पाकिस्तान के मौजूदा हालात तो सबको पता ही है, महंगाई अपने चरम पर है, विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म होने के कगार पर है, कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिए पैसे नहीं हैं, लोग खाने-पीने की चीज़ों के लिए तरस रहे हैं और पाकिस्तान के हुक्मरान बाहरी मुल्कों से भीख मांग रहे हैं.
एक वक्त था जब पाकिस्तान की इकॉनोमी भारत से भी अच्छी स्थिति में थी. पाकिस्तान की Per Capita Income भारत से ज्यादा थी और पाकिस्तान का एग्रिकल्चर सेक्टर भारत से कहीं अच्छा परफॉर्म कर रहा था. लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि पाकिस्तान धीरे धीरे कर्ज के बोझ के नीचे दबता गया और इसकी इकोनॉमी आज डूबने के कगार पर है, तो चलिए लेकर चलते हैं आपको 1947 से 2023 तक पाकिस्तान की ऐसी यात्रा पर जिसमें पाकिस्तान की इकोनॉमी ने कई उतार चढ़ाव देखे और साथ ही बताएंगे आपको कि कैसे 1998 में Nuclear Bomb Test करने की सनक ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के पैर उखाड़ दिए.
बंटवारे के बाद पाकिस्तान पर नहीं था कोई कर्ज
1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त एग्रीमेंट के अनुसार पाकिस्तान को भारत के राजस्व का 17 फीसदी और सेना का 35 फीसदी हिस्सा विरासत में मिला. लेकिन ये बंटवारा रातों रात नहीं हो हुआ, इसमें काफी वक्त लगा. बंटवारे के बाद पाकिस्तान के सिर पर किसी तरह का कोई कर्ज़ नहीं था. आंकड़ों के मुताबिक उस वक्त एक डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपये की कीमत 3.31 रुपये थी. तब पाकिस्तान की आबादी लगभग 4 करोड़ के आसपास थी और भारत की तरह पाकिस्तान की सरकार भी शरणार्थी संकट से जूझ रही थी. लेकिन पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट था उसका एग्रीकल्चर सेक्टर. पाकिस्तान के पास भारत के मुकाबले अच्छी उपजाऊ ज़मीन थी और कई प्रमुख नहरें भी पाकिस्तान के हिस्से आई थीं.
पाकिस्तान का शुरूआती दौर खुद को स्टेबल करने और कश्मीर को हासिल करने की जंग में ही गुज़र गया. अक्टूबर 1948 में पाकिस्तान में State Bank of Pakistan की शुरूआत हुई जिसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच Currency Dispute शुरू हो गया, यहां तक कि उस वक्त RBI में काम करने वाले मुस्लिम और गैर-मुस्लिम कर्मचारियों का क्या होगा इस पर भी काफी लंबी खींचतान चली. अगस्त 2022 में पाकिस्तान के वित्त मंत्रालय की ओर से जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक 1950 में पाकिस्तान की जीडीपी 3 बिलियन डॉलर थी और विकास दर 1.8% दर्ज की गई थी. 1952 में हुए कोरियन युद्ध ने पाकिस्तान में व्यापारिक वर्ग को फलने-फूलने का पूरा मौका दिया. लेकिन अपने शुरूआती दौर में पाकिस्तान की इकोनॉमी को काफी दिक्कतों का सामन करना पड़ा जिसके पीछे की सबसे अहम वजह थी उस वक्त की अस्थिर सरकारें.
