नई दिल्ली: देश के इतिहास में पानीपत का नाम मराठों और अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली की फौज के बीच हुई तीसरी लड़ाई के नाम पर दर्ज है. लेकिन भारत के खेल इतिहास में अब इसका नाम नीरज चोपड़ा और उसके भाले के लिए भी याद किया जाता रहेगा. कोई सोच भी नहीं सकता था कि 260 बरस पहले यानी 1761 में जिस भाले को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए अब्दाली ने जंग जीती थी,उसी भाले को फेंककर देश के खेल का इतिहास भी बदला जा सकता है.
दरअसल, नीरज ने टोक्यो ओलंपिक में सिर्फ स्वर्ण पदक नहीं जीता है बल्कि भारतीय खेलों के लिए एक ऐसी मशाल जलाई है जिसकी लौ आने वाले सालों में और तेज होती हुई दिखेगी. बेशक यह सवाल बहस का विषय हो सकता है कि महज एक गोल्ड मैडल जितने से क्या अगले ओलंपिक में हम पर स्वर्ण पदकों की बारिश हो जायेगी? लेकिन इस एक उपलब्धि ने ये तो साबित कर ही दिया कि देश में ऐसे एथलीटों का कोई अकाल नहीं है, जो अपना सपना पूरा करने के लिए पूरी ताकत लगाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते.
साल 1960 के रोम ओलंपिक में हमारे सर्वश्रेष्ठ धावक मिल्खा सिंह पदक पाने से अगर दो कदम पीछे नहीं रहे होते, तो नीरज के इस गोल्ड मेडल को शायद इतना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता. लेकिन उसने एथलेटिक्स में हमारी सौ साल पुरानी 'गोल्डन प्यास' को बुझाने के साथ ही इतनी कम उम्र में ही बाकी खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बनने का काम किया है. क्योंकि इससे पहले साल 1900 में हुए पेरिस ओलंपिक में एक्टर-एथलीट नॉर्मन प्रितचर्ड ने दो सौ मीटर दौड़ व बाधा दौड़ में दो सिल्वर मेडल जीते थे.
चूंकि वे भारत में जन्मे और यहीं शिक्षित हुए,इसलिये इंटरनेशनल ओलंपिक कमिटी आज भी उन दो पदकों को भारत के खाते में ही जोड़ती है. ओलंपिक में मैडल जितने वाले वे एशिया के पहले खिलाड़ी थे.
हालांकि, भारत ने औपचारिक रुप से 1920 के ओलिम्पिक से ही इसमें हिस्सा लेना शुरु किया,लिहाजा उसे ही पहला समझा जाता है. इसीलिए कहा जा रहा है कि एथलेटिक्स में गोल्ड मेडल हासिल करने के लिए हमें सौ साल का इंतज़ार करना पड़ा. हालांकि भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाने का रिकॉर्ड 2008 के ओलंपिक में 10 मीटर रायफल शूटिंग में अभिनव बिंद्रा के नाम पर ही माना जायेगा.
ओलंपिक में अगर हमारा प्रदर्शन लगातार बेहतर हो रहा है,तो उसकी एक वजह यह भी है कि खेलों से जुड़े सरकारी संस्थानों में पिछले कुछ सालों में भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसा है. खिलाड़ियों के चयन में जो भाई-भतीजावाद या भेदभाव होता था, वह तकरीबन ख़त्म हुआ है. यही वजह है कि इस ओलंपिक में शामिल हुए 120 खिलाड़ियों में से अधिकांश का नाता साधारण परिवारों से है. अच्छी बात ये भी है कि अब खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं मिलने के साथ ही अंतराष्ट्रीय स्तर की ट्रेनिंग के लिए विदेशों में भी भेजा जा रहा है.जैसी कि खबर आई है कि नीरज चोपड़ा की प्रैक्टिस, ट्रेनिंग, ट्रीटमेंट और अन्य सुविधाओं पर भारत सरकार ने करीब सात करोड़ रुपये खर्च किये हैं.
ये माना जा सकता है कि आने वाले सालों में भारत खेलों का कोई बहुत बड़ा पावरहाउस नहीं बन रहा है लेकिन नीरज चोपड़ा ने इसके लिए सुनहरी रोशनी बिखेरने का इंतज़ाम तो कर ही दिया.
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