देश में कई समस्याएं हैं, जिन पर गंभीरता से विचार और समाधान के लिए कदम उठाने की जरूरत है. उनमें से ही एक गंभीर समस्या है देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में ड्रॉपआउट और ऐसे संस्थानों में सुरक्षित और संवेदनशील माहौल सुनिश्चित करने की.


राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भी इस समस्या को लेकर चिंता जाहिर की है. राष्ट्रपति मुर्मु ने राष्ट्रपति भवन में 10 जुलाई को विज़िटर्स कॉन्फ्रेंस-2023 का उद्घाटन करते हुए इस समस्या को लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के सभी प्रमुखों, शिक्षकों और कर्मचारियों  के साथ देश का ध्यान खींचा है.


ड्रॉपआउट को लेकर राष्ट्रपति की चिंता


अपने इस भाषण में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने उच्च शिक्षा संस्थानों में ड्रॉपआउट  के साथ ही सुरक्षित और संवेदनशील माहौल  के नजरिए से कई बिंदुओं पर प्रकाश डाला है. राष्ट्रपति ने जिस तरह की चिंता जाहिर की है, उनमें उच्च शिक्षा संस्थानों में कमजोर वर्गो, सामाजिक और आर्थिक तौर से पिछड़े समुदाय से आने वाले छात्रों के बीच में ही पढ़ाई छोड़े जाने का मुद्दे से जुड़े कई पहलुओं का जिक्र है.


आईआईटी दिल्ली में 8 जुलाई को एक 20 साल के छात्र ने खुदकुशी कर ली थी. उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों के आत्महत्या की खबरें अक्सर मीडिया की सुर्खियां बनी रहती है. राष्ट्रपति ने ऐसे मामलों का भी जिक्र करते हुए  इन घटनाओं को पूरे शिक्षा जगत के लिए चिंता का विषय बताया है.



छात्रों के बीच आत्महत्या करने की प्रवृत्ति


उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई करने वाले छात्रों के बीच आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी विकसित राष्ट्र बनने की राह पर धीरे-धीरे बढ़ रहा भारत जैसे देश के लिए चिंता बढ़ा रही है.  इस साल मार्च में संसद में शिक्षा मंत्रालय की ओर से जो आंकड़े बताए गए थे, उसके मुताबिक 2018 से देश के सभी आईआईटी को मिलाकर 33 छात्रों के आत्महत्या कर ली. वहीं  इस अवधि के दौरान आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम में आत्महत्या के 61 मामले सामने आए.



दिसंबर 2021 में संसद में दी जानकारी के मुताबिक देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में 2014 से 2021 के बीच 122 छात्रों ने आत्महत्या कर खुद की जान ले ली. इनमें 24 एससी और 3 एसटी कैटेगरी से आते थे, जबकि इस अवधि में खुदकुशी करने वाले 41 छात्र ओबीसी से आते थे.  यानी इस अवधि में आईआईएस, आईआईटी, आईआईएम, सेंट्रल यूनिवर्सिटी जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों में आत्महत्या करने वालों में आधे से ज्यादा छात्र ओबीसी, एससी और एसटी कैटेगरी से थे. इनमें आईआईटी और आईआईएम के 34 छात्र शामिल थे जिनमें से पांच एससी थे.सरकार की ओर से संसद में इन खुदकुशी के लिए कई कारकों को जिम्मेदार बताया था, जिसमें शैक्षणिक तनाव, पारिवारिक कारण, व्यक्तिगत कारण और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े  मुद्दे प्रमुख थे.


ड्रॉपआउट की समस्या से जुड़े हैं कई पहलू


उच्च शिक्षा संस्थानों में ड्रॉपआउट के मसले से कई बिन्दु जुड़े हैं. ऐसे संस्थानों में हर वर्ग के लोग पहुंचते हैं. ड्रापआउट की समस्या सामाजिक और आर्थिक तौर से पिछड़े वर्गों से आने वाले छात्रों में ज्यादा देखी जाती है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भी अपने भाषण में एक आंकड़े का जिक्र किया. दो वर्षों के आंकड़ों के आधार पर केंद्र सरकार के 2019 में किए गए विश्लेषण के मुताबिक करीब 2500 छात्रों ने देश के तमाम आईआईटी में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी. बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले इन छात्रों में करीब आधे आरक्षित वर्गों से थे. इस विश्लेषण से ही पता चलता है कि देश के टॉप प्रबंधन संस्थान आईआईएम में करीब 100 छात्रों ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी थी. हालात और चिंताजनक इसलिए भी हो जाते हैं कि इन सौ छात्रों में ज्यादातर आरक्षित कैटेगरी से थे.


