हर सुपरपावर की अपनी एक कहानी होती है. चीन की भी है. अमेरिका को पछाड़कर चीन दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने की राह पर है. इस शक्ति की सबसे बड़ी वजह है उसकी मजबूत होती अर्थव्यवस्था. आखिर चीन की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत कैसी बनी? वो कौन सी वजह है जिसने सिर्फ 40 सालों में चीन को दुनिया का सुपर पावर बना दिया? इस रेस में भारत कहां है? क्या भारत भी अगले 25 सालों में सुपरपावर बन सकता है? ये कुछ ऐसे सवाल है जिनका जवाब हमें ढूंढना पड़ेगा. इस लेख का मूल मकसद आर्थिक तौर पर चीन के सुपर पावर बनने की कहानी को समझना है. भारत और चीन की तुलना करना पूरी तरह संभव नहीं क्योंकि दोनों देशों की आबादी 100 करोड़ से ज्यादा होने के बावजूद राजनीतिक व्यवस्था अलग है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है और चीन नहीं.  


1949 में जब कम्युनिस्ट पार्टी ने माओत्से तुंग के नेतृत्व में सत्ता हासिल की थी तब चीन बेहद ग़रीब और एकदम अलग-थलग पड़ा हुआ देश था. चीन की अर्थव्यवस्था कृषि पर ही आधारित थी. माओ चीन को शक्तिशाली, अमीर और बहुत बड़ी ताक़त के रूप में देखना चाहते थे. वो पूंजीवाद के कट्टर विरोधी थे. ये विडम्बना है कि आज चीन पूंजीवाद की राह पर चलते हुए ही दुनिया का सबसे तेज़ी से तरक्की कर रहा देश बन गया है.


माओ ने 1976 में अपनी मौत तक 27 सालों तक चीन का नेतृत्व किया. उन्होंने देश की आत्मनिर्भरता पर ही ज़ोर दिया. उन्होंने 1950 के दशक में 'द ग्रेट लीप फॉरवर्ड' अभियान के तहत चीन की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के औद्योगिकरण की कोशिश की लेकिन वो सफल नहीं हो सके. उनकी नीतियों की वजह से 1961 तक आते –आते चीन में भुखमरी की हालत हो गई थी.


दूसरी तरफ 1947 में भारत में जवाहरलाल नेहरू ने आजादी के बाद जब सत्ता संभाली तब भारत की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर ही आधारित थी. वो भी जानते थे कि भारत को अगर तेजी से आर्थिक तरक्की करना है तो लोगों को कृषि से निकालकर उद्योग की तरफ ले जाना होगा. नेहरू की लाख कोशिश के बावजूद भी भारत तेजी से औद्योगीकरण करने में असफल रहा. आजादी के चार दशक बाद भी भारत की औसत जीडीपी दर 3 फीसदी के आस पास रही. इसे कुछ अर्थशास्त्रियों ने हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ की भी संज्ञा दी थी.


चीन में 1978 में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के मुखिया डेंग श्याओपिंग एक नई सोच के साथ आए. उन्होंने चीन में आर्थिक क्रांति की शुरुआत की. शाओपिंग के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही चीन को अमीर बनाया है. उनके लाए सुधार माओ के सिद्धांतों से अलग थे. उन्होंने चीन के बाजार को पूरी दुनिया के लिए खोल दिया. उनका मानना था कि ग़रीबी के आधार पर समाजवादी व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती. डेंग श्याओपिंग ने पूरी दुनिया से बंद पड़े कूटनीतिक रिश्ते फिर से बनाने शुरु किए. 1979 में अमेरिका और चीन के राजनयिक संबंध फिर स्थापित हुए. अमेरिकी कंपनियों ने चीन में बड़े बाजार की संभावना को देखते हुए निवेश किया. कंपनियों ने चीन में सस्ते श्रम और कम किराए का जमकर फायदा उठाया. श्याओपिंग ने कृषि के क्षेत्र में भी बड़ा सुधार किया. उन्होंने किसानों को खुद के प्लॉट्स पर खेती करने का अधिकार दिया गया. ऐसा होने से किसानों के जीवन स्तर में सुधार आया और भोजन की कमी दूर हुई.


भारत में भी 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के राज में गरीबी हटाओ का अभियान नारा दिया गया था लेकिन जमीनी स्तर पर गरीबों की हालत बहुत नहीं सुधरी. सभी को रोटी, कपड़ा और मकान देने की बात कही गई लेकिन अभी तक हम इस वादे को पूरा नहीं कर पाए हैं.


