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अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार को कैसे 'स्पीड मोड' में लायेगी सरकार?

देश में कोरोना महामारी का असर भले ही बहुत कम हो गया हो लेकिन अर्थव्यवस्था अभी भी रफ़्तार नहीं पकड़ पाई है.आम जनता के लिए ये अच्छी ख़बर नहीं कही जा सकती क्योंकि अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ्तार से महंगाई और बढ़ेगी जिसका सीधा असर आम आदमी को झेलना होगा.मंगलवार को सरकार ने 31 मार्च को समाप्त हुई चौथी तिमाही में जीडीपी के जो आंकड़े पेश किये हैं,उन्हें देश की माली हालत के लिहाज से अच्छा नहीं कह सकते.

देश की अर्थव्यवस्था की ताजा तस्वीर  पेश करने वाले इन आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2021-22 में देश की जीडीपी 8.7 फीसदी की दर से बढ़ी.सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो 31 मार्च को समाप्त हुई चौथी तिमाही में जीडीपी की रफ्तार महज़ चार फीसदी रही है,जिसे संतोषजनक नहीं कह सकते. जबकि इससे पहले वित्त वर्ष 2021-22 के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ)  ने जीडीपी 9.2 फीसदी रहने का अनुमान जताया था.हालांकि इसके पहले वर्ष 2020-21 में अर्थव्यवस्था में 6.6 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी.

मोदी सरकार सत्ता में आने के आठ साल पुरे होने का जश्न मना रही है लेकिन ये आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक विकास की गाड़ी की रफ्तार बड़ा पाने में वह अभी भी नाकाम ही साबित होती दिख रही है. हालांकि सरकार के पास कहने के लिए इसकी दो बड़ी वजह भी हैं.पहली कोरोना महामारी और दूसरा रुस-यूक्रेन के बीच छिड़ा युद्ध. माना जा रहा है कि जनवरी से मार्च के बीच कोरोना महामारी के ओमीक्रोन वैरिएंट के दस्तक देने और रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध की वजह से कमोडिटी की कीमतों में जो तेजी आई है, उसी के चलते चौथी तिमाही में देश के आर्थिक विकास में सुस्ती देखने को मिली है जिसके चलते जीडीपी विकास दर कम रही है. 

ज्यादा चिंता की बात ये है कि एक तरफ़ जहां आर्थिक विकास की गाड़ी सुस्त पड़ रही है,तो वहीं महंगाई में लगातार इजाफा हो रहा है. आरबीआई के मुताबिक 2022-23 में महंगाई दर 5.7 फीसदी रहने का अनुमान है. हालांकि आरबीआई जून में मॉनिटरी पॉलिसी कमिटी की बैठक में नए सिरे से महंगाई दर का अनुमान जारी कर सकता है. इससे पहले ब्रोकरेज हाउस मार्गन स्टैनले ( Morgan Stanley) ने भी कहा था कि बढ़ती महंगाई ,उपभोक्ता की तरफ से कमजोर मांग और कड़े वित्तीय हालात के चलते  बिजनेस सेंटीमेंट पर बुरा असर पड़ेगा.कीमतों में उछाल और कमोडिटी ( Commodity) के बढ़ते दामों के चलते महंगाई और बढ़ेगी ही.साथ ही चालू खाते का घाटा (Current Account Deficit) भी बढ़कर 10 साल के उच्चतम स्तर 3.3 फीसदी तक जा सकता है. 

याद होगा कि बीते अप्रैल महीने में खुदरा महंगाई दर 8 साल के उच्चतम स्तर पर यानी 7.79 फीसदी पर जा पहुंची है,तो वहीं  होलसेल महंगाई दर 9 साल के उच्चतम स्तर 15.08 फीसदी पर पहुंच गई है. महंगाई पर काबू पाने के लिए आरबीआई ने रेपो रेट बढ़ाया है. लेकिन महंगाई बढ़ेगी तो कर्ज और महंगा हो सकता है जिसका असर डिमांड पर पड़ेगा.ऐसे में ब्याज़ दरों में होने वाली बढ़ोत्तरी से सिर्फ़ निवेश, रोज़गार और आय में कमी आयेगी,यानी कि मुद्रास्फीति की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है.

इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस के प्रोफेसर डॉ. अरुण कुमार कहते हैं कि " यह सरकार का काम है कि वह आपूर्ति की बाधाओं को दूर करे, अटकलों पर लगाम लगाये और मुद्रास्फीति को कम करने के लिए अप्रत्यक्ष करों को कम करे. बंद हो चुकी इकाइयों को पुनर्जीवित करने में सरकार की तरफ से मदद किये जाने की ज़रूरत है.इसके लिए प्रत्यक्ष कर संग्रह को बढ़ाना होगा, ताकि बजट में राजकोषीय घाटे को बढ़ाये बिना अप्रत्यक्ष करों में कटौती की जा सके. ऐसा करने के लिए ख़ास क़दम हाल ही में कई बार सुझाये गये हैं" उनके मुताबिक बजट को फिर से तैयार करने की इसलिए ज़रूरत है, क्योंकि खर्च मुद्रास्फीति के साथ बढ़ेगा (मसलन, सब्सिडी के भुगतान के ज़रिये), जबकि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के चलते राजस्व के उछाल में गिरावट आयेगी.

अगर संक्षेप में कहा जाये, तो अर्थव्यवस्था को इस समय गतिरोध का सामना करना पड़ रहा है, जिससे निपटने के लिए आरबीआई की बजाय सरकार की तरफ़ से क़दम उठाये जाने की ज़रूरत है.हाल ही में जिन क़दमों का ऐलान किया गया है,वह एक शुरुआत है.जबकि मांग में कमी किए बिना आपूर्ति की बाधाओं को दूर करने के लिए अभी और बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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