अयूब खान के समय में तेजी से हुआ विकास
लेकिन फिर साल 1958 में सेना ने पाकिस्तान की सियासत पर पूरा कंट्रोल कर लिया और अयूब खान को पाकिस्तान का Chief Marshal Law administrator नियुक्त किया गया. इसके कुछ वक्त बाद ही अयूब खान ने खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया. अयूब खान के समय में पाकिस्तान ने नए सिरे से ग्रोथ करनी शुरू की. 1958 से 69 के बीच पाकिस्तान की इकोनॉमी का average growth rate 5.82% रहा. पाकिस्तान में कई सुधार देखने को मिले और दक्षिण एशिया के किसी भी देश के मुकाबले पाकिस्तान 3 गुना ज्यादा तेज़ी से विकास कर रहा था. अयूब खान के शासन में पाकिस्तान का Manufacturing Sector 17% और Agriculture Sector 6% की दर से बढ़ा. पाकिस्तान बढ़ तो रहा था लेकिन इस ग्रोथ का फायदा हर वर्ग के इंसान को नहीं मिल रहा था. अमीर और अमीर होते जा रहे थे. इस विकास का दंश पूर्वी पाकिस्तान की लेबर क्लास को भी झेलना पड़ा. उनका काफी शोषण किया गया. पाकिस्तान से बांग्लादेश के अलग होने की एक वजह ये ये भी थी.
1965 के बाद जीडीपी ग्रोथ रेट कम होने लगा
हालांकि अयूब खान के वक्त पाकिस्तान और तेज़ी से आगे बढ़ सकता था, लेकिन 1965 की जंग ने उसकी ग्रोथ को पीछे धकेल दिया. 1960-65 के दौर में जो पाकिस्तान सालाना 3 गुना तेज़ी से विकास कर रहा था, जंग के बाद उसकी ग्रोथ में अगले 5 साल में 20% की गिरावट दर्ज की गई. फिर आया 1971 का साल. पाकिस्तान के हुक्मरानों की गलत नीतियों ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए और बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हो गया. इसके चलते पाकिस्तान की इकोनॉमी को काफी डाउनफॉल देखना पड़ा (Growth Rate of Pakistan 1971 - 0.47% & 1972 - 0.81%). फिर जुल्फिकार अली भुट्टो का दौर आया. भुट्टो रोटी, कपड़ा और मकान के नारे के साथ पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज़ हुए. भुट्टो का झुकाव socialist economy की तरफ था. इसके चलते भुट्टो ने कई ऐसे फैसले लिए जो उस वक्त पाकिस्तान के लिए सही नहीं थे. भुट्टो ने Financial Institutions जैसे बैंक, बीमा सेक्टर और कुछ उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इससे उद्योगों को नुकसान हुआ और विदेशी निवेशकों ने भी पाकिस्तान में निवेश करना बंद कर दिया. इसके चलते पाकिस्तान की Overall Growth जो 1960 के दशक में 6.8% सालाना थी वो 1970 के दशक में कम होकर 4.8% सालाना पर आ गई. जब 1977 में जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से बेदखल किया गया, उस वक्त पाकिस्तान का जीडीपी 15.13 बिलियन डॉलर था.
IMF से लगातार लेता रहा कर्ज़
फिर आया ज़िया-उल-हक़ (Zia-ul-Haq) का दौर, जिसे पाकिस्तान की इकोनॉमी का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है. हालांकि इस दौर में पाकिस्तान ने तरक्की तो की लेकिन अपने दम पर नहीं बल्कि बाहरी मुल्कों की मेहरबानी के बल पर. सितंबर 1978 में ज़िया-उल-हक़ ने पाकिस्तान का राष्ट्रपति पद संभाला और 17 अगस्त 1988 को एक प्लेन क्रैश में अपनी मौत तक वो पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे. इस दौर में पाकिस्तान की ज्यादातर नीतियों को IMF ही सपोर्ट कर रहा था. इस वजह से 1982 में IMF की सिफारिशों पर पाकिस्तान में पहली बार नीतियों में बदलाव भी किया गया. इन बदलावों के पक्ष में न तो पाकिस्तान सरकार थी और न ही वहां की सेना. असल में पाकिस्तान ने 1950 में ही IMF से जुड़ चुका था. 1958 में उसने पहली बार IMF से 2.5 करोड़ डॉलर का कर्ज लिया था. फिर 1965, 1968, 1972, 1973, 1974, 1977 और 1980 तक पाकिस्तान IMF से करोड़ों डॉलर का कर्ज़ ले चुका था.