चीन ने 1980 और 1990 के दशक में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में खूब निवेश किया. शुरूआत में चीन में सिर्फ बल्ब, खिलौने, बैटरी जैसे Low end products का ही निर्माण होता था लेकिन धीरे धीरे चीन हर छोटी से बड़ी चीज के निर्माण का केंद्र बन गया. यही वजह है कि चीन को दुनिया की फैक्ट्री भी कहा जाने लगा. इन सामनों को उन्होंने पूरी दुनिया में एक्सपोर्ट किया. इसका नतीजा ये हुआ कि 2010 में अमेरिका को पछाड़ कर चीन मैन्युफैक्चरिंग के सेक्टर में दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया था. 2019 तक आते-आते ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में चीन का हिस्सा 29 फीसदी हो गया जबकि अमेरिका का हिस्सा 17 फीसदी. वहीं भारत का हिस्सा इसमें सिर्फ 3 फीसदी है.


मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वजह से चीन में करोड़ों लोगों को रोजगार मिला. चीन की बड़ी आबादी को काम पर लगाने में ये सेक्टर काफी अहम साबित हुआ. क़ृषि और मैन्युफैक्चरिंग में सुधार की वजह से चीन के लोगों की कमाई भी बढ़ी. 1991 में भारत में प्रति व्यक्ति की सालाना आय 300 डॉलर थी. उस वक्त चीन में भी प्रति व्यक्ति सालाना आय 333 डॉलर थी. दोनों देशों में लोगों की औसत आय लगभग बराबर थी. 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय सात गुना बढ़कर 2,191 डॉलर हो गई है. लेकिन इस दौरान चीन की प्रति व्यक्ति आय पैंतीस गुना बढ़कर 11,819 डॉलर हो गई है. इन आंकड़ों से साफ है कि चीन अब भारत से बहुत आगे निकल गया है.


चीन के सुपरपावर बनने की सबसे बड़ी वजह उसका एक्सपोर्ट पर जबर्दस्त फोकस है.  1980 के दशक में चीन में 5.7 फीसदी की औसत से निर्यात में बढ़ोतरी हुई, 1990 के दशक में निर्यात की विकास की दर 12.4 फीसदी रही, वहीं साल 2000 से 2003 के बीच ये दर 20.3 फीसदी तक पहुंच गई. एक्सपोर्ट्स के क्षेत्र में इतनी तेजी से दुनिया में कहीं भी विकास नहीं हुआ.


साल 2001 से 2006 के बीच तेजी से बढ़ती विदेशी मांग से चीन में लगभग 7 करोड़ नौकरियां पैदा हुईं. ये नौकरियां मूल रूप से सिर्फ प्राथमिक शिक्षा पाए हुए मजदूरों को मिलीं. 2006 के बाद से चीन में घरेलू मांग इतनी बढ़ी रोजगार के लिए विदेशी मांग से ज्यादा घरेलू मांग अहम हो गई. इससे चीनी अर्थव्यवस्था को नया बैलेंस मिला. लेकिन चीन ने एक्सपोर्ट्स पर पकड़ ढीली नहीं की. ग्लोबल एक्सपोर्ट्स के मामले में चीन आज 10 फीसदी हिस्से के साथ दुनिया में नंबर एक है. निर्यात के मामले में अमेरिका दुनिया में दूसरे नंबर पर है जबकि भारत वैश्विक निर्यात के मामले में 19वें नंबर पर है.


भारत ने पिछले तीस सालों में अगर किसी इंडस्ट्री में अपनी धाक जमाई है तो वो है कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर का क्षेत्र. इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कंपनियां ने सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट और सर्विसेज में भारत का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया है. भारत में लेबर कॉस्ट कम होने की वजह से ये पूरी दुनिया का बैकएंड हब बन गया. ये 1991 के आर्थिक सुधारों की वजह से ही संभव हो पाया.


1991 वो साल है जब भारत में प्रधानमंत्री की गद्दी पर नरसिम्हा राव ने कमान संभाली. उस वक्त देश बहुत बड़े आर्थिक संकट में था. देश में विदेशी मुद्रा की इतनी कमी हो गई थी कि देश में सिर्फ दो हफ्ते के कच्चे तेल का आयात करने जितनी विदेशी मुद्रा बची थी. करो या मरो की स्थिति थी. राव समझ चुके थे उन्हें भी डेंग श्याओपिंग की तरह कुछ अलग सोच दिखानी पड़ेगी. उन्होंने भारत में संरक्षणवादी नीतियां खत्म करते हुए उद्योग चलाने के लिए सरकारी लाइसेंस और परमिट राज खत्म किया औऱ विदेशी निवेशकों को भारत में आने का न्योता दिया.


