीं है, कोई भोजन नहीं है, कोई पानी नहीं है, कोई दवा नहीं है और कोई ईंधन नहीं है. इतना के बाद भी दक्षिण के इलाकों में बमबारी जारी रखना कहीं से भी उचित नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का स्पष्ट उल्लंघन
गाजा में फिलिस्तीन के आम नागरिकों के साथ जो कुछ हो रहा है, उसे एंटोनियो गुतारेस ने अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का स्पष्ट उल्लंघन माना है. उनका स्पष्ट मत है कि किसी भी सशस्त्र संघर्ष में कोई भी पक्ष अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून से ऊपर नहीं है.
एंटोनियो गुतारेस ने 24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इजरायल के साथ ही फिलिस्तीन ..दोनों ही पक्षों से अपील भी की. उन्होंने कहा कि इजरायलियों को सुरक्षा के लिए अपनी वैध जरूरतों को साकार होते देखना चाहिए. दूसरी तरफ़ फिलिस्तीनियों को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों, अंतरराष्ट्रीय कानून और पिछले समझौतों के अनुरूप एक स्वतंत्र राज्य के लिए अपनी वैध आकांक्षाओं को साकार होते देखना चाहिए. साथ ही दोनों पक्षों को इस कवायद में मानवीय गरिमा को बनाए रखने के सिद्धांत पर क़ायम रहना चाहिए.
एंटोनियो गुतारेस लगातार आम नागरिकों की सुरक्षा को सबसे महत्वपूर्ण बता रहे हैं. उन्होंने 28 अक्टूबर को भी सोशल मीडिया मंच 'एक्स' पर इस बाबत लिखा. उन्होंने लिखा कि
"मैं मिडिल ईस्ट में मानवीय युद्धविराम, सभी बंधकों की बिना शर्त रिहाई और आवश्यक पैमाने पर जीवन रक्षक आपूर्ति की डिलीवरी के लिए अपना आह्वान दोहराता हूं. सभी को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी. यह सच्चाई का क्षण है. इतिहास हम सबका न्याय (फ़ैसला) करेगा"
ताक़तवर देशों के रुख़ से इजरायल को बढ़ावा
हमास-इजरायल पर अधिकांश पश्चिमी देशों का रुख़ पूरी तरह से तेल अवीव के पक्ष में रहा है. इजरायल को इससे निश्चित तौर से बढ़ावा भी मिल रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव बड़े-बड़े देशों के इस रवैये से चिंतित हैं. अभी संयुक्त राष्ट्र उस तरह की संस्था नहीं रह गयी है, जो अपने अधिकार का इस्तेमाल कर दुनिया के किसी हिस्से में हो रहे युद्ध को रुकवा सके. लेकिन एंटोनियो गुतारेस के बयान का सीधा मतलब है कि देश चाहे कोई भी हो मानवीय पहलू के सिद्धांत को न भूले.
एंटोनियो गुतारेस ने पिछले कुछ दिनों में जो कुछ भी कहा है, उसमें दो वाक्य बेहद महत्वपूर्ण है. पहला, यह भी पहचानना महत्वपूर्ण है कि हमास के हमले अचानक नहीं हुए. दूसरा, यह सच्चाई का क्षण है और इतिहास हम सबका न्याय करेगा. अभी तो तमाम बड़े-बड़े और ताक़तवर देश इजरायल का खुलेआम समर्थन करते दिख रहे हैं, लेकिन यह भी सच्चाई है कि इजरायल ने 1967 से फिलिस्तीन के लोगों पर जो कुछ भी किया है, उसे नरसंहार ही माना जायेगा.
अरब-इजरायल युद्ध 1967 में 6 दिनों तक चला
अरब-इजरायल युद्ध 1967 में 6 दिनों तक चला था. इसमें एक तरफ़ इजरायल था और दूसरी तरफ़ अरब देशों का गठबंधन. अरब देशों के गठबंधन में मुख्य रूप से मिस्र, सीरिया और जॉर्डन शामिल थे. यह युद्ध 1967 में 5 से 10 जून तक चला था. इसे तीसरा अरब-इजरायल युद्ध के नाम से भी जानते हैं. इस युद्ध में इजरायल की जीत हुई. जब युद्ध रुका तो इजरायल ने सीरिया के गोलान हाइट्स, जॉर्डन के कब्जे वाले वेस्ट बैंक (पूर्वी यरुशलम समेत), और मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के साथ-साथ मिस्र के कब्जे वाले गाजा पट्टी पर क़ब्ज़ा कर लिया था. इस युद्ध के बाद व्यापक पैमाने पर विस्थापन देखा गया. वेस्ट बैंक से तक़रीबन चार लाख फिलिस्तीनी वेस्ट बैंक से और एक लाख सीरियाई गोलान हाइट्स से भागने को विवश हो गए या निष्कासित कर दिए गए.
