हिंदी फिल्मों के बेहद मशहूर पार्श्वगायक मोहम्मद अजीज के निधन पर आम-ओ-खास की ठंडी प्रतिक्रिया देख कर यह सोचनीय है कि प्राचीन युग की तरह वर्तमान भारतीय समाज में भी नामचीन और कलावंत व्यक्तियों को खांचों में बांट कर देखने की प्रवृत्ति अभी गई नहीं है. मामूली क्रियाओं पर प्रतिक्रियाओं की सुनामी लाने वाले सोशल मीडिया ने भी उनकी मौत को अपेक्षाकृत नजरअंदाज ही किया. यह योग्यता और उत्कृष्टता के आधार पर क्रमानुगत करने के स्थान पर समाजार्थिक, धार्मिक और जातिगत स्थिति के आधार पर वर्गीकृत करने की मानसिकता का परिचायक है. इसमें आधुनिक दौर की विज्ञापनी संस्कृति द्वारा पीतल को सोना बनाकर पेश करने की कला का भी विशेष योगदान है. ऐसा भी नहीं है कि अस्सी-नब्बे के दशक की फिल्म गायिकी में मोहम्मद रफी का वारिस माने जाने वाले मोहम्मद अजीज के लोकप्रिय गाने सुनकर अभिजात्य वर्ग के मन में प्रेम, उमंग, उल्लास, तसल्ली, विषाद, वेदना, विछोह की भावना का संचार न होता रहा हो. लेकिन यह यूज एंड थ्रो की संस्कृति और डाउन सिंड्रोम का वाहक वर्ग है- यानी न रोकी जा सकने वाली बौद्धिक विकलांगता!
यह उच्च वर्ग मोहम्मद अजीज के गाने दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, जीतेंद्र, ऋषि कपूर, अनिल कपूर, गोविंदा, अजय देवगन जैसे विश्वव्यापी ख्याति के सितारों पर फिल्माए जाने के बावजूद उनको महज विलापी गायक मानता रहा और यूपी-बिहार वालों की पसंद करार देता रहा. अनवर, शब्बीर कुमार जैसे गायकों को लेकर भी उनका यही रवैया रहा है. यह मानसिकता कितनी गहरी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुआयामी नर्तक और प्रवीण फिल्म अभिनेता गोविंदा ने इन पंक्तियों के लेखक को एक बार बताया था कि इंडस्ट्री के कई स्थापित लोगों ने उन्हें सस्ता उत्पाद कह कर महज हास्य-कलाकार बना कर रख देने की मुहिम चलाई थी! जन्म के आधार पर श्रेणियों में वर्गीकृत करके गुणीजनों को छवियों में कैद करने का सिलसिला महज हिंदी सिनेमा तक महदूद नहीं है; साहित्य, कला, संगीत, इतिहास, पत्रकारिता, चिकित्सा, विज्ञान, शिक्षा जगत, व्यवसाय और समाजसेवा समेत अन्य कार्यक्षेत्रों में भी यही ढर्रा बना हुआ है.
विवेच्य प्रखर प्रतिभाओं का सत्ता के केंद्र में न होना भी इसका एक अहम कारक है. प्राचीन काल में सत्ता केंद्रों से दूर बसे पद्मपुर जैसे नगर के महाकवि भवभूति के नाटक महाकवि कालिदास की नगरी उज्जयनी तक नहीं पहुंचने दिए जाते थे. आधुनिक काल में बिहार के गरीब अंचल पूर्णिया से आने वाले महान उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु को मुख्यधारा के साहित्य से काटकर लंबे अरसे तक आंचलिक उपन्यासकार ही बताया जाता रहा. प्रखर जनवादी कवि शील और गोरख पाण्डेय के कवि होने में पर ही सुबहा किया जाता है. प्रगतिशील, सार्थक और बेहद लोकप्रिय फिल्मी गीत लिखने वाले शैलेंद्र गीतकारों की पहली पंक्ति में कभी शामिल नहीं किए गए, क्योंकि ये सब सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा नहीं हुए थे. फिल्मकार सत्यजित रे, चित्रकार सुजा और संगीतज्ञ पण्डित रविशंकर को भी भारतीय कला आलोचकों ने तभी सर पर बिठाया, जब पश्चिम ने उनकी महानता पर मुहर लगाई. मुखापेक्षी होकर गुणों के मूल्यांकन की कसौटी अचानक बदल जाने का एक कारण यह भी है कि हमने अध्यवसाय से प्राप्त की गई उपलब्धियों की कद्र करना नहीं सीखा और ऐसे ख्यातलब्ध व्यक्तियों को अपने निजी और राष्ट्रीय जीवन का आवश्यक और निर्णायक अंग नहीं माना है. इतिहास का दामन भी भद्रता के इस दाग से नहीं बच सका.