1992 में नरसिम्हा राव ने लाल किले से भाषण देते हुए कहा था कि " कई लोग घबराते हैं कि बाहर से पैसा आएगा तो पता नहीं क्या हो जाएगा..मैं कहना चाहता हूं, वह कारखाना यहां लगाएगा..हमारा देश छोड़कर बाहर तो वह भागने वाला नहीं है. सड़क बनेगी तो सड़क यही बनी रहेगी. रेल बनेगी तो यही तो रहेगी. इसमें घबराने की कोई बात नहीं है. जितनी पूंजी लगे लगने दीजिए. वह हमारी हो जाएगी. अपनी हो जाएगी, देसी हो जाएगी और उससे फायदा हमें मिलेगा..जो पूंजी लगाता है वो थोड़ा मुनाफा कमाएं उसमें कोई आपत्ति होनी नहीं चाहिए क्योंकि केवल मुफ्त में कोई लगाने को तैयार नहीं होता." वो दूर की सोच रहे थे.


प्राइवेटाइजेशन के फैसले के बाद देश तरक्की की राह पर निकल पड़ा. भारत ने भी दुनिया के लिए दरवाजे खोल दिए थे. अगले दो दशकों में भारत में प्राइवेट बैंक्स, विदेशी गाड़िया, मोबाइल फोन, प्राइवेट टीवी चैनल, प्राइवेट एयरलाइंस से लेकर हर वो सुविधा आम आदमी को आसानी से मिलने लगी जिसके लिए वो आजादी से तरस रहा था. विदेशी निवेश के फायदे दिखने लगे थे.


1991 में प्राइवेटाइजेशन से पहले देश में सिर्फ 1 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा थी. लेकिन आज देश में 640 बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा है. भारत का लक्ष्य अब चीन है. चीन के पास इस वक्त दुनिया में सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा भंडार है. चीन के पास फिलहाल 3200 बिलियन यानी कि 3.2 ट्रिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा का भंडार है. भारत की विकास दर भी पिछले दो दशकों में कई बार 7-8 फीसदी के आस-पास रही है. भारत के अलावा चीन ही एकमात्र ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसकी विकास दर इतनी तेज रही है.


चीन की तरक्की की एक और बड़ी वजह है शहरीकरण. उन्होंने पिछले 40 सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर, रेल, रोड, हाउसिंग को तेजी से मॉडर्न बनाया है. तेजी से शहरीकरण की वजह से चीन में आज 100 से ज्यादा शहर ऐसे हैं जहां आबादी 10 लाख से ज्यादा है. शहरीकरण की वजह से चीनी सरकार ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में लोगों को शहरों में लाने में कामयाब हुई है. ऐसा करने से रोजगार के साथ साथ कमाई बढ़ने से लोगों के जीवन स्तर में भी बढ़ोतरी हुई है.


2021 की डेमोग्राफिया रिसर्च ग्रुप की स्टडी के मुताबिक इस वक्त चीन में ऐसे 108 शहर है जिनकी अनुमानित आबादी वन मिलियान यानी 10 लाख से ऊपर है. ये दुनिया में सबसे ज्यादा है. McKinsey Global Institute के मुताबिक जिस तरह से चीन में तेजी से शहरीकरण हो रहा है, उसकी वजह से साल 2025 तक चीन में ऐसे शहरों की संख्या दोगुनी हो जाएगी. अगर भारत की बात करें तो यहां इस वक्त 61 शहर ऐसे हैं जिनकी अनुमानित आबादी 10 लाख से ऊपर है. लेकिन चिंता की बात ये है कि भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया थोड़ी धीमी है और इंफ्रास्ट्रक्चर की क्वालिटी भी उतनी अच्छी नहीं है.


