आज विश्व रंगमंच दिवस है यानी 'वर्ल्ड थिएटर डे'. याद आ रहा है फ़िल्म आनंद का वह सदाबहार संवाद- 'बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है. कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता...’ लेकिन इस संवाद को फ़िल्म को नाटक का उधार समझा जाना चाहिए, नाटक को फ़िल्म का नहीं, क्योंकि भारत नाट्यशास्त्र की जननी है. सदियों पहले के कालिदास से लेकर वाया भरतमुनि भारतीय रंगमंच के पास आज की तारीख़ तक सुनाने-बताने-दिखाने को बहुत कुछ है. यह बात और है कि रेडियो, फ़िल्मों और टीवी के आक्रमण के चलते भारतीय रंगमंच आज़ादी के बाद से ही अपने अस्तित्व की तीक्ष्ण लड़ाई लड़ने को मजबूर हो गया था.


बहुत सारे रंगकर्मी आजकल थिएटर को टीवी और फ़िल्मों में जाने की एक रहगुज़र मात्र समझ बैठे हैं. हालांकि, रंगमंच का इतिहास गवाह है कि जो अभिनेता नाटकों से फ़िल्मों की दुनिया में गए, उनकी पहली पसंद रंगमंच ही बना रहा. चाहे वह महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर रहे हों, गिरीश कर्नाड हों, शबाना आज़मी हों, कुलभूषण खरबंदा हों, नसीरुद्दीन शाह हों, ओम पुरी हों, अनुपम खेर हों, परेश रावल हों, पंकज कपूर हों, सौरभ शुक्ला हों, मनोज वाजपेई हों या फिर आज की जगमगाती अभिनेत्री कंगना राणावत हों. सूची लंबी है. थिएटर करने के लिए आज भी ये सितारे आहें भरते हैं.


लेकिन हिंदी रंगमंच का संघर्ष अब सिर्फ मध्यवर्ग का संघर्ष नहीं रह गया, इसमें भारत की तमाम सांस्कृतिक और सामाजिक लड़ाइयां शामिल हो गई हैं. तकनीक के अंधकार में 70 के दशक से ही शोषितों एवं वंचितों की आवाज़ मंच पर डूबने लगी थी. अस्थि-पिंजर बचाए रखने के लिए गंभीरता की जगह भोंड़े एवं विद्रूप मध्यवर्गीय प्रहसनों ले ली. लेकिन भारतीय रंगमंच ने इस पतन के तत्काल बाद ही भांप लिया था कि इस अंधकार पर विजय पाने का एकमात्र अस्त्र है- नाटक का कंटेंट और दमदार अभिनय तथा बिना तामझाम के अपनी बात निडरतापूर्वक दर्शकों तक संप्रेषित करने की शक्ति. तभी तो हिंदी रंगमंच के कुछ कालजयी नाटक इसी कालखंड में लिखे और मंचित किए गए.


सामाजिक-राजनीतिक उत्तरदायित्व स्वीकारने वाले इन नाटकों को इनके तीखेपन के बावजूद दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया और सत्ताधीश तिलमिला कर रह गए. उन्होंने रंगकर्मियों पर प्रायोजित हमले करवाए; यहां तक कि प्रतिबद्ध रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की हत्या तक कर दी गई थी. इन कालजयी नाटकों में आपातकाल के दौरान खुल्लमखुल्ला मंचित ख़ुद सफ़दर हाशमी का ‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’, विजयदान देथा (विज्जी) की कहानी पर आधारित ‘चरणदास चोर’, गिरीश कर्नाड द्वारा लिखित-निर्देशित-अभिनीत ‘तुग़लक’, असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नईं वेख्यां’, हबीब तनवीर का ‘आगरा बाज़ार’ और विजय तेंदुलकर का ‘घासीराम कोतवाल’ शामिल हैं.


अगर हम कंटेंट की बात करें तो आपातकाल के दौरान यानी 1975 के आसपास ‘कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ में राजनीतिक वंशवाद पर हमला करने का साहस दिखाया गया था, जिसे हथियार बनाकर बरसों बाद 2014 में भाजपा ने सत्ता हथियाई. असगर वजाहत का ‘जिन लाहौर नईं वेख्यां’ की विषय-वस्तु भारत विभाजन का दर्द बयां करती थी. राजस्थानी लोककथाओं के आधुनिकीकरण में सिद्धहस्त विजयदान देथा का ‘चरणदास चोर’ मानवीय विरोधाभाषों का साक्षात प्रस्तुतीकरण था, जिसे जनता के आंसू और सहानुभूति दोनों मिलती थी. छत्तीसगढ़ के कलाकारों और जनता की बोली-ठोली को ग्राह्य बनाने में कुशल हबीब तनवीर का ‘आगरा बाज़ार’ नज़ीर अकबराबादी के संघर्ष और उनके ज़माने को ज़मीन पर उतार लाता था.