मुख्यधारा के इतिहास में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के गुण तो सभी गाते हैं लेकिन उनकी हमशक्ल और जान बचाने वाली निर्धन कोली परिवार में जन्मीं वीरांगना झलकारी बाई का उल्लेख कितने इतिहासकारों ने किया है? वैराग्य-साधना में लीन महात्यागी बंदाबहादुर को कौन याद करता है, जिन्होंने गुरु गोविंद सिंह की एक पुकार पर तलवार उठा ली थी. हिंदी पत्रकारिता के गौरव बाबू बालमुकुंद गुप्त, पण्डित रुद्रदत्त शर्मा, अमृतलाल चक्रवर्ती, दुर्गाप्रसाद, माधवराव सप्रे, गणेश शंकर विद्यार्थी का भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता में कितना सम्मान है? सत्ता की भाषा से इतर भाषाओं में होने वाली राष्ट्रीय पत्रकारिता को वर्नाकुलर प्रेस कहा जाना श्रेष्ठता के दर्प का परिचायक नहीं तो और क्या है? गरीबी और मनोविदलता से ग्रस्त होकर बिहार में उपेक्षित पड़े महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की कहीं से कोई खबर नहीं आती है जबकि संभ्रांत वर्ग की छोटी से छोटी घटना भी सुर्खियां बटोरती है. यहां तक कि बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों को लेकर होने वाली प्रतिक्रिया की तीव्रता भी समाजार्थिक पृष्ठभूमि ही तय करती है.
इसका मुख्य कारण यह है कि अपनी मूल प्रकृति और विचार में शक्ति और शासन के समस्त सूत्र इस अभिजात वर्ग के इर्द-गिर्द केंद्रित किए जाते हैं. इस वर्ग की पसंद-नापसंद और उत्पाद-वितरण नेटवर्क मोटे तौर पर दूसरे वर्गों की प्राथमिकताएं निर्धारित करता है, भले ही वे उत्पाद अन्य वर्गों के लिए सर्वथा अनुपयोगी हों. इस वर्ग की रुचियों के अस्वीकार को अशास्त्रीयता और असभ्यता का द्योतक करार दिया जाता है. अकारण नहीं है कि जनसामान्य से खुद को विशिष्ट समझने वाले इस वंशानुगत वर्ग की नजर में अनुराधा पौडवाल, पूर्णिमा, जसपिंदर नरूला, अल्ताफ राजा, दलेर मेहदी और मीका जैसे गायक महज टैक्सी-रिक्शा वालों के गायक बन कर रह जाते हैं. स्वयं से कमतर श्रेणी में ठेलने की यह प्रक्रिया अवचेतन के स्तर पर चलती है.
कई बार इसमें प्लेटफॉर्म सिंड्रोम भी कार्यरत रहता है, यानी जिसने पहले कब्जा कर लिया, मिल्कियत उसी की हो गई. निचले स्तर से उठकर बड़ी सामाजिक हैसियत अर्जित करने वाले अभिजन भी संघर्षरत लोगों को अवांछितों की तरह देखते हैं और उनकी असफलताओं का कैटलॉग बनाते चलते हैं, जो सफल होने के बाद अवांछितों का महत्व कमतर करने के काम आता है. जीते जी उनकी गुमनामी और मृत्योपरांत उपेक्षा का रसायन भी इसी विधि से बनता है. आखिरकार भारतीय वांङमय में मोक्ष पाने और दिलाने का अधिकार भी मात्र अभिजन को ही तो दिया गया है.
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