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Haryana Assembly Elections 2019: क्या बीजेपी की फिर बल्ले-बल्ले होगी?

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की 10/10 चुनावी सफलता और हरियाणा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की गुटबाजी, ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) तथा दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के भारी बिखराव को देखते हुए बीजेपी का ‘मिशन 75 प्लस’ दूर की कौड़ी भी नहीं कहा जा सकता!

हरियाणा में बीजेपी के लिए ठीक पांच साल बाद यह संयोग दोबारा बन रहा है कि मोदी लहर में जीते गए दो आम चुनावों के छह-छह महीने के अंदर ही राज्य के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. 2014 में संपन्न लोकसभा चुनावों में चली मोदी की सुनामी का असर उसी साल 15 अक्तूबर को हुए हरियाणा विधानसभा चुनावों में बरकरार रहा था और 2009 के विधानसभा चुनाव में मात्र 4 सीटें जीतने वाली पार्टी 2014 में अपने 47 विधायक जिता कर राज्य की सत्ता पर काबिज हो गई थी. विजयी बीजेपी सांसदों की संख्या के आधार पर देखा जाए तो 2019 के आम चुनावों में मोदी का जादू पिछली बार से भी ज्यादा सर चढ़ कर बोला और इसी प्रचंड मोदी ब्रांड की छत्रछाया में छह माह के भीतर 21 अक्तूबर को हरियाणा विधानसभा के लिए मतदान होने जा रहा है. राजकाज चलाने के मामले में पांच साल पहले नौसिखिया माने जाने वाले सूबे के सीएम मनोहर लाल खट्टर अब मोदी ही की तर्ज पर राज्य के विकास पुरुष बताए जा रहे हैं. खट्टर साहब जन आशीर्वाद यात्रा के बहाने पूरा हरियाणा नाप चुके हैं और पीएम मोदी रोहतक की रैली में दावा कर चुके हैं कि मनोहर लाल की अगुवाई में राज्य का हर परिवार मनोहर बन चुका है. शिरोमणि अकाली दल बीजेपी के वोटों का बिखराव रोकने में गोंद का काम करता है. इन्हीं कारकों की बदौलत बीजेपी खट्टर को ही आगामी सीएम चेहरे के तौर पर पेश कर रही है और 90 सीटों वाली विधानसभा में पार्टी ने इस बार सदन की 75 कुर्सियों पर अपने विधायक बैठा देने का लक्ष्य सामने रखा है.

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की 10/10 चुनावी सफलता और हरियाणा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की गुटबाजी, ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) तथा दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के भारी बिखराव को देखते हुए बीजेपी का ‘मिशन 75 प्लस’ दूर की कौड़ी भी नहीं कहा जा सकता! हालांकि नतीजे बताने वाली 24 अक्तूबर 2019 ही वह तारीख होगी, जब बीजेपी के इस मिशन की हकीकत का पता लगेगा, क्योंकि कांग्रेस जाट और दलित मतदाताओं का समीकरण साधकर बीजेपी के गुब्बारे में सुई चुभाने की तैयारी कर चुकी है. ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो 1977 के चुनाव में आपातकाल के दौर से त्रस्त हरियाणा की जनता ने जनता पार्टी की झोली में 75 सीटें डाली थीं. जाहिर है कि राज्य में एंटी इन्कम्बेंसी झेल रही बीजेपी के लिए 2019 में 75 सीटों का लक्ष्य पाना लोहे के चने चबाने जैसा है.

परंपरागत रूप से हरियाणा में जीत-हार की चाबी जाट और जाटव मतदाताओं के हाथ में रही है. यहां 25 से 27 प्रतिशत जाट और लगभग 20 प्रतिशत दलित मतदाता हैं. कांग्रेस ने चुनाव से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान सीएलपी लीडर कुमारी शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है जो दलित समुदाय से हैं, वहीं 10 साल सीएम रह चुके और पार्टी के लिए भीड़ जुटाने में समर्थ भूपेंद्र सिंह हुड्डा को विधायक दल का नेता और चुनाव प्रबंध समिति का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने जाट वोटों को साधने की कोशिश की है. हुड्डा, शैलजा, सुरजेवाला, अशोक तंवर, किरण चौधरी के गुटों में विभाजित कांग्रेस अब सत्ता प्राप्ति के लिए एकजुट होकर खट्टर सरकार को आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, किसानों के साथ विश्वासघात और कानून व्यवस्था की स्थिति से संबंधित मुद्दों पर घेरने की योजना बना रही है. हालांकि भयंकर गुटबाजी का ही नतीजा है कि कांग्रेस किसी को सीएम के चेहरे के तौर पर पेश नहीं कर पा रही.

कांग्रेस के लिए दिक्कत की बात यह भी है कि आम आदमी पार्टी और बीएसपी गठबंधन किए बगैर राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर चुकी हैं. आप का मतदाता आधार हरियाणा में नगण्य है लेकिन 2009 के चुनावों तक राज्य के 6-7 प्रतिशत वोट खींच ले जाने वाली बसपा दलितों; खास कर जाटव मतदाताओं के बीच गहरी पैठ रखती आई है. गठबंधन न होने से कांग्रेस को बड़ा नुकसान हो सकता है. देखा जाए तो 2014 में बसपा को मात्र 4% वोट मिले और उसका एक ही विधायक जीत पाया था.