2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने मुंबई को शंघाई जैसा बनाने की बात कही थी लेकिन आज तक ये सपना, सपना ही बना हुआ है. सवा दो करोड़ की आबादी वाले मुंबई में शहर में न ठीक से रहने की जगह है न अच्छा जीवन स्तर. यहां पर जिस तेजी से रेल, रोड, घर समेत बाकी इंफ्रास्ट्कक्चर का निर्माण होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ है. करोड़ों लोगों को गरीबी के जंजाल से निकालने के लिए देश में तेजी से शहरीकरण जरूरी है. ये साबित हो चुका है कि शहरीकरण होने से रोजगार के मौके बढ़ते हैं और लोगों की कमाई बढ़ती है. दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी होने के बावजूद चीन ने ऐसा कर दिखाया है.


चीन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जब 2012 में गद्दी संभाली थी तब उन्होंने देश से गरीबी खत्म करने का संकल्प लिया था. उस वक्त चीन में 10 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे जो ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में रहते थे. जिनपिंग ने गरीबी से निकालने के लिए ढाई करोड़ लोगों के जर्जर मकान रहने लायक बनाए और एक करोड़ लोगों को अलग जगह पर बसाया औऱ घर दिए. उनका कहना है कि लोगों को गरीबी से बाहर निकाले बिना देश प्रगति नहीं कर सकता.


फिलहाल चीन की अनुमानित आबादी 143 करोड़ है जबकि भारत की अनुमानित आबादी इस वक्त 139 करोड़ है. 1981 में चीन में 88 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते थे. लेकिन चीनी सरकार के दावे के मुताबिक अब चीन में अब एक भी शख्स गरीबी रेखा से नीचे नहीं है. भारत में 1974 में 56 फीसदी जनता गरीबी रेखा से नीचे थी, संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2019 में भारत में फिलहाल अनुमानित 28 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं.


भारत और चीन, दोनों की कोशिश है कि लोगों को तेजी से गरीबी से निकालकर मिडिल क्लास में लाया जाए. 2016 में चीन में 73 करोड़ लोग मिडिल क्लास के दायरे में थे. ऐसा अनुमान है कि साल 2027 तक चीन में 120 करोड़ लोग मिडिल क्लास में शामिल हो जाएंगे. जबकि भारत में इस वक्त एक अनुमान के तौर पर सिर्फ 37 करोड़ लोग ही मिडिल क्लास के दायरे में आते हैं. 


नरसिम्हा राव ने नब्बे के दशक में लाल किले से भाषण देते हुए कहा था कि वो अगले 25-30 सालों में भारत को विकसित देशों की कतार में देखना चाहते हैं. अभी भी भारत उस स्तर पर नहीं पहुंच पाया है. नरसिम्हा राव के सपने को आगे बढ़ाने की वाजपेयी, मनमोहन ने काफी कोशिश की लेकिन राह इतनी आसान नहीं है. हालांकि भारत को इसमें थोड़ी बहुत सफलता मिली है. पीएम मोदी भारत को 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना देखते हैं. अब देखना है कि वो इसमें कब तक कामयाब हो पाते हैं. फिलहाल भारत की जीडीपी का आकार फिलहाल 2.7 ट्रिलियन डॉलर का है जबकि चीन की अर्थव्यवस्था 16 ट्रिलियन डॉलर की है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन को 100 ट्रिलियन युआन यानी 16 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना देखा था जो उन्होंने कर दिखाया है.


कोरोना के कहर से सबसे पहले संभलने वाले देशों में भी चीन ही सबसे आगे रहा है. दुनिया की सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की जीडीपी पिछले साल माइनस में थी, तब भी चीन की ग्रोथ पॉजिटिव थी. 2020-21 में भारत की विकास दर माइनस 7.96 फीसदी रही. ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, जापान सभी की विकास दर भी माइनस में रही. लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सिर्फ चीन ही ऐसा देश था जिसकी विकास दर प़ॉजिटिव थी. पिछले साल चीन की विकास दर में बढ़ोतरी 2.27 फीसदी रही. इससे एक बार फिर साबित हो गया कि चीनी अर्थव्यवस्था के खंबे कितने मजबूत हैं.


फिलहाल अमेरिका इस वक्त दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. ऐसा अनुमान है कि जब चीन की आजादी के 100 साल पूरे होंगे तब वो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका होगा. तब हम कहां होंगे? अनुमान के मुताबिक हम भी उस वक्त दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे. लेकिन 25 साल का वक्त बहुत लंबा होता है. अगर हर भारतवासी ठान ले तो चीन को पछाड़कर कर हम दुनिया में नंबर वन भी बन सकते हैं. क्या ऐसा हो पाएगा?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)