खबरें हैं कि काबुल में बुर्के बेचने वालों की पौ बारह हो रही है. कभी उनके खरीदार गांव देहात की औरतें हुआ करती थीं. अब राजधानी में भी खरीदार बढ़ रहे हैं. अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी के बाद औरतों में जैसे जैसे तालिबान का कहर बढ़ रहा है, वैसे वैसे बुर्कों की कीमतें बढ़ रही हैं. कुछ ही महीनों में नीले रंग के बुर्को की कीमतों में हजार परसेंट का इजाफा हो गया है. 200 अफगान अफगानी से बढ़कर उनकी कीमत 2000 हो गई हैं. औरतों के भीतर के डर का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? वह डर जो 2001 में तालिबान के पतन के बाद कम होने लगा था. लेकिन अफगानिस्तान के इतिहास की सबसे लंबी लड़ाई के बाद अब दोबारा तालिबान का खौफ बढ़ रहा है. एक हारे हुए देश में अतीत का साया फिर मंडरा रहा है.


डर अतीत के साये का
तालिबान डर का दूसरा नाम है. खास तौर से औरतों के लिए. हालांकि उन्होंने सिर्फ पांच साल यानी 1996 से 2001 के बीच ही पूरे अफगानिस्तान पर राज किया. लेकिन इस्लाम की उनकी परंपरावादी व्याख्या में सभी पर पाबंदियां लगा दी गईं. इन पांच सालों में औरतों के लिए मर्दों के बिना घर से निकलना मना था. उन्हें सिर से पैर तक खुद को ढंके रहना पड़ता था.. वे स्कूल या काम पर नहीं जा सकती थीं. वोट नहीं कर सकती थीं. इसके अलावा तालिबान के फरमानों को तोड़ने पर सार्वजनिक रूप से पिटाई खानी पड़ती थी. गोलियां खानी पड़ती थीं. औरतों को डर है कि बीते वक्त का घना कोहरा फिर से फैल सकता है.


कभी औरतों ने संविधान भी तैयार किया था पर अफगानिस्तान में ऐसा हमेशा से नहीं था. यह उन देशों में शुमार रहा है जहां औरतों को तरह तरह की आजादियां थीं. 1920 में अफगानिस्तान की मल्लिका सुरैय्या अपने पति बादशाह अमानुल्लाह खान के साथ देश की राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं. सुरैय्या ने औरतों की आधुनिक शिक्षा, खास तौर से विज्ञान, इतिहास पर भी जोर दिया था. साठ के दशक में जब अफगानिस्तान का पहला व्यापक संविधान तैयार किया गया तब इसके मसौदाकारों में औरतें भी शामिल थीं. संविधान को 1964 में मंजूर किया गया और इसमें औरतों को मर्दों की ही तरह समान अधिकार दिए गए थे और लोकतांत्रिक चुनावों में भी बराबर से हिस्सेदार बनाया गया था. 1965 में चार औरतें अफगान संसद में चुनकर आईं और कई मंत्रिमंडल में भी शामिल हुई थीं. इसी वजह से जब उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होता था, तो वे विरोध जताने से भी पीछे नहीं हटती थीं. 1968 में जब संसद में ऐसा बिल पास करवाने की कोशिश हुई जो औरतों के विदेश जाकर पढ़ने पर पाबंदी लगाता था तो स्कूली लड़कियों ने काबुल और दूसरे शहरों में प्रदर्शन किए.


अफगानिस्तान में सोवियत मौजूदगी के समय भी महिलाओं की हालत अच्छी थी. मोम्मद दाऊद खान की सरकार का तख्तापलट करने वाली 1978 की सौर क्रांति के बाद अफगानिस्तान में सोवियत संघ का प्रभाव रहा. लोकतांत्रिक अफगानिस्तान गणराज्य (1978-1987) और इसके बाद अफगानिस्तान गणराज्य (1987- 1992) का दौर महिलाओं की समानता का दौर था. 1978 में नूर मोहम्मद तराकी की सरकार ने महिलाओं को अपने पति और करियर चुनने की आजादी दी थी. वहां अफगान महिला परिषद यानी एडब्ल्यूसी का काम करती थी. खास बात यह थी कि तब सिर्फ इलीट वर्ग की महिलाओं को ही नहीं, आम औरतों को आजादी देने की वकालत की जाती थी. एडब्ल्यूसी के आंकड़े बताते हैं कि 1991 में हायर एजुकेशन में लड़कियों की तादाद सात हजार थी और स्कूलों में पढ़ने वाली बच्चियों की संख्या सवा दो लाख से ज्यादा थी. 190 महिला प्रोफेसर थीं और 22 हजार महिला टीचर्स.