बसपा की इस दुर्बलता का फायदा उठाने में कांग्रेस पिछड़ गई है और बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी है. सत्तारूढ़ पार्टी ने सभी 90 विधानसभा क्षेत्रों में अनुसूचित जाति सम्मेलन आयोजित करने का प्लान बनाया है. ऐसे तीन सम्मेलन हो भी चुके हैं और दलितों का प्रतिसाद देख कर पार्टी उत्साहित है. बीजेपी ने एससी के लिए आरक्षित राज्य की 17 में से 8 सीटें 2014 में जीत ली थीं. मिशन 75 प्लस पूरा करने हेतु इस बार वह 17/17 का स्कोर पाना चाहती है. इसके लिए उसे जाटवों के अलावा वाल्मीकि, खटीक और अन्य दलित समुदायों के वोट अपने पाले में करने होंगे.

एक समीकरण यह भी है कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों में जाट मतदाता कांग्रेस, इनेलो और जेजेपी को अलग-अलग तादाद में वोट देते आए हैं और प्रायः बीजेपी को बहुत कम वोट करते हैं. वहीं जाटव उस पार्टी को वोट देने से कतराते हैं, जिसे जाट पसंद करते हैं. ऐसे में बीजेपी का कयास है कि इस अखंड जाट-दलित राइवलरी के चलते दलित मतदाता सत्ता पाने की संभावना से कोसों दूर बैठी बसपा और अन्य प्रमुख विपक्षी दलों के बजाए उससे जुड़ सकते हैं. यह सच है कि विपक्षी दलों के पास उछालने के लिए जनता से जुड़े ढेर सारे मुद्दे हैं लेकिन उनकी काट निकालने के लिए बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले हुए पुलवामा काण्ड और पाकिस्तान से बदले की कार्रवाई की तर्ज पर अनुच्छेद 370 हटाने को राष्ट्रवाद से जोड़ चुकी है. चूंकि हरियाणा के जवान बड़ी संख्या में सेना में हैं और सीमाओं पर देश की रक्षा करते हैं इसलिए इस भावना का फायदा उठाने से वह विधानसभा चुनाव में हरगिज नहीं चूकेगी. तीन तलाक खत्म करने का ऐतिहासिक फैसला भी अहम चुनावी मुद्दा होगा क्योंकि बीजेपी का नेतृत्व बड़ी जीत के लिए बड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति बना चुका है. इसका पांच विधानसभा सीटों वाले मेवात के मुस्लिम बहुल क्षेत्र की महिलाओं पर भी सकारात्मक असर पड़ सकता है, जहां बीजेपी लंबे अरसे से अपने पांव नहीं जमा पा रही थी.

हालांकि बीजेपी के राष्ट्रीय स्तर के नेता और खुद सीएम मनोहर लाल खट्टर भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद, वंशवाद और भाई-भतीजावाद की परंपरा मिटाकर हरियाणा में रामराज लाने के कितने भी दावे करें लेकिन सच यही है कि राज्य जातिवाद की गहरी खाई में गिरा पड़ा है. बीजेपी ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को दोगुना करने का वादा किया था, लेकिन इस साल अधिकांश कृषि उपज खरीदी ही नहीं गई. पिछले पांच वर्षों के दौरान बेरोजगारी की दर काफी बढ़ गई है और कर्मचारियों ने पूरे पांच साल काम से ज्यादा आंदोलन किया है!

मारुति सुजुकी ने आर्थिक मंदी के बाद मानेसर स्थित प्लांट में कोई उत्पादन न करने की घोषणा काफी पहले कर दी थी. सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाने को लेकर भी भाजपा सरकार ने लगातार अनदेखी ही की. दलित आरक्षण को लेकर लोग गुस्से में हैं. सरकार ने पिछले साल बयान दिया था कि क्लास-1 व क्लास-2 की नौकरियों में दलितों को पदोन्नति नहीं मिलेगी. खट्टर के पांच साल के कार्यकाल में पांच बड़े दंगे हो गए. सरकारी अनिर्णय के बीच गुरमीत राम रहीम के समर्थकों द्वारा पंचकूला में मचाया गया हिंसक ताण्डव भला कौन भूल सकता है! बिगड़ती कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार के बढ़ते ग्राफ के बीच सीएम खट्टर के विवादास्पद बयानों का जिक्र ही न किया जाए तो उचित होगा! प्रश्न यह है कि क्या विपक्षी दल इन मुद्दों को जनता के बीच ले जाकर खट्टर सरकार के खिलाफ माहौल बना सकेंगे? अगर इसका जवाब न में है, तो बीजेपी की हरियाणा में फिर से बल्ले-बल्ले हो जाएगी!

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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