फिलिस्तीन के आम लोगों का दर्द कौन समझेगा?
इस युद्ध के बाद से फिलिस्तीन के आम लोगों को लगातार इजरायल की ओर से हिंसा का सामना करना पड़ा है. हिंसा में अब तक कितने मासूमों की जान गयी है, इसके बारे में भी ठीक-ठीक संख्या बताना शायद ही संभव है. इसके अलावा इजरायली घेराबंदी से फिलिस्तीन के लोगों तक जीवन यापन के लिए ज़रूरी सामानों की आपूर्ति में भी बाधा आती रही है. एंटोनियो गुतारेस जिस 56 साल के वैक्यूम की बात कर रहे हैं, उसका संबंध इजरायल के इस दमन और हिंसा से ही है.
फिलिस्तीन पर इजरायली ज़ुल्म की लंबी दास्तान
इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष में 1967 के बाद से हज़ारों मासूम लोगों की जान गयी है. घायल होने वालों की संख्या लाखों में है. दोनों ही पक्षों से लोग मारे गये हैं, लेकिन इजरायल की तुलना में फिलिस्तीन के लोगों की जान कई गुना ज़्यादा गयी है. मानवीय मामलों के समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOCHA) के मुताबिक़ 2008 से 2020 के बीच संघर्ष में 5,600 फिलिस्तीनी मारे गये हैं. वहीं इस दौरान 1,15,000 फिलिस्तीनी घायल हुए हैं. दूसरी तरफ़ इस अवधि में 25 इजरायलियों की मौत हुई है और 5,600 इजरायली घायल हुए हैं.
हर साल फिलिस्तीनी नागरिकों की गयी है जान
1967 के बाद हर साल इजरायली सैनिकों ने फिलिस्तीन के आम नागरिकों की जान ली है. 1967 के बाद से ग़ौर करें, तो यूएन के अनुसार बाक़ी किसी और साल के मुक़ाबले 2014 में इजरायल ने सबसे ज़्यादा फिलिस्तीनियों की जान ली है. 2014 में गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम में इजरायल की कार्रवाई में 2,314 फिलिस्तीनी मारे गए और 17,125 घायल हुए. अब इस मामले में 2023 ने 2014 को भी काफ़ी पीछे छोड़ दिया है. 1982 के लेबनान वार में हजारों की संख्या में फिलिस्तीनों की मौत हुई थी. एक प्रमुख पहलू है कि 1967 के बाद इजरायल की कार्रवाई में कितने फिलिस्तीनी मारे गये हैं, इसका वास्तविक आँकड़ा देना संयुक्त राष्ट्र के लिए भी आसान नहीं है.
कब रुकेगा फिलिस्तीनी लोगों का नरसंहार?
हमास का 7 अक्टूबर का हमला किसी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन उस हमले की आड़ में इजरायली सेना की कार्रवाई में बड़े पैमाने पर मासूम फिलिस्तीनियों को मारना भी कही से भी तर्कसंगत नहीं है. इजरायल तर्क दे रहा है कि वो हमास पर कार्रवाई कर रहा है. जबकि इजरायल की सेना की ओर से वेस्ट बैंक में भी ज़मीनी अभियान तेज़ होता जा रहा है, जहाँ हमास का कोई ख़ास ज़ोर नहीं है. हमास पर कार्रवाई के नाम पर फिलिस्तीनी लोगों का नरसंहार किया जा रहा है. फिलिस्तीन के निर्दोष लोग हज़ारों की संख्या में मारे जा रहे हैं. इजरायल का इरादा पूरी तरह से स्पष्ट है कि वो फिलिस्तीनी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के इरादे से आगे बढ़ रहा है. फिलिस्तीनियों पर इजरायल के नरसंहार को पूरी दुनिया न सिर्फ़ देख रही है, बल्कि तमाम बड़े देश एक तरह से इजरायल का समर्थन ही कर रहे हैं.
गुतारेस के बयान को महत्व देने की ज़रूरत
यह सच्चाई का क्षण है. इतिहास हम सबका न्याय करेगा..यह कहकर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुतारेस इसी की ओर ध्यान खींचना चाह रहे हैं. फिलिस्तीन के आम नागरिक इजरायली नरसंहार की भेंट चढ़ने को विवश हैं. पूरी दुनिया ख़ासकर वैश्विक व्यवस्था को निर्धारित करने वाले प्रभावी देश वास्तविकता से आँखें मूँदकर इजरायल का समर्थन कर रहे हैं. एंटोनियो गुतारेस इसी बात को अपने बयानों से ज़ाहिर करना चाह रहे हैं.
