क्या यह कम बड़ी खबर है कि दुनिया के सिर्फ नौ देशों में भारत के बराबर या उससे कम वर्किंग वुमेन हैं. और अगर बिहार कोई देश होता तो दुनिया की सबसे कम वर्किंग वुमेन वहीं होतीं. यह भी बड़ी खबर बनती है कि शहरी कामकाजी औरतों का एक बहुत बड़ा हिस्सा घरेलू साफ-सफाई का काम करता है. और यह भी कि घरेलू कामकाज टेक्सटाइल उद्योग से जुड़ी नौकरियों के बाद अकेला ऐसा क्षेत्र है जहां औरतें सबसे अधिक संख्या में काम करती हैं. यह एनएसएसओ के डेटा का कहना है. वह पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) करता है और इसी से यह सब ट्रेंड जमा किए गए हैं.


इस ट्रेंड से एक बात साफ होती है. वह यह है कि श्रम बाजार का पौरुषीकरण तेजी से हो रहा है. हर जगह पुरुषों का वर्चस्व है. औरतें हाशियों पर सिकुड़ी बैठी हैं. मेनस्ट्रीम में उनकी संख्या बहुत कम है. डेटा का कहना है कि भारत की महिलाओं की श्रम बाजार भागीदारिता दर (एलएफपीआर) लगातार गिर रही है. यह 2017-18 में 23.3% थी. एलएफपीआर 15 से 40 वर्ष के बीच के उन लोगों का प्रतिशत होता है जो या तो काम कर रहे होते हैं, या काम की तलाश कर रहे होते हैं. औरतों की कम एलएफपीआर का मतलब यह है कि अधिकतर औरतें न तो काम कर रही हैं, न ही काम की तलाश कर रही हैं. आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो 15 साल से ऊपर की हर चार में तीन महिला रोजगार प्राप्त नहीं, और रोजगार ढूंढ भी नहीं रही. मतलब यह भी है कि उनमें से ज्यादातर घर पर रहती हैं, और बच्चों, परिवार की देखभाल करती हैं. जाहिर सी बात है, इस काम को हम रोजगार नहीं मानते. चूंकि इस काम का पैसा तय नहीं है, इसलिए अर्थव्यवस्था में इसे शामिल करने की कोई जरूरत नहीं है. अर्थशास्त्र की किताबें पैसों की जुबान में लिखी जाती हैं. जयती घोष जैसी अर्थशास्त्री का कहना है कि अगर महिलाओं के अनपेड वर्क को रोजगार माना जाएगा तो उनकी एलएफपीआर पुरुषों से ज्यादा हो जाएगी.


लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं कि दूसरे क्षेत्रों में औरतों को काम न मिले. यह ट्रेंड खतरनाक है कि श्रम बाजार में पुरुषों का बोलबाला है. पैसे कमाने में उनकी बराबर औरतें आती ही नहीं. यूं ऐसा हमेशा से था. औरतें कूद-फांदकर कहीं तो पहुंची हैं लेकिन मर्दों ने उनके लिए जो क्षेत्र तय किए हैं, वहीं सिमटकर रह गई हैं. शहरों में टेक्सटाइल-गारमेंट क्षेत्र में वे सबसे ज्यादा हैं. बाकी साफ-सफाई, घरेलू हेल्पर का काम करती हैं. कुछेक सेल्सगर्ल वगैरह बन जाती हैं. कॉल सेंटर में काम करने लगती हैं. छोटी नौकरियों में लग जाती हैं. आईटी, टेक, ऑटो, बैंकिंग, कानून, पुलिस, सेना, मीडिया, सभी क्षेत्रों का पौरुषीकरण हो चुका है. यहां बड़े पदों पर आदमी बैठे हैं जो आदमियों को ही अपने साथ की कुर्सी थमाना चाहते हैं. औरतें दूर खड़ी सिर्फ उन ऊंची कुर्सियों को ताक सकती हैं. उन्हें लंबे घंटों तक, तुच्छ किस्म की नौकरियों से तसल्ली करनी पड़ती है. पुरुष लगातार उनका हिस्सा डकारते रहते हैं.