80 के दशक में अमेरिका से मिली बड़ी राशि
अफगान-सोवियत युद्ध के चलते पाकिस्तान के हालात बदले. अफगानिस्तान में रूस को पीछे धकेलने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की मदद चाहिए थी और ज़िया-उल-हक़ ने इस मदद के बदले अमेरिका से अरबों डॉलर ऐंठ लिए. एक रिपोर्ट के मुताबिक उस दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान के ज़रिए अफगान मुजाहिदीनों को 5 से 7 बिलियन डॉलर दिए. इससे पाकिस्तान की इकोनॉमी को बूस्ट मिला. साल 1983 में पाकिस्तान को अमेरिका से 3.2 बिलियन डॉलर की मदद मिली. इसके चलते पाकिस्तान ने उस वक्त IMF से कर्ज लेना बंद कर दिया. हालांकि इस दौरान पाकिस्तान का उद्योग सेक्टर ढलान पर था, लेकिन एग्रीकल्चर सेक्टर में तेज़ी आई. विदेशों में बैठे पाकिस्तानियों से आने वाली राशि से पाकिस्तान की इकोनॉमी को काफी बूस्ट मिला. 1982-83 में पाकिस्तान के जीडीपी में Foreign Remittances का हिस्सा 10% के करीब था. यही नहीं Narcotic Trade ने भी 80 के दशक में पाकिस्तान को संभाले रखा.
ज़िया-उल-हक़ के वक्त सेना पर काफी खर्च
उधर ज़िया-उल-हक़ के दौर में सेना पर खर्च काफी ज्यादा बढ़ा. उधर सरकारी खर्चों में भी लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी. इसके चलते 1988 में पाकिस्तान सरकार का कुल कर्ज 290 मिलियन डॉलर पहुंच गया. ज़िया-उल-हक़ की मौत के बाद बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ का दौर आया. 1996 आते-आते पाकिस्तान का कर्ज़ 900 बिलियन डॉलर को पार कर चुका था. हालांकि उस वक्त पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति कुछ मामलों में भारत से बेहतर थी. 1990 के दशक के शुरूआती दौर में पाकिस्तान की per capita income भारत से 25% ज्यादा थी. 1992 में जहां भारत की 52% आबादी की रोज़ाना आय 1 डॉलर से कम थी, वहीं पाकिस्तान में सिर्फ 11% आबादी ही ऐसी थी जो 1 डॉलर से कम कमा रही थी. यही नहीं उस लगभग 20 लाख पाकिस्तानी विदेशों में काम कर रहे थे, जिनके चलते विदेशी मुद्रा का पाकिस्तान में तेजी से फ्लो हो रहा था.
पाकिस्तान पर बढ़ता गया कर्ज़
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि 1990 के दशक के अंत तक पाकिस्तान IMF जैसी संस्थाओं के सामने रेंगने लग गया. 1996 तक पाकिस्तान का कर्ज़ 900 मिलियन डॉलर पर था और IMF ने मदद के बदले स्ट्रक्चरल चेंज करने की सलाह दी. इसके बाद पाकिस्तान ने टैक्स में बढ़ोत्तरी की और जनता पर महंगाई का बोझ पड़ना शुरू हो गया. फिर आया साल 1998 जब पाकिस्तान ने अपना परमाणु परीक्षण किया. पाकिस्तान की इस एक गलती ने उसकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर रख दी. G8 समूह में शामिल देशों ने पाकिस्तान पर कई तरह की व्यापारिक पाबंदियां लगा दीं. इस वजह से पाकिस्तान की इकोनॉमी को काफी तगड़ा झटका लगा. 1998 में पाकिस्तान का GDP Growth Rate महज़ 2.55% रह गया. पाकिस्तान की हालत काफी खराब थी. बाकी बची खुची कसर कारगिल युद्ध ने पूरी कर दी. लेकिन अमेरिका में फिर कुछ ऐसा हुआ, जिसने पाकिस्तान को फिर से संजीवनी दे दी. वो घटना थी 911 का आतंकी हमला.
