नयी दिल्लीः अगले छह महीने में होने वाले उतर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले योगी मंत्रिमंडल के विस्तार को आज दिल्ली में पार्टी आलाकमान ने अंतिम रुप तो दे दिया. लेकिन सवाल ये है कि योगी सरकार के सामने जो चुनौतियां हैं, उससे पार्टी पार कैसे पायेगी और योगी आदित्यनाथ के लिए 2022 की राह भी क्या 2017 जितनी ही आसान होगी?

              


विपक्षी दलों से मुकाबला करने के अलावा पार्टी की अंदरुनी कलह को थामना, कृषि कानूनों पर किसानों का गुस्सा, ब्राह्मण वर्ग की नाराजगी औऱ बढ़ती हुई बेरोजगारी को लेकर युवकों का बीजेपी से होता मोहभंग-ये सब ऐसे मुद्दे हैं, जिनका साया चुनावों पर गहरायेगा. इन सबसे चतुराई पूर्ण तरीके से निपटते हुए ही योगी दोबारा सत्ता में वापसी के रास्ते को कुछ हद तक आसान बना सकते हैं. योगी सरकार के पास गिनाने के लिए अगर उपलब्धियों की भरमार है, तो जनता की कुछ उम्मीदों को पूरा न कर पाने या उन पर खरा न उत्तर सकने की नाकामियां भी हैं. राजनीतिक शब्दावली में जिसे 'एन्टी इनकंबेंसी फैक्टर' कहते हैं, उसका सामना हर सरकार को पांच साल बाद करना ही होता है, जिसका पैमाना भी जनता की नाराजगी से ही तय होता है.


बेशक कोरोना महामारी से निपटने में शुरुआती ढिलाई बरतने की आलोचना झेलने के बाद योगी सरकार ने बाद में हालात को बखूबी संभालते हुए लोगों का गुस्सा शांत किया है. लेकिन फिर भी इससे जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें विपक्षी दल चुनावी मुद्दा बनाकर उसे भुनाने की कोशिश करने से पीछे नहीं हटेंगे.


प्रदेश में बेकाबू होती बेरोजगारी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसे लेकर आम जनमानस की नाराजगी दूर करना, योगी सरकार के लिए आसान नहीं होगा. हालांकि सरकार ने दावा किया है कि उसने पिछले चार साल में चार लाख लोगों को रोजगार दिया है. लेकिन राजनीतिक पंडित कहते हैं कि बेरोजगारी के समंदर में ये संख्या एक लोटा पानी से ज्यादा नहीं है. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि “मुख्यमंत्री योगी की सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि इस बार बेरोजगार शांत नहीं बैठा बल्कि वो सवाल पूछ रहा है. सवाल ये है  कि 30 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने का वादा अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ? यही नहीं, अब तो अखिलेश राज से योगी राज की तुलना भी लोगों ने शुरु कर दी है.” हालांकि योगी कहते हैं कि उन्होंने लॉकडाउन के मुश्किल वक्त में भी लोगों के रोजगार का ख्याल रखा.


योगी सरकार के सामने दूसरी बड़ी चुनौती है कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की नाराजगी आखिर कैसे दूर करेगी. तीन कृषि कानूनों की वापसी को लेकर कई महीनों से जारी किसान आंदोलन का असर यूपी चुनावों पर पड़ना तय है. यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर खुद योगी और बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी क्योंकि किसान आंदोलन की कमान पश्चिमी यूपी के किसानों के हाथ में ही है. ये किसान खुलकर पीएम मोदी और योगी के खिलाफ अपनी राय जाहिर करते हुए बीजेपी के खिलाफ माहौल बना रहे हैं. बताते हैं कि पिछले दिनों हुए पंचायत चुनाव के दौरान कई इलाके ऐसे भी थे, जहां बीजेपी के कार्यकर्ता डर के मारे खुलकर प्रचार करने भी नहीं जा सके थे.


उत्तर प्रदेश में 15 फीसदी वोट बैंक वाले ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी को भी योगी सरकार अभी तक दूर नहीं कर सकी है. हालांकि केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक ब्राह्मण मंत्री को शामिल करके इस वर्ग की नाराजगी को कुछ हद तक कम करने की कोशिश हुई है. अब योगी सरकार के आगामी मंत्रिमंडल विस्तार में भी जितिन प्रसाद जैसे ब्राह्मण चेहरे को मंत्री बनाकर इस वर्ग को खुश करने की क़वायद होनी है लेकिन इससे ब्राह्मणों पर कितना सकारात्मक असर पड़ेगा, कह नहीं सकते.


केंद्र सरकार ने हाल ही में मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी आरक्षण को मंजूरी देकर यूपी के ओबीसी वर्ग को साधने का काम तो किया लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि अब सवर्ण संगठन इसके खिलाफ लामबंद हो रहे हैं. जाहिर है कि चुनावों के दौरान बीजेपी को उनकी नाराज़गी भी झेलनी पड़ सकती है.


इन तमाम चुनौतियो के बीच योगी सरकार के लिए राहत की बात यही है कि यूपी में विपक्ष फिलहाल बिखरा हुआ है. योगी जानते हैं कि चुनाव के वक़्त भी वो एकजुट नहीं होने वाला है. इसीलिये आत्मविश्वास से भरपूर योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों कहा था कि “ना तो अखिलेश, ना मायावती और ना ही राहुल गांधी, मैं किसी को भी अपने लिए चुनौती नहीं मानता.” देखना होगा कि गुरु गोरखनाथ की विरासत संभालने वाला शिष्य सूबे के मुखिया की गद्दी को दोबारा संभालने के लिए कितना सियासी तप करता है.