ड्रापआउट है गंभीर और संवेदनशील समस्या


ड्राप आउट बहुत ही गंभीर और संवेदनशील समस्या है. हालांकि इसको कई लोग अक्षमता से जोड़कर ऐसे छात्रों का उपहास भी उड़ाने से नहीं चूंकते हैं और इस वजह से ऐसी समस्या को लेकर समाज में उस तरह की बहस नहीं हो पाती है, जिसकी सही मायने में समाधान के लिए जरूरत है. ड्रापआउट की समस्या का समाधान सिर्फ़ उच्च शिक्षा संस्थानों और सरकारी कदमों से ही जुड़ा हुआ नहीं है. वास्तविक समाधान समाज में इस समस्या पर संवेदनशीलता के साथ सोचकर ही निकाला जा सकता है.


कमजोर वर्गों के छात्रों में ड्रापआउट दर ज्यादा


अभी कुछ महीने पहले ही जब संसद का बजट सत्र चल रहा था तो उस समय राज्य सभा में सरकार की ओर से उच्च शिक्षा संस्थानों में ड्रापआउट को लेकर एक आंकड़ा सदन में रखा गया था.  इस जानकारी को शिक्षा मंत्रालय की ओर से गई थी. इसके मुताबिक 2018 से 2023 के 5 साल की अवधि में अलग-अलग केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में  ओबीसी, एससी और एसटी कैटेगरी से आने वाले 19 हजार से ज्यादा छात्रों ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी. ऐसे 19,256 छात्रों में से 14,446 छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों, 4,444 आईआईटी और 366 छात्र आईआईएम से थे.


उच्च शिक्षा संस्थानों में एनरॉलमेंट को लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लक्ष्यों के लिहाज से भी ये आंकड़ों काफी चिंताजनक हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 2035 तक उच्च शिक्षा में 50% का सकल नामांकन अनुपात (GER) हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है.


सामाजिक और आर्थिक बैकग्राउंड भी जिम्मेदार


उच्च शिक्षा संस्थानों में ख़ासकर आईआईटी जैसे सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों और मेजिकल कलेजों में ऐसे छात्रों की संख्या काफी होती है, जो फर्स्ट जनरेशन स्टूडेंट होते हैं. ये छात्र गांव और छोटे-छोटे कस्बों से निकलकर बड़े शहरों में मौजूद इन संस्थानों में पहली बार पहुंचते हैं. ड्रापआउट की समस्या के नजरिए से ऐसे छात्रों का सामाजिक और आर्थिक बैकग्राउंड भी काफी मायने रखता है.


इन संस्थानों में ऐसे छात्रों की संख्या काफी होती है, जिनकी आर्थिक हैसियत उतनी अच्छी नहीं होती है. सामाजिक तौर से भी इनमें से कई कमजोर वर्गों से होते हैं.  इस तरह के छात्र देश के चुनिंदा उच्च शिक्षा संस्थानों में अपनी मेहनत और आरक्षण की वजह से दाखिला तो पा जाते हैं, लेकिन जैसे ही उनका सामना आर्थिक तौर से संपन्न छात्रों से होता है, तो कईयों में हीनभावना आने लगती है. कुछ छात्र अंग्रेजी को लेकर भी खुद को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं. इसके साथ ही आईआईटी, मेडिकल और आईआईएम जैसे संस्थानों में पढ़ाई का बोझ भी एक बड़ा कारण होता है, जिसका बोझ उठाने में कुछ छात्र खुद को असमर्थ पाते हैं. इन उलझनों से जूझते की कई छात्र बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं और उनमें से ही कुछ छात्र खुदकुशी का रास्ता भी अपना लेते हैं.  


संवेदनशील-सुरक्षित माहौल बनाने की जिम्मेदारी किसकी?


उच्च शिक्षा संस्थानों में संवेदनशील और सुरक्षित माहौल कैसे बने और आत्महत्या की घटनाओं पर पूरी तरह से अंकुश लग सके, इसके लिए व्यापक स्तर पर जिम्मेदारी तय करने की जरूरत है. जिम्मेदारी तय करने के साथ ही व्यावहारिक कदम उठाने की भी जरूरत है. ये तय करना होगा कि उच्च शिक्षा संस्थानों में जब छात्र पढ़ने आएं तो उन्हें कैंपस से लेकर हॉस्टल के साथ ही संस्थानों के दफ्तर में ऐसा माहौल मिल सके, जिनसे छात्रों को उपेक्षा , अपमान और तनाव के साथ ही इन्फीरीऑरिटी काम्प्लेक्स यानी हीन भावना से बचाया जा सके.


आर्थिक और सामाजिक तौर से पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्रों के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले के बाद पढ़ाई जारी रखने के लिए सरकार की ओर से की कदम उठाए जा रहे हैं. इनमें फीस में कटौती, अधिक संस्थानों की स्थापना, छात्रवृत्ति और राष्ट्रीय स्तर की छात्रवृत्ति तक ऐसे छात्रों की पहुंच को सुनिश्चित करना शामिल है. इसके साथ ही पाठ्यक्रम या संस्थान बदलने की सुविधा के नियम भी मौजूद हैं.