अमेरिकी दखल के बाद औरतों के क्या हालात थे
इसके बाद सोवियत संघ का प्रभाव खत्म हुआ, और तालिबान ने नियंत्रण संभाला. जो होना था, सो हुआ. फिर 2001 में अमेरिकी दखल के बाद भी औरतों की तकलीफें कम नहीं हुईं. आंकड़े बताते हैं कि अफगान सरकार और कई देशों के डोनेशंस के बावजूद देश की दो तिहाई लड़कियां स्कूल नहीं जातीं. एमनेस्टी यूएसए की रिपोर्ट कहती है कि 87 प्रतिशत औरतें पढ़ी लिखी नहीं हैं, और 70 से 80 प्रतिशत की जबरन शादियां करा दी जाती हैं. अफगानिस्तान के सरकारी आंकड़े खुद कबूल करते हैं कि अफगानिस्तान में 80 प्रतिशत खुदकुशी औरतें किया करती हैं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी वजह घरेलू हिंसा और गरीबी है. 2008 के ग्लोबल राइट्स सर्वे में कहा गया है कि करीब 90 प्रतिशत अफगान औरतें घरेलू हिंसा का शिकार हैं. इसके अलावा अफगानिस्तान में मेटरनल मॉरटैलिटी रेट दुनिया में सबसे ज्यादा है.


क्या तालिबान बदल गया है
ऐसा लगता तो नहीं कि अमेरिकी वापसी के बाद तालिबान बदल गया है? इसके बावजूद कि अभी हाल ही में उसके एक नेता ने टोलो न्यूज की महिला एंकर बेहेश्ता अरघंड को इंटरव्यू दिया और कहा कि तालिबान से किसी को डरने की जरूरत नहीं. हां, उन्हें नए इस्लामिक अमीरात के नियमों के हिसाब से चलना होगा. यह तालिबान का उदार चेहरा था, लेकिन चंद घंटों के बाद उसने सरकारी चैनल की महिला पत्रकार और उसकी साथिनों को नौकरी से निकाल दिया. अभी जुलाई में बदख्शान और कखर प्रांतों में तालिबान ने धार्मिक नेताओं को निर्देश दिया था कि वह तालिबान लड़ाकों की शादियों के लिए लड़कियों की फेहरिस्त बनाएं. लड़कियां जो 15 साल से ज्यादा उम्र की हैं, और बेवा औरतें जो 45 साल से ज्यादा की हैं. मालूम नहीं कि
वह फेहरिस्त बनी है या नहीं, लेकिन अगर ये जबरिया शादियां होंगी तो इसके लिए लड़कियों को पाकिस्तान के वजीराबाद ले जाया जाएगा. वहां असली इस्लाम में उनका धर्मांतरण होगा. ये सेक्सुअल गुलामी जिनेवा कन्वेंशन और 2008 के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1820 के तहत रेप और जबरन वेश्यावृत्ति के बराबर है.


2017 में आयरिश फिल्ममेकर नोरा टूमे की एक एनिमेशन आई थी- द ब्रेडविनर. इसमें परवाना नाम की एक लड़की लड़के के भेष में रहती है और अपने परिवार की परवरिश करती है. लड़के के भेष में रहने की वजह से वह सड़कों पर आजादी तो घूमती है, दुकानदारों से तेज आवाज में सौदेबाजी करती है, शहर को अपनी तरह से देखती है. लेकिन यह सब इतना आसान भी नहीं होता. परवाना के लिए लड़का बनना कोई जादुई क्षण नहीं होता. क्योंकि लड़का बनकर भी हिंसा और उत्पीड़न का सिर्फ रूप बदलता है.


जाहिर सी बात है, आधुनिक दुनिया की परछाई अफगानिस्तान पर पड़ी जरूर है लेकिन उसका असर होना अभी बाकी है. अफगानिस्तान की एक बड़ी आबादी धार्मिक और परंपरावादी है. उनमें वो बेदारी आई ही नहीं, जो दुनिया को मिली है. अमेरिका के थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर के अध्ययन बताते हैं कि अफगानिस्तान में 99 प्रतिशत लोग शरिया को सरकारी कानून बनाने के पक्ष में हैं. तो अशांति में महिलाओं को कई तकलीफों से गुजरना पड़ता है, यह एक बात है. फिर जालिम जब सत्ता में आते हैं तो औरतों की परेशानियां और बढ़ सकती हैं. हम सिर्फ 2019 के एशिया फाउंडेशन के सर्वे से ही उम्मीद लगा सकते हैं. उसमें कहा गया था कि सिर्फ 13.4 प्रतिशत लोग
ही तालिबान से सहानुभूति रखते हैं. अगर तालिबान खुद भी यह समझ सके, तो वहां जिंदगी कुछ आसान हो
सकती है.


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