2003 से ग्रोथ रेट में तेजी से गिरावट
अमेरिका को आतंकवाद के खिलाफ फिर से पाकिस्तान की ज़रूरत पड़ी और पाकिस्तान की किस्मत फिर से चमक उठी. पाकिस्तन में फिर से पैसा फ्लो होने लगा था. 2001 से 2007 के बीच पाकिस्तान में विदेशी निवेश 17% तक बढ़कर GDP का 23% हो गया. और पाकिस्तान का घरेलू कर्ज भी GDP का 17.8% से कम होकर 16.1% रह गया था. अकेले साल 2002 की बात करें तो अमेरिका ने 11 बिलियन डॉलर पाकिस्तान को भेजे थे. 2003 से 2007 के बीच पाकिस्तान की GDP लगातार 5% से ज्यादा की दर से बढ़ रही थी. पाकिस्तान ने उस दौर में तरक्की तो की, लेकिन कोई दीर्घकालिक नीति नहीं होने के चलते पाकिस्तान का ये अच्छा दौर भी खत्म हो गया. 2007-08 में पाकिस्तान का ग्रोथ रेट पिछले साल के मुकाबले 37% तक नीचे आ गया. जिसके चलते यूसुफ़ रज़ा गिलानी की सरकार ने IMF से 7.6 बिलियन डॉलर का कर्ज लिया.
2010 में बाढ़ से चरमराई अर्थव्यवस्था
फिर साल 2010 में आई भीषण बाढ़ ने पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे और कृषि सेक्टर को काफी नुकसान पहुंचाया. 2013 में पहली बार डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया 100 के पार चला गया. ये 108 रुपये के स्तर को छू गया. 2013 से 2018 के बीच में पाकिस्तान की हालत कागज़ों पर तो सुधरती दिखी, लेकिन IMF, चीन और बाकी कई देशों से लिया गया कर्ज़ पाकिस्तान को अंदर ही अंदर और खोखला करता चला गया.
2018 से हालात और बिगड़ने लगे
2018 में इमरान खान के सत्ता संभालते ही पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था फिर डगमगाने लगी. इसके चलते पहले सऊदी अरब, फिर अमेरिका और उसके बाद चीन से पाकिस्तान ने कर्ज़ लिया. पाकिस्तान सरकार यहीं नहीं रूकी. हालत खराब होते देख 2019 में IMF से 1 बिलियन डॉलर का कर्ज ले लिया. फिर कोरोना महामारी ने पाकिस्तान की बची-खुची उम्मीद को भी खत्म कर दिया और आज़ादी के बाद पहली बार पाकिस्तान का GDP (-1.33%) माइनस में चला गया. पाकिस्तान की हालात सुधारने में नाकाम इमरान खान ने देश को भीषण कर्ज में डुबो दिया. अब शहबाज़ शरीफ भी डूबते पाकिस्तान को बचाने के लिए जेनेवा से 10 बिलियन डॉलर का कर्ज लेकर लौटे हैं. हुक्मरानों के कर्ज़ लेने की इस आदत के चलते, कभी भारत से अलग होकर एक आदर्श मुल्क का सपना पालने वाला पाकिस्तान आज 290 बिलियन डॉलर के कर्ज के नीचे दब गया है जो उसकी GDPका 79% है. लेकिन इसके पीछे दोष किसका है, पाकिस्तान के हुक्मरानों का, पाकिस्तानी फौज का, आतंकवादियों को पालने का या फिर कर्ज़ लेकर घी खाओ वाली पाकिस्तान की नीति का. सवाल कई हैं जो पाकिस्तान के सामने मुंह बाए खड़े हैं.
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