मानसिक उलझनों से कैसे उबरेंगे छात्र?


इन कदमों से आर्थिक मजबूरियों का तो निदान निकल जा रहा है, लेकिन ऐसे बैकग्राउंड से आने वाले छात्र मानसिक उलझनों से नहीं उबर पा रहे हैं. इस समस्या का ये एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है, जिस पर मुस्तैदी से व्यापक कदम उठाने की आवश्यकता है. पेपर पर एससी और एसटी समुदाय के लिए कई योजनाओं को भी कार्यान्वित किया जा रहा है, हालांकि उन तक छात्रों की आसानी से पहुंच पर ध्यान देने की जरूरत है.


हाल के कुछ वर्षों में जिस तरह के कदम उठाए गए हैं, ये कहना सही है कि उनसे उच्च शिक्षण संस्थानों में ड्रापआउट दर में कमी आई है. फरवरी 2020 में सरकार की ओर से संसद में रखी गई जानकारी के मुताबिक आईआईटी में ड्रॉपआउट दर 2015-16 में 2.25% थी, जो  2019-20 में 1% से भी कम हो गई. इसी अवधि में आईआईएम में ड्रॉपआउट दर 1.04% से गिरकर 1% से कम हो गई. जबकि उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों ड्रॉपआउट दर 7.49% से कम होकर 2.82% हो गई थी. इसके बावजूद अभी भी जो संख्या है, वो चिंताजनक है. उसमें भी ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय के साथ ही सामान्य वर्ग के आर्थिक तौर से कमजोर छात्रों के बीच ड्रॉपआउट एक विकराल समस्या के तौर पर मौजूद है.


मानसिक काउंसलिंग का बढ़ाना होगा दायरा


देश के उच्च शिक्षण संस्थानों की ये प्राथमिकता होनी चाहिए कि छात्रों को इस बारे में समझाया जाए. छात्रों को सहारा दिया जाए. इसका साफ मतलब है कि सिर्फ़ प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिए छात्रों का दाखिला हो जाने के बाद एकेडमिक पढ़ाई देना ही उच्च शिक्षा संस्थानों का काम नहीं होना चाहिए. ये पूरा मसला मानसिक काउंसलिंग से भी जुड़ा है. उच्च शिक्षा संस्थानों में मानसिक काउंसलिंग से जुड़े मैकेनिज्म का विस्तार किया जाना चाहिए. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भी कहा है कि जिस तरह से संयुक्त परिवार का मुखिया अपने हर सदस्य का ध्यान रखता है, वैसे ही उच्च शिक्षण संस्थानों में इसके कर्ता-धर्ता और शिक्षकों को हर छात्र का संवेदनशील तरीके से ख्याल रखना चाहिए.


हर तरह के भेदभाव पर लगे अंकुश


उच्च शिक्षण संस्थानों में ड्रापआउट को रोकने और छात्रों को आत्महत्या की प्रवृति से रोकने के लिए जाति आधारित भेदभाव, यौन उत्पीड़न, थीसिस पर्यवेक्षकों की ओर से छात्रों का उत्पीड़न, फैकल्टी और प्रशासकों की ओर से पक्षपातपूर्ण फैसलों को रोकने पर फोकस करना होगा. ये इसलिए भी जरूरी है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में इस प्रकार के आरोप और रिपोर्ट दर्ज होते रहे हैं.


कहने को तो हर उच्च शिक्षा संस्थान में छात्रों की शिकायतों के निपटारे के लिए एक तंत्र है. मान संचालन प्रकिया लागू किए जाने का दावा भी किया जाता है. इसके बावजूद कई छात्र खुलकर शिकायत दर्ज करने से डरते हैं क्यों कि ऐसी शिकायतें दर्ज कराने के बाद उनके मन में कई तरह के उत्पीड़न का  भय बैठा रहता है. इस डर की वजह से कई शिकायतें छात्रों के मन में दबी रह जाती है और वे चुपचाप भेदभाव और उत्पीड़न सहने को मजबूर हो जाते हैं. इसका असर उनके मानसिक सेहत पर भी पड़ता है.


समाज में जागरूकता के साथ संवेदनशीलता जरूरी


उच्च शिक्षण संस्थानों में ड्रापआउट की समस्या का हल निकालने में एक और पहलू है जिसकी ओर प्राथमिकता के तहत ध्यान दिए जाने की जरूरत  है. इस समस्या को लेकर मीडिया की मुख्यधारा में भी उस तरह बहस देखने को कम मिलती है, जिससे आम लोगों के बीच इस समस्या की वास्तविक समझ को बढ़ाने में मदद मिले. ये न सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थानों या सरकार की समस्या है, बल्कि ये एक सामाजिक समस्या भी है, जिसके लिए समाज को जागरूक होने के साथ ही संवेदनशील भी होना होगा.


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