विश्व हिंदी सचिवालय वाले देश मॉरीशस की सुरम्य भूमि पर 18-20 अगस्त के दरम्यान आयोजित 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जब कहा कि अलग- अलग देशों में हिन्दी को बचाने की जिम्मेदारी भारत ने ली है, तो माथा ठनका. भारत में ही हिन्दी को सरकार कितना संरक्षण दे पा रही है कि विश्व में बचा पाएगी! अब हिन्दी दिवस के रथ की गड़गड़ाहट सुनकर यह अहसास गहरा हो रहा है कि पिछले कई वर्षों से हिन्दी को किस तरह साबुन की टिकिया बना कर रख दिया गया है. हर साल हिन्दी के प्रचार के लिए स्टार लेखक-लेखिकाएं और मंत्री-संत्री जुटाए जाते हैं, हिंदी की बजाए मंचासीनों की महानता के गुण गाए जाते हैं, देश-विदेश में हिन्दी की मेगा सेल के लकदक मॉल खोले जाते हैं और सांस की तरह हिन्दी का उपयोग करने वालों के साथ रेहड़ी-पटरी वाले किसी ग्राहक की तरह सलूक किया जाता है. हिन्दी के चतुर सेल्समैन अंग्रेजी में अपना-अपना माल बेचकर अगले हिन्दी दिवस तक के लिए बोरिया-बिस्तर समेट कर चंपत हो जाते हैं.
गांधी ने हिंदी के बूते पाई स्वीकार्यता
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, केशव चंद्र सेन, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, सुभाष चंद्र बोस, काका कालेलकर और विनोबा भावे जैसे कई अहिन्दीभाषी महान नेताओं ने हिन्दी की सम्पर्क और संप्रेषण शक्ति का लोहा माना था और गांधी जी ने तो इसे जनमानस की भाषा करार दिया था. यही कारण है कि उन्होंने उस नाजुक समय में भी 1918 के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का मंतव्य व्यक्त किया और स्वयं राष्ट्रीय स्वीकार्यता प्राप्त की. यह राष्ट्रीय आंदोलन का ही अनुभव और दबाव था कि स्वतंत्रता मिलने के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने का एक मत से निर्णय लिया. इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने और हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है. अब तो यह हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा तक खिंचता रहता है. सांकेतिक संयोग यह है कि पुरखों का श्राद्ध करने वाला पितृ पक्ष भी इसी के आस-पास पड़ता है.
अब यह तारीख हिन्दी की सरकारी, गैर-सरकारी मार्केटिंग का मरकज बन चुकी है. इस दिन कलफ लगे कपड़े पहनकर हिन्दी सेवा का सफेद हाथी पालने वाले हिन्दी की दुर्दशा पर टेसुए बहाते हैं. हिन्दी की दशा और दिशा पर अकादमिक संगोष्ठियां, भाषण-निबंध प्रतियोगिताएं, इंडोर-ऑउटडोर कवि-सम्मेलन और पुरस्कार वितरण समारोह का कर्मकाण्ड सजता है. हिन्दी को ओढ़ने-बिछाने वालों और दाल-रोटी की तरह इसका उपयोग करने वालों की इन समारोहों की इंट्री नहीं है. इन्हें हिन्दी के कालीन का कीचड़ समझकर बाहर कर दिया गया है. जबकि वस्तुस्थिति यह है कि आज हिन्दी जहां भी है, जैसी भी है, जितनी भी है, इन्हीं सूने में बुझ जाने वाले हिन्दी हलधरों की वजह से ही है.
बात राष्ट्रभाषा की हुई थी बनी राजभाषा
स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) लिखा गया कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. हिन्दी की दुर्दशा का मूल कारण भी यह शब्दावली है. गांधी जी ने राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी जबकि निर्णय हुआ राजभाषा बनाने का. गैर-हिन्दी भाषी, खास तौर पर दक्षिण भारतीय लोग इसका भाषायी बर्चस्व और अस्मिता के नाम पर तीखा विरोध करने लगे और सेफ्टी बॉल्व के तौर पर अंग्रेज़ी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा, जो पहले ही दबंग भाषा थी. नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी ने धृतराष्ट्र की तरह पूरे भारत समेत हिन्दी पट्टी में भी हिन्दी को भुजाओं में जकड़ लिया और अब तो उसकी हड्डियों का चूरमा बनाए दे रही है.