विजय तेंदुलकर का ‘घासीराम कोतवाल’ सत्ताधीशों की राजनैतिक अवसरवादिता एवं उनके दोगले चरित्र पर व्यंग्य कसता था, जो तत्कालीन छत्रपों को नहीं भाया, जिसके चलते कई बार इस नाटक का मंचन बाधित हुआ था. गिरीश कर्नाड का ‘तुग़लक’ क़ानून की धज्जियां उड़ाने वालों की ख़बर लेता था और नेताओं की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता था. कुल मिलाकर यह ऐसा कंटेंट था, जिसे राजनैतिक मोहभंग से गुज़र रही जनता देखना चाहती थी और सत्ताधीश देखने नहीं देना चाह रहे थे. जनता की ताक़त के बल पर उस दौर में हिंदी रंगमंच ने अपने क़दम मजबूती से जमाए रखे. लेकिन नई सदी में एक बार फिर व्यावसायिकता और मुट्ठी में कैद इंटरनेट ने हिंदी रंगमंच की गरदन दबोच ली है.


‘इप्टा’ का दौर ढल चुका है, उस दौर के बलराज साहनी, एके हंगल, केए अब्बास, दीना पाठक जैसे अनगिनत समर्पित लोग कब के काल के गाल में समा चुके. देश को बेहतरीन रंगकर्मी तैयार करके सौंपने वाला एनएसडी अपनी चमक खो रहा है. इब्राहीम अल्काज़ी, शांता गांधी, प्रसन्ना, देवराज अंकुर, रतन थियम, ओम शिवपुरी, सत्यदेव दुबे, राज बिसारिया, उषा गांगुली, हबीब तनवीर, बीवी कारंत, मनोहर सिंह, सतीश आनंद, टॉम आल्टर, बंशी कौल और दिनेश ठाकुर जैसे कई महान निर्देशक रंगमंच के परिदृश्य से ग़ायब हो चुके हैं.


किसी ज़माने में थिएटर का संरक्षक रहा मध्यवर्ग अब टीवी के प्रति इतना समर्पित हो गया है कि उसके क़दम ड्राइंग रूम से थिएटर तो क्या, फ़िल्में देखने तक को आसानी से नहीं निकलते. एक ज़माना था जब नौटंकी, रासलीला, प्रवचन और रामलीला मंडलियां मात्र ढोल, मजीरों, नगाड़ों और तुरही के दम पर ही सुपरस्टार पैदा कर देती थीं. आज टीवी और फ़िल्मों तक में टिकाऊ सुपरस्टार पैदा नहीं हो पाते. टीवी ने अपने विकास के साथ-साथ दर्शकों के बीच की सामूहिकता ही नष्ट कर दी है...और थिएटर बगैर सामूहिक उपस्थिति के चल ही नहीं सकता. थिएटर के सामने बदलते समय की यह एक बड़ी चुनौती है. आज के समीकरण के हिसाब से देखा जाए तो रंगमंच वहीं पनप सकता है, जहां टीवी की पहुंच न हो. यह आकासकुसुम पाने जैसी स्थिति है. आज खाना-पीना भले न दे पाएं लेकिन टीवी और इंटरनेट तो अबूझमाड़ में भी पहुंचाने की कोशिशें हो रही हैं. ऐसे में थिएटर का भविष्य क्या होगा?


इसका जवाब एक बार फिर वही है, जिसने समय और तकनीक की चक्की के बीच पिसने से थिएटर को हमेशा बचाए रखा. वह है इसका दमदार कंटेंट और सादा किंतु असरदार प्रस्तुति. एनएसडी के प्रोफेसर रहे त्रिपुरारी शर्मा ने एक जगह लिखा था कि जब अंग्रेज़ आधुनिक प्रेक्षागृहों का नक़्शा बना रहे थे, यानी समय और तकनीक का दबाव बना रहे थे, तब भी लखनऊ के कैसरबाग में अवध के नवाब वाजिद अली शाह रहस रचवाते थे, आधुनिक समय में जब यह दबाव और बढ़ा तो हबीब तनवीर रंगमंच को प्रेक्षागृहों की ज़द से बाहर ही खींच ले गए. हिंदी रंगमंच आज भी ऐसी विराट प्रतिभाओं से समृद्ध है जो आज के दबावों और चुनौतियों के दायरे से उसे बाहर खींच ले जाने में सक्षम हैं. हैप्पी वर्ल्ड थिएटर डे! भारतीय रंगमंच अमर रहे! आमीन!


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)