आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने ये कहकर देश में एक नई बहस छेड़ दी है कि जो हिंदू सिर्फ शादी के लिए धर्मांतरण करते हैं, वे ऐसा करके गलत कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने ये बात हिंदू लड़के-लड़कियों यानी दोनों के लिए समान रूप से कही है. लेकिन संघ और विभिन्न राज्यों में बीजेपी सरकारों की सोच है कि पिछले कुछ सालों में अंतर धार्मिक विवाह की घटनाएं ज्यादा देखने को मिली हैं जिसमें मुस्लिम युवक हिंदू लड़कियों से शादी के बाद उनका धर्मांतरण करा देते हैं,यानी या तो वे अपनी मर्जी से अपना लें या फिर उन्हें जबरन इस्लाम कबूलने पर मजबूर कर दिया जाता है.


लेकिन भागवत के इस बयान के गहरे मायने भी हैं. उनका बयान ऐसे वक़्त में आया है, जब कई बीजेपी शासित राज्य अंतरधार्मिक शादियों के ख़िलाफ़ क़ानून ला चुके हैं. हालांकि ये कानून जबरन या किसी प्रलोभन के एवज में किये जाने वाले धर्मांतरण के खिलाफ बनाये गए हैं लेकिन इनका मूल मकसद अंतर धार्मिक विवाह की प्रवत्ति पर रोक लगाना ही है. ऐसी शादियों को हिंदूवादी संगठन 'लव-जिहाद' कहते हैं. माना जाता है कि संघ के दबाव में ही राज्य सरकारों ने ये क़ानून बनाया है.


गौर करने वाली बात ये है कि संघ प्रमुख ने अभी तीन महीने पहले ही 4 जुलाई को मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि "हिंदू- मुस्लिम एकता की बातें भ्रामक हैं क्योंकि यह दोनों अलग नहीं बल्कि एक है. उन्होंने ये भी कहा था कि सभी भारतीयों का DNA एक है, चाहें वो किसी भी धर्म के क्यों न हों."


लिहाज़ा,अगर संघ ये मानता है कि भारत में पैदा हुए सभी लोगों के पूर्वज हिंदू ही थे, तो फिर सवाल ये उठता है कि हिंदू वयस्क लड़के-लड़कियों को ये नसीहत क्यों दी जा रही है कि अंतर धार्मिक विवाह करने के बावजूद वे किसी और धर्म या पूजा-पद्धति को न अपनाएं. ये तो उनकी मर्जी पर छोड़ देना चाहिए कि वे शादी के बाद अपने ही धर्म का पालन करते हैं या अपने जीवन-साथी के मज़हब को अपनाते हैं या फिर दोनों ही धर्मों के प्रति समान रूप से आस्था रखते हैं. वैसे भी धर्म किसी पर थोपने की नहीं बल्कि धारण करने और उसके अनुसार जीवन जीने की एक पद्धति है. यह सही है कि बीते कुछ वक्त में शादी के बहाने जबरन धर्मांतरण की कुछ घटनाएं भी सामने आई हैं, लेकिन उनसे निपटने के लिए और दोषियों को सजा देने के लिए जब कानून बन चुका है, तो फिर अंतर धार्मिक विवाह से डर आखिर किसलिये?


मौजूदा युवा पीढ़ी समय से आगे की आधुनकि सोच रखने वाली है, जो अपना कैरियर बनाने के साथ ही खुद ही ये तय करती है कि उसका जीवन साथी कौन होगा. तब कोई लड़का या लड़की ये नहीं सोचता कि उसे जिसके साथ अपनी पूरी जिंदगी बितानी है, उसका धर्म क्या है. वे अपनी शादी के लिए मज़हब की दीवार गिराने में यकीन रखते हैं और अंतर धार्मिक विवाह का विरोध करने वालों को वे दकियानूसी व संकुचित मानसिकता रखने वाला व्यक्ति मानते हुए ऐसी किसी भी सलाह की उपेक्षा ही करते हैं. वैसे भी देश के संविधान ने हर वयस्क व्यक्ति को ये अधिकार दे रखा है कि वे अपनी मर्जी से किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में शादी कर सकता है और उसे अपना भी सकता है.


हालांकि मोहन भागवत भी इस सच्चाई को जानते हैं कि संविधान में दिये गए इस अधिकार को किसी कानून के जरिये छीना नहीं जा सकता है. शायद इसीलिए उन्होंने इस पर जोर दिया है कि धर्मांतरण एक छोटे स्वार्थ के लिए हो रहा है क्योंकि हिंदू परिवार अपने बच्चों में अपने धर्म और परंपराओं के लिए गर्व का भाव पैदा नहीं कर पाते. 'हिंदु जगे तो विश्व जगेगा' का आह्वान करते हुए उन्होंने ये भी कहा कि 'हमें अपने बच्चों को अपने धर्म और पूजा के प्रति आदर भाव रखना सिखाना चाहिए ताकि वे अन्य 'मतों' की ओर ना जाएं.'


लेकिन कड़वी हक़ीक़त तो ये है कि उनकी इस बात का आधुनिक पीढ़ी के युवाओं पर कितना असर होगा,इसकी गारंटी तो हिन्दू परिवारों के बड़े-बुजुर्ग भी नहीं दे सकते. यहां बता दें कि बीजेपी की गुजरात सरकार ने भी इसी साल धर्मांतरण विरोधी नया कानून पारित किया है लेकिन वहां की हाइकोर्ट ने 19 अगस्त को धर्मांतरण विरोधी नए कानून की अंतरधार्मिक विवाह संबंधी कुछ धाराओं के अमल पर रोक लगा दी है. मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति बिरेन वैष्णव की खंडपीठ ने इन विवादित धाराओं पर रोक लगाते हुए कहा था कि लोगों को अनावश्यक परेशानी से बचाने के लिए अंतरिम आदेश पारित किया गया है. इसके मुताबिक यदि एक धर्म का व्यक्ति किसी दूसरे धर्म व्यक्ति के साथ बल प्रयोग किए बिना, कोई प्रलोभन दिए बिना या कपटपूर्ण साधनों का इस्तेमाल किए बिना विवाह करता है, तो ऐसे विवाहों को गैरकानूनी धर्मांतरण के उद्देश्य से किया गया  विवाह करार नहीं दिया जा सकता.’’ लिहाज़ा, पुलिस ऐसी किसी भी शादी के खिलाफ केस दर्ज नहीं कर सकती.इस नए कानून की कुछ धाराओं को असंवैधानिक बताते हुए जमीयत उलेमा-ए-हिंद की गुजरात शाखा की याचिका पर हाइकोर्ट ने यह अंतरिम आदेश पारित किया था.


वैसे भी संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर से लेकर तमाम समाज-सुधारक कह चुके हैं कि समाज से जातिवाद को खत्म करने और समुदायों के बीच आपसी सद्भाव पैदा करने के लिए अंतर जातीय या अंतरधार्मिक विवाह होना आवश्यक है और सरकारों को इसे बढ़ावा देते रहना चाहिये.


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