हिंदी को पहना दिया धार्मिक बर्चस्व का चोला
इसका मुख्य कारण यह है कि महात्मा गांधी और अन्य महान हिंदीप्रेमी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मृत्यु के बाद राष्ट्रभाषा के मुद्दे को राष्ट्रीय और सांस्कृतिक दृष्टि से न देख कर विशुद्ध राजनैतिक दृष्टि से निबटाया गया और हिन्दी में घोड़े के पैर जोड़कर उसे रेस जिताने की होड़ चलने लगी. आगे चलकर यह रेस उत्तर और दक्षिण भारत की घुड़दौड़ में बदल गई. तमिल के साथ-साथ मलयालम, तेलगु और कन्नड़ भाषियों को भी हिंदी से भयभीत कर दिया गया. दोनों खित्तों के बीच भाषायी अपरिचय का विंध्याचल खड़ा हो गया. भाषा को राज्यवार ऊंच-नीच दिखा कर, उसे प्रतिद्वन्द्विता के क्षेत्र में उतारकर दयनीय बना दिया गया. हमारी हिन्दी जो पढ़े-लिखे वर्ग के साथ-साथ किसान-मजदूरों, बुनकरों, दर्जियों, मोचियों और सेवारत पेशों की जुबान थी, जो कबीर, रैदास, मीरा, रसखान, तुलसी और सूर जैसे राज दरबार से बाहर के महाकवियों जुबान थी, उसको धार्मिक बर्चस्व का चोला पहना दिया गया.
उन्नीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध में भारतेंदु युग के मिश्र बंधु और बीसवीं सदी की शुरुआत में फोर्ट विलियम कॉलेज, कोलकाता के तत्वाधान में हिंदी के राजा शिवप्रसाद सितारा-ए-हिन्द और सदल मिश्र जैसे कई प्रतिष्ठित साहित्यकार तत्सम-तद्भव के अखाड़े में उतर गए. स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक स्वार्थ ने भाषायी अगुवाओं को यह समझने ही नहीं दिया कि हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं के समानान्तर रखने से न तो हिन्दी ही बढ़ सकेगी और न अन्य भाषाएं. हां, अंग्रेजी अवश्य हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं को कांख में दबा लेगी. 1956 आते-आते संसद में खुद पंडित नेहरू अंग्रेजी का माहात्म्य पारायण करने लगे थे. हिन्दी के राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनने की जद्दोजहद में अब तक हुआ भी यही है. महात्मा गांधी की ‘हिंदुस्तानी’ को हिंदी-उर्दू के टुकड़ों में चीर दिया गया है. हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी सामाजिक नियंत्रण के कहीं अधिक अवसर प्रदान करती है और यही कारण है कि आज कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने के लिए खुद को गिरवी रखने में भी संकोच नहीं करता.
सत्ता के तलवे चाटने में माहिर कर रहे हिंदी का बंटाधार
आज हिन्दी का कथित नेतृत्व भाषा की प्रतिष्ठा का मूल प्रश्न रास्ते में ही छोड़कर खुद को प्रतिष्ठित करने के रास्ते पर आगे बढ़ गया है. संकीर्णता का आलम देखिए कि अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं लेकिन वहां हिन्दी से जुड़ने की ललक रखने वालों को निःशुल्क प्रवेश नहीं दिया जाता. पिछले दिनों मॉरीशस में हुए 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में स्थानीय लोगों के प्रवेश पर भारी-भरकम शुल्क लगाया गया. सरकारी मेहमान और मेजबान अपनी-अपनी हांकते, सुनते और घूमते रहे. विश्व हिंदी सम्मेलन से लौट कर प्रसिद्ध व्यंग्यकार गिरीश पंकज का अनुभव सार- “मैं इस बार मॉरीशस गया था सरकारी नहीं, अ-सरकारी प्रतिनिधि के रूप में, यानी निजी खर्चे पर. सच कहूं तो वहां जाकर मुझे गहरी निराशा हुई...अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, कोरिया, फिजी, सूरीनाम आदि देशों से आए हुए वहां के मूल निवासी भी आराम से ठीक-ठाक हिंदी में ही बात कर रहे थे. तब आखिर अंग्रेजी में संचालन की क्या जरूरत पड़ गई? मैंने यह पाया कि मॉरीशस में अब हिंदी हाशिए पर जा रही है और भारतीय संस्कृति का धीरे-धीरे क्षय भी होता जा रहा है...पूर्व सम्मेलनों की तरह बड़े ही मनभावन प्रस्ताव पारित किए गए हैं, लेकिन हमें पता है कि उसके पहले के भी अनेक प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं...सत्ता के तलवे चाटने में माहिर कुछ चेहरे पूरे सम्मेलन को नियंत्रित कर रहे थे...विश्व हिंदी सम्मेलन की उपलब्धि यही रही कि महज खानापूर्ति बनकर रह गया.”
पुरखों की भाषा से जुड़े रहने की ललक से फल-फूल रही हिंदी
गनीमत है कि स्वभावतः पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश के अलावा आज अगर हिन्दी सुदूर स्थित सिंगापुर, त्रिनिदाद और टोबैगो, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम और दक्षिण अफ्रीका जैसे विश्व के कई देशों में फल-फूल रही है तो यह किसी सरकारी इमदाद या अहसान की वजह से नहीं, बल्कि उनकी अपने पुरखों की भाषा से जुड़े रहने की ललक का परिणाम है. अमेरिका के जूनियर बुश प्रशासन ने अमेरिकियों को हिंदी सिखाने के लिए करोड़ों डॉलर का बजट मंजूर किया था. संयुक्त राष्ट्र संघ अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो वेबसाइट पर हिंदी भाषा में भी प्रसारण करता है. बीबीसी, यूएई के ‘हम एफ-एम', जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल हिंदी सेवा प्रसारित करते रहे हैं.