ज्यादातर लोग नहीं जानते कि 2016 में देश में स्टार्ट अप करने वाले जिन लोगों को फंड मिला, उनमें औरतों का प्रतिशत सिर्फ 3 था. टेक कंपनियों में काम करने वाली हर 10 में से 8 औरतों का कहना है कि उनका बॉस पुरुष है. भारत की बड़ी कंपनियों में बोर्ड लेवल पर सिर्फ 12% महिलाएं हैं, और 88% पुरुष. पिछले साल मणिपुर की विमेन साइंस कांग्रेस में कहा गया था कि इस क्षेत्र में रिसर्च में औरतों का प्रतिशत सिर्फ 14 है. भारत दुनिया में दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा प्रोड्यूसर है लेकिन देश के फार्मास्यूटिकल उद्योग में सिर्फ 15% औरतें हैं.


क्या औरतों ने सपने देखने बंद कर दिए हैं. जी नहीं! पिछले साल नंदी फाउंडेशन के एक अध्ययन में कहा गया था कि भारत की 8 करोड़ टीएनज लड़कियों के दिलो-दिमाग में पढ़ाई लिखाई, करियर को लेकर ढेर सारी उम्मीदें हैं लेकिन देश की सच्चाई कुछ और ही है. इस सर्वेक्षण में 30 राज्यों की लड़कियों को शामिल किया गया था जिसमें ग्रामीण और शहरी, दोनों तरह के क्षेत्रों की लड़कियां थीं. इनमें 33.3% लड़कियों ने टीचर, 11.5% ने टेलर, 10.6% ने डॉक्टर, 7.6% ने पुलिस और सशस्त्र सेना में अधिकारी और 62% ने नर्स बनने की इच्छा जताई थी. लेकिन सच्चाई यह है कि 37% दक्ष खेतिहर मजदूरी, 23% खेतिहर मजदूरी, 8% दस्तकारी, 5% खनन, निर्माण, मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्रों में काम करने और 4% घरेलू काम करने को मजबूर हैं. लड़कियां सपने देख रही हैं, हमारे पास उनके सपने पूरे करने की कुव्वत नही है. या यूं कहें, इच्छा ही नहीं है.


सवाल किया जा सकता है कि सभी क्षेत्रों का पौरुषीकरण क्यों हो रहा है...इसकी वजह यह है कि औरतों के पास बाहर काम तलाशने और काम करने की फुरसत ही नहीं है. घर काम के बाद उसके लिए बाहर जाकर काम करना बहुत मुश्किल है. घर काम नाना प्रकार के हैं- खाना पकाना, कपड़े-बर्तन धोना, साफ-सफाई, बच्चों की देखभाल, बूढ़ों की देखभाल, बाजार करना, पानी भरना... इस फेहरिस्त में आइटम्स भी घर काम की तरह असीमित हैं. इसके बाद एलएफपीआर की किसे फिक्र होगी. घर काम को आप किसी भी प्रकार के रोजगार में शामिल ही नहीं करते. बुकिश स्टडीज़ करते रहते हैं. घर काम की बेड़ियों से छूटकर औरतें रोजगार कहलाने वाले काम कैसे कर सकती हैं. तो, हर क्षेत्र का पौरुषीकरण होता रहता है.


औरतों के ‘जीडीपी पोटेंशियल’ को अनलॉक करने की सिफारिश विश्व बैंक कर चुका है. मैकेन्से ग्लोबल फाउंडेशन का कहना है कि औरतों की श्रम बाजार में भागीदारी बढ़ेंगी तो भारत को अरबों का फायदा होगा. हम नफे-नुकसान की भाषा समझते हैं. फायदा सुनकर हमारे कान खड़े हो जाते हैं. लेकिन मैकेन्से ने एक बात और कही है. उसका कहना है कि औरतें आदमियों से दस गुना ज्यादा अनपेड वर्क करती हैं. तो अनपेड वर्क के क्षेत्र का भी पौरुषीकरण करने की कोशिश करें, दूसरे क्षेत्रों में उसकी मौजूदगी अपने आप कम हो जाएगी. औरतों की मौजूदगी दूसरे क्षेत्रों में बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)