'जाटलैंड' में इस बार कितना असर दिखा पाएगी योगी की हिंदुत्व लहर?
किसान आंदोलन के कारण वेस्ट यूपी में कमजोर होती बीजेपी की जमीन को मजबूत करने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आज एक बड़ा सियासी दांव खेला है. आठ साल पहले मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद शामली जिले के कैराना से पलायन कर गए हिंदू परिवारों की घर वापसी कराकर योगी ने एक साथ कई निशाने साधे हैं.
एक तरफ़ जहां उन्होंने करोड़ों रुपयों की कई परियोजनाओं का शिलान्यास किया तो वहीं साम्प्रदायिक ताकतों को भी ये संदेश दे दिया कि अगर चुनाव से पहले यहां की फिज़ा बिगाड़ने की कोशिश हुई तो अंज़ाम बहुत बुरा होगा.
दरअसल, वेस्ट यूपी के 14 जिलों में किसान आंदोलन का खासा असर है और बीजेपी को लगता है कि ये उसके लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है. जबकि 2017 के चुनाव में ये उसका सबसे मजबूत किला बनकर उभरा था. लिहाज़ा, किसान आंदोलन की आंच से बचने के लिए बीजेपी इस बार फिर कैराना को ही अपनी प्रयोगशाला बनाते हुए सत्ता की सीढ़ी चढ़ना चाहती है. दंगों से प्रभावित होकर ये इलाका छोड़ चुके परिवारों की घर वापसी जिस तामझाम के साथ कराई गई है उससे साफ है कि बीजेपी लोगों के जेहन से न तो कैराना की याद को ख़त्म नहीं करना चाहती है और न ही जाटों के बीच बने अपने जनाधर को ही खोना चाहती है.
पहले चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत का और बाद में अजित सिंह का सियासी गढ़ समझे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आठ साल पहले तक बीजेपी का कोई बहुत बड़ा वजूद नहीं था. लेकिन 7 सितंबर, 2013 को मुजफ्फरनगर के कवाल गांव से भड़की साम्प्रदायिक हिंसा ने यहां के सारे सामाजिक व सियासी समीकरणों को तहस-नहस कर दिया. जाटों व मुस्लिम समुदाय के बीच भड़के दंगों में आधिकारिक तौर पर 62 लोग मारे गए थे और सैकड़ों जख्मी हुए थे.
डर का आलम ये था कि तकरीबन 40 हजार लोगों को अपना घरबार छोड़कर सरकारी राहत कैम्पों में शरण लेनी पड़ी थी. दंगों से पहले तक जाट-मुस्लिम समीकरण ही राष्ट्रीय लोकदल का सबसे बड़ा आधार हुआ करता था. लेकिन उस हिंसा के बाद जाटों ने रालोद से किनारा कर लिया और ये मानते हुए बीजेपी का दामन थामा कि सिर्फ बीजेपी ही उनकी सुरक्षा का भरोसा दे सकती है. अगले साल यानी 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव में जाटों के बल पर ही बीजेपी ने वेस्ट यूपी की सारी सीटों पर भगवा लहरा दिया.
यहां तक कि जाटों के सबसे प्रभावशाली नेता चौधरी अजित सिंह भी अपनी सीट नहीं बचा सके और बागपत से चुनाव हार गए. जाटलैंड में बीजेपी को पहली बार इतनी बड़ी कामयाबी मिली थी जिसने उसके हौसले को ऐसे पंख लगाए कि 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने यहां कि कुल 71 सीटों में से 51 पर अपना झंडा गाड़ दिया. रालोद से चुने गए इकलौते विधायक ने भी बाद में बीजेपी का दामन थाम लिया सो अब 52 सीटें उसके पास हैं.
लेकिन बीजेपी और संघ को ये अहसास है कि अब वेस्ट यूपी में 2017 जैसी भगवा लहर नहीं है और तीन कृषि कानूनों को लेकर बीजेपी के प्रति जाटों का गुस्सा भी मुखर है. ऐसे में हिंदुत्व को ही अपना मुख्य एजेंडा बनाकर सत्ता के घोड़े पर सवार हुआ जा सकता है.
हालांकि पिछले दिनों पार्टी व संघ की तरफ से कराए गए अलग-अलग सर्वे में ये आशंका जताई गई थी किसान आंदोलन के चलते इन 52 में से करीब आधी सीटों पर पार्टी की हालत बेहद खराब है जिसे जीतना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा. उस सर्वे के बाद ही संघ के सह सर कार्यवाह कृष्ण गोपाल ने पिछले महीने नोएडा में एक महत्वपूर्ण बैठक रखी थी जिसमें वेस्ट यूपी के पार्टी के सभी सांसदों व विधायकों ने हिस्सा लिया था. उस बैठक में शामिल एक सांसद के मुताबिक संघ की तरफ से ये हिदायत दी गई है कि वे अपने चुनाव-अभियान में किसानों के प्रति गुस्सा जाहिर करने और उनके लिए किसी भी तरह के अपशब्दों का इस्तेमाल करने से बचें.
हिंदुत्व के मुद्दे के साथ ही केंद्र व प्रदेश सरकार की उपलब्धियों-नीतियों पर अपना सारा फ़ोकस रखते हुए किसान आंदोलन को नाजायज साबित करने के लफड़े में फंसने से खुद को बचायें. वैसे सच्चाई ये है कि समूचे वेस्ट यूपी में बीजेपी के खिलाफ किसानों में जबरदस्त गुस्सा है. कुछ महीने पहले हुए पंचायतों के चुनावों में डर का आलम ये था कि पार्टी के कार्यकर्ता कई गांवों में प्रचार के लिए जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाये थे. वहीं समस्या अब भी आयेगी जिससे निपटने के लिए पार्टी के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि क्या इस बार भी जाटलैंड में हिंदुत्व की लहर उतनी कामयाब हो पायेगी?
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