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BLOG: अंकित....एक संभावना की मौत

देश में झूठी शान या झूठी इज्जत के नाम पर होने वाली हत्याएं कोई नई चीज नहीं है. खाप पंचायतों की भूमिका भी कोई नई नहीं है. हिंदुओं में भी जाति के बाहर शादी करने पर लड़का लड़की को मार देने का चलन रहा है. पहले ऐसी खबरें देहातों, कस्बों से आती थी लेकिन अब शहरों और महानगरों से भी आने लगी हैं. कुछ समय पहले मुंबई से भी ऐसी ही एक खबर आई थी लेकिन अखबार में तीसरे पेज की खबर बन कर ही रह गई थी. लेकिन हाल ही में दिल्ली में झूठी शान की खातिर अंकित नाम के युवक की हत्या की गई. हत्या करने वाले मुस्लिम थे. अंकित मुस्लिम लड़की सलीमा से प्यार करता था. उससे शादी करना चाहता था और उसके दोस्तों के अनुसार उसने 22 मार्च का दिन भी शादी के लिए तय कर रखा था जब वह कोर्ट मैरिज करता.

इससे पहले ही लड़की के मोबाइल पर कुछ संदेश पकड़े गये और अंकित को सरेआम, सरेबाजार सबके सामने वहशीयाना तरीके से गला रेत कर मार डाला गया. इससे भयावह कुछ हो ही नहीं सकता. हत्यारों को भीड़ ने रोका नहीं, टोका नहीं. किसी ने पुलिस को भी शायद सूचना नहीं दी और अगर दी भी तो पुलिस वक्त पर नहीं पहुंच सकी. इससे बड़ी संवेदनहीनता की बात कोई हो ही नहीं सकती. देश में पिछले एक साल में झूठी शान के लिए 71 हत्याएं हो चुकी हैं लेकिन सबसे ज्यादा सुर्खियों में अंकित का मामला ही आया है. हो सकता है कि इसका प्रमुख कारण लड़के का हिंदू और लड़की का मुस्लिम रहना हो. अगर उल्टा होता तो भी मामला गरमाता क्योंकि तब संघ को कुछ संगठनों का प्रिय लव जेहाद विषय सामने आ जाता.

इस मुद्दे पर जमकर राजनीति हो रही है. कुछ लोगों के माध्यम से इसे अखलाक की हत्या से जोड़ कर देखने का तर्क भी दिया जा रहा है. जबकि दिल्ली में जो हुआ वह शुद्द् रुप से झूठी शान का मामला है. जहां दो अलग-अलग मजहब के परिवारों के बीच रंजिश का मामला था जिसका अंत अंकित की हत्या से हुआ. जबकि अखलाक के मामले में एक तरफ गौरक्षक थे और एक तरफ कथित रुप से घर में गाय का मांस रखने वाला अखलाक था. जिसके घर गौरक्षक जबरदस्ती घुसते हैं और उसे मार डालते हैं. यह सही है कि अंकित की तुलना अखलाक से नहीं की जा सकती लेकिन जिस ढंग से बर्बरतापूर्वक दिनदहाड़े अंकित को भीड़ के सामने मारा गया वह कई सवाल जरुर उठाता है. यह सवाल समाज की संवेदनहीनता से भी आगे जाते हैं. लेकिन जो सवाल विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन उठा रहे हैं उनसे बचने की गुंजाइश निकाली जा सकती है.

इस सबके बीच अंकित की बात करते हैं. अंकित भारत के उस निम्न मध्यम वर्ग का प्रतीक है जो सपने देखता है और उन सपनों को पूरा करने का हौंसला भी जुटाता है. अंकित बचपन से ही सलीमा का पड़ोसी रहा है. उसके दोस्तों के अनुसार जवान होने पर दोनों प्यार करने लगे. पड़ोस का साथ छूट गया लेकिन प्यार बढ़ता ही चला गया. अंकित यूट्यूब चैनल चलाता है. वह कुछ बड़ा काम करना चाहता है. वह अपने चैनल को हिट करना चाहता है जिसके लिये वह दिन रात मेहनत कर रहा है. वह नाम कमाना चाहता है. वह पैसा कमाना चाहता है. इकलौता बेटा होने का फर्ज निभाना चाहता है. वह जिम जाने का भी शौकीन है यानि ऐब से दूर रहने वाला शख्स है. वह होली दीवाली मनाता है तो ईद पर मुस्लिम टोपी धारण करता है. वह सलीमा से प्यार करता है और सलीमा अंकित से प्यार करती है. अब ऐसी कहानी का अंत तो दोनों के निकाह से होना चाहिए था. सलीमा को अंकित से बेहतर दूल्हा शायद ही मिलता और अंकित के लिए सलीमा तो जान से बढ़कर थी जिसके लिए उसने जान दे डाली. कुल मिलाकर अंकित की मौत एक संभावना की मौत है.

आज जो टीवी चैनलों में बैठकर सारे मामले को हिंदू मुस्लिम बना रहे हैं, अखलाक से तुलना कर रहे हैं, रिवर्स लव जेहाद की नई परिभाषा तलाश रहे हैं, केजरीवाल के न जाने, देर से जाने, मुआवजा नहीं देने पर उन्हें पानी पी पी कर कोस रहे हैं और अंकित की हत्या की निंदा शर्तों के साथ कर रहे हैं उन सब को बैठकर सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि अंकित की शादी सलीमा से नहीं हो पाई. उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि आखिर कोई अंकिता किसी सलीम से शादी क्यों नहीं कर सकती. अगर अंकित और सलीमा एक नहीं हो सके और अंकित को मरना पड़ा तो उसके लिए यही लोग, उनकी यही सोच, उनकी यही राजनीति और रणनीति जिम्मेदार है.

हैरत की बात है कि खाप पहले ज्यादा बदनाम हुआ करती थी लेकिन अब समय के साथ खाप भी बदल रही हैं. कुछ ने कुछ ही गोत्रों को छोड़कर बाकी में शादी करने की इजाजत दी है, बारात आने पर हवा में फायर करने पर रोक लगाई गई है, कुछ ने डीजे पर भी रोक लगाई है और कुछ ने बारातियों की संख्या से लेकर व्यजंनों की संख्या तय करना शुरु किया है. सवाल उठता है कि खाप जब वक्त के साथ बदल सकती हैं तो हिंदू मुस्लिम की राजनीति करने वाले क्यों नहीं बदलते. अंकित का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया है अदालत का कहना है कि जिस तरह खाप के खिलाफ जाकर शादी करने वालों को सुरक्षा दी जाने लगी है वैसा ही अंकित सलीमा मामलों में भी किया जाना चाहिए.

क्या इस तरफ राज्य सरकारें ध्यान देंगी? क्या हिंदू वोट बैंक और मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर राज्य सरकारें और राजनीतिक दल आगे आएंगे? सही बात तो यही है कि अगर अंतरजातीय शादियां होंगी तो जाति टूटेगी, जातिवाद खत्म होगा. अगर हिंदू मुस्लिमों में शादियां होंगी तो समाज एक हो सकेगा. तुष्टिकरण की राजनीति से लेकर उग्र हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की दुकानें बंद होंगी. तब चुनाव न तो जाति के नाम पर लड़ा जाएगा और न ही धर्म के नाम पर. क्या ऐसा करने की हिम्मत किसी राजनीतिक दल में है?

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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