क्यों सच्चाई से आँखें फेर रहे हैं बड़े देश?
ताक़तवर देश सच्चाई से भले ही आँखें फेर लें, लेकिन सच तो सच है. फिलिस्तीनी लोग 1967 से ही इजरायली हिंसा की मार और अत्याचार झेलने को मजबूर हैं. वर्तमान में भी हमास के हमले का बहाना बनाकर इजरायल फिलिस्तीन को समेटना चाहता है. अपने इस मकसद में इजरायल... फिलिस्तीन के निरीह, निर्दोष नागरिकों को (महिला और बच्चे समेत) मौत की घात उतार रहा है. यह सीधे-सीधे अंतरराष्ट्रीय मानवता के सिद्धांत का उल्लंघन है. इस सच को जानता सब कोई है, स्वीकार कर प्रतिकार करने वाले सिर्फ़ चंद लोग ही बचे हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस उनमें से एक हैं.
हालांकि दुनिया की सबसे बड़ी और पन्नों पर प्रभावशाली मानी जाती रही अंतरराष्ट्रीय संस्था के प्रमुख होने के बावजूद एंटोनियो गुतारेस के पास बयान देने और अपील करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. यह भी सच्चाई है. संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजरायल-हमास संघर्ष में तत्काल मानवीय संघर्ष विराम से जुड़े प्रस्ताव पर दुनिया के ताकतवर देशों के रुख़ से भी यही कहा जा सकता है.
युद्धविराम पर बड़े देशों का रुख़ समझ से परे
संयुक्त राष्ट्र महासभा में 27 अक्टूबर को जॉर्डन की तरफ़ से मानवीय आधार पर तत्काल संघर्ष विराम लागू करने से जुड़े प्रस्ताव पर मतदान हुआ था. इस प्रस्ताव का शीर्षक 'आम नागरिकों की सुरक्षा और कानूनी एवं मानवीय दायित्वों को कायम रखना' था. इसमें तत्काल मानवीय संघर्ष-विराम और गाजा पट्टी में निर्बाध मानवीय पहुंच सुनिश्चित करने का आह्वान शामिल था. प्रस्ताव के पक्ष में 120 देशों ने वोट किया और 14 देशों ने ख़िलाफ़ में मतदान किया. यूएन महासभा में 45 देश मतदान से दूर रहे. इनमें भारत के साथ ही कनाडा, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड्स, जापान, ब्रिटेन, डेनमार्क और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश शामिल हैं. इजरायल और अमेरिका ने प्रस्ताव के ख़िलाफ़ मतदान किया. वहीं चीन, रूस और फ्रांस ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया.
भारत का रवैया हमेशा से ही फिलिस्तीन के नागरिकों को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है. हालांकि इस बार भारत भी हमास की 7 अक्टूबर की कार्रवाई के बाद खुलकर इजरायल के साथ नज़र आ रहा है. भारत अपने रुख़ को आतंकवाद के ख़िलाफ़ स्पष्ट संदेश बता रहा है. सैद्धांतिक तौर भारत यह भी कह रहा है कि फिलिस्तीन को लेकर उसके रवैये में कोई बदलाव नहीं हुआ है और वो अभी भी इजरायल -फिलिस्तीन के बीच संघर्ष के द्वि-राष्ट्र समाधान की नीति पर क़ायम है.
नागरिक सुरक्षा और मानवीय पहलू सबसे महत्वपूर्ण
हालांकि एक सवाल ज़रूर उठता है. जिस तरह से 7 अक्टूबर के बाद इजरायल की सेना जवाबी कार्रवाई में फिलिस्तीन के आम नागरिकों को भी निशाना बना रही है, उसके ख़िलाफ़ भारत की ओर से कोई सीधी प्रतिक्रिया नहीं आयी है. इस मसले पर व्यावहारिक तौर से भारत का रुख़ भी कमोबेश इजरायल के समर्थन वाले अमेरिका और बाक़ी पश्चिमी देशों जैसा ही कहा जा सकता है. पूरे मामले को पिछले पाँच दशक के उस तराजू पर भी तौल कर देखा जाना चाहिए, जिसमें फिलिस्तीनियों के ऊपर ज़ुल्म की एक लंबी दास्तान छिपी है.
वैश्विक व्यवस्था में विकसित और प्रभावशाली विकासशील देश लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा करते हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार नागरिक सुरक्षा और मानवीय पहलू है. इसके बावजूद फिलिस्तीन के मामले में दशकों से ऐसे देश सैद्धांतिक तौर से कुछ बोलते हैं और व्यवहार में कुछ और ही करते आए हैं. मौजूदा संकट में भी इस रवैये में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस के बयानों में छिपी इस पीड़ा को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है.
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