मातृभाषा के कोलंबसों की वजह हिंदी नहीं बन पाएगी राष्ट्रभाषा
लेकिन भाषायी पर्यटन के लिए सरकारी खर्च पर हिन्दी के सैलानी विभिन्न देशों में जाते हैं और मातृभाषा का कोलंबस बनने का दावा करते हैं. हिंदी के वर्तमान परिदृश्य से चिंतित वरिष्ठ कथाकार और प्रवासी हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर तेजेंद्र शर्मा ने लंदन से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की- ‘विश्व हिंदी सम्मेलन का हिंदी के विकास से कुछ लेना देना नहीं है. ये केवल चंद लोगों के सैर-सपाटे का उत्सव है जिसका दंड आम करदाता अदा करता है. जो चयन समिति के सदस्य होते हैं वही सत्रों के अध्यक्ष, बीजवक्ता या संचालक बन जाते हैं. कभी भी विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार में जुटी सच्ची संस्थाओं या सेवियों को याद नहीं किया जाता. केवल अपने मित्रों या चेले-चपाटों को सम्मानित कर दिया जाता है. होना तो यह चाहिए कि सम्मेलन भारत में हो और विदेशी संस्थाओं एवं लेखकों को बुला कर उनसे उनके अनुभव सुने जाएं और उनकी समस्याओं के हल ढूंढने का प्रयास किया जाए. हिंदी दिवस तो हिंदी के साथ सबसे बड़ा मजाक है; जैसे जले पर नमक छिड़कना. सरकारी पैसा खर्च कर हिंदी का दिखावा किया जाता है. इन हिंदी दिवसों ने हिंदी को अनुवाद और गोदाम की भाषा बना दिया है. हर दस्तावेज का अनुवाद होता है और गोदाम में भेज दिया जाता है. हिंदी दिवस हर साल याद दिलाता है कि हिंदी कभी भी भारत की राष्ट्र भाषा नहीं बन पाएगी.'
देखा जाए तो बड़े से बड़े हिन्दी सेवी की बनिस्बत छोटी से छोटी हिन्दी फिल्म ने गैर-हिन्दीभाषियों के बीच अपना अतुलनीय योगदान दिया है. दक्षिण और उत्तर की भाषा का वैमनष्य हैवीवेट नेताओं की बनिस्बत टीवी धारावाहिकों ने ज्यादा सुगमता से दूर किया है. फिल्मी सितारों ने हिन्दी को अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पेनिश, चीनी और फ्रांसीसी जगत में स्थापित कर दिया है. यहां हमारे कहने का यह मतलब नहीं है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वयंसेवकों और सरकारी उपक्रमों, गतिविधियों का रत्ती भर भी योगदान नहीं है. लेकिन उनके विषमानुतिक गुणगान से बात नहीं बनेगी क्योंकि मुद्दा उनकी नीयत, योग्यता और ऑउटपुट (प्रतिफल) का है. साहित्य को छोड़ दिया जाए तो इतिहास, राजनीति, समाज शास्त्र, प्रैद्योगिकी, विज्ञान, मानविकी आदि विषयों पर ज्ञान-विज्ञान के मौलिक ग्रंथ हिंन्दी में क्यों नहीं लिखे जाते? कायदे का शोध-पत्र छपना-छपाना हो तो हिंदी वाले अंग्रेजी की शरण में जाते हैं. उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम की पुस्तकों, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार और न्यायालयों के अलावा सरकारी काम-काज में हिन्दी को दोयम दर्जा दिया जाता है. मेरे पूर्व संपादक और आजकल हिंदी की अलख जगा रहे राहुल देव की चिंता है कि अगर हिन्दी की स्थिति यही रही तो 2050 तक भारत में लिखाई-पढ़ाई के सारे काम अंग्रेजी में किए जा रहे होंगे और हिन्दी सिर्फ मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी. उनका यह भी आग्रह रहा है कि अंग्रेजी बोलिए तो शुद्ध, हिन्दी में बातचीत कीजिए तो वह हिन्दी ही हो; अंग्रेजी के शब्द उसमें न हों. अंग्रेजी के अंगूठा छाप अंधविरोध का समर्थन हम भी नहीं करते, लेकिन जो बात हम कहना चाहते हैं उसे रघुवीर सहाय ने अपनी ‘हमारी हिन्दी’ कविता में अद्भुत तरीके से कह दिया है-
‘हमारी हिन्दी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुंचाती जाए
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को ले कर लड़े
घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किए जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आंगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएं पर ले जाकर फींची जाएंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पांच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और जमीन भी जिस पर हिन्दी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिन्दी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे.’
उम्मीद है कि पूरी कविता आपने बड़े ध्यान से धैर्यपूर्वक पढ़ी होगी. जय हिन्दी!
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)