तमाशा खत्म हो चुका है. करीब 50 हजार भारतीय-अमेरिकन्स ने ह्यूस्टन के एनआरजी स्टेडियम में नरेंद्र मोदी का स्वागत करने पहुंचे, जो कि 'रैली पॉलिटिक्स' में उनके साथी डोनल्ड ट्रंप के द्वारा बुलाए गए थे. भारतीय और अमेरिकी इंडियन मीडिया ने इसे एक कामयाब इवेंट के तौर पर दिखाया है. इस इवेंट को मोदी की बड़ी कामयाबी के तौर पर भी पेश किया जा रहा है और उन्होंने भी अपने आप को एक विश्व नेता के तौर पर पेश करने की कोशिश की है. हालांकि इस इवेंट के दौरान मोदी के लिए वो लम्हा असुविधाजनक रहा जब मेजॉरिटी लीडर स्टेनी होयर ने भारत को ऐसे देश के तौर पर बयां किया जो कि अपनी प्राचीन परंपराओं पर गर्व करते हुए गांधी की शिक्षा और नेहरू की नज़र के अनुसार धर्मनिपरेक्ष के रास्ते पर चलता है और हर इंसान के मानवाधिकारों का पूरा ख़याल रखता है.


नरेंद्र मोदी चाहे देश में हों या विदेश में उन्होंने हर मौके पर गांधी के लिए बेहद सम्मान दिखाया है. मोदी को यह बात अच्छी तरह पता है कि आधुनिक भारत में विश्व में सबसे बड़ी पहचान महात्मा गांधी की है. पर नेहरू का मामला अलग है. यह बात सबके सामने है कि मोदी नेहरू से असहमति रखते हैं. मोदी, अमित शाह और उनके समर्थकों ने नेहरू के लिए जो नफरत दिखाई है उसके लिए नापसंद होना बेहद हल्की बात है. इस श्रेणी में मोदी और ट्रंप एक जैसे ही नज़र आते हैं, क्योंकि ट्रंप भी ओबामा की नीतियों को महान अमेरिका को बर्बाद करने के तौर पर ही पेश करते हैं. मोदी भी इसी तरह से नेहरू को सबके सामने पेश करते हैं.


ह्यूस्टन में मोदी के संबोधन से पहले अमित शाह ने एक भाषण में जवाहर नेहरू को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए जिम्मेदार ठहराया. यह ऐसा मौका था जिसके साथ मोदी हमेशा खड़े दिखाई देते हैं. लेकिन होयर ने दूसरी बार नेहरू के आजादी के मौके पर दिए गए भाषण का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह से उन्होंने भारतीयों से गांधी के सपनों को पूरा करने के लिए साथ काम करने की अपील की थी.


स्टेनी होयर ज्यादा अमेरिकी राजनेताओं की तरह भारत के सोशल-इकोनॉमिक और राजनीतिक असलियत से अनजान हैं और इसी वजह से यह मौका मोदी के लिए जितना सफल साबित हो सकता था उतना नहीं हो पाया. इस मामले को देखते हुए भारतीय अमेरिकी समुदाय के मन में हॉउडी मोदी कार्यक्रम को लेकर क्या सवाल हैं वो अभी भी बने हुए हैं. बहुत सारे लोग इस बात से हैरान हो सकते हैं कि आयोजन में मोदी और ट्रंप को सुनने के लिए इतने सारे लोग कैसे इकट्ठा हुए, क्योंकि भारतीय-अमेरिकी लोग बड़ी तादाद में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को वोट देते हैं. ऐसा कहा जा सकता है कि ये लोग मोदी को सुनने आए हों और हम जानते हैं कि कुछ दिन पहले ही ट्रंप ने मोदी के इवेंट में शामिल होने का फैसला किया. लेकिन इससे महत्वपूर्ण सवालों को खत्म नहीं किया जा सकता है. डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को समर्थन देने के बावजूद हो सकता है ट्रंप के लिए लगाव महसूस करते हों. लेकिन अगर इस इवेंट को शुरुआत से मोदी-ट्रंप इवेंट के तौर पर पेश किया जाता तो क्या इसी संख्या में लोग पहुंचते?


डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के लिए अमेरिका में रहने वाले भारतीय का समर्थन एक लंबी यात्रा से आया है. भारतीय-अमेरिकी वहां अल्पसंख्यक हैं और 1965 में इमीग्रेशन की नीतियों में बदलाव के बाद अमेरिका में भारतीय की एंट्री से प्रतिबंध को हटाया गया. 1980 तक अमेरिका में भारतीयों की तादाद इनती नहीं थी कि उसे एक बड़ा समुदाय कहा जा सके. इसके बाद भी करीब दो दशक तक भारतीयों को अमेरिका में ना के बराबर ही समझा गया. लेकिन पिछले 10-15 साल में हालात बदल गए हैं. बॉबी जिंदल और निक्की हेली को भारतीय-अमेरिकी राजनेताओं के तौर पर पहचान मिली है, पर दोनों ही नेताओं ने हमेशा भारत से अपना कोई कनेक्शन नहीं दिखाने की कोशिश की है.


वर्तमान स्थिति और भी ज्यादा जटिल है. अमेरिकी की न्यायपालिका में सभी लेवल पर भारतीय मौजूद हैं और कुछ ने अमेरिकी संघ की अदालतों में बतौर जज अपने अलग पहचान बनाई है. कम से कम दो भारतीय जजों श्रीनिवासन और अमूल थापर के नाम पर सुप्रीम कोर्ट की एक सीट के लिए विचार किया गया. इस साल की शुरुआत में नेओमी राव को कोलंबिया सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स के जिला सर्किट के लिए अमेरिकी सर्किट न्यायाधीश के रूप में शपथ दिलाई गई. ये उस दिशा में नया रास्ता खुलने जैसा था जो कि इस दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं. अमेरिकी राजनीति में राजा कृष्णमूर्ति, प्रमिला जयपाल, कमला हैरिस जैसे कुछ भारतीय-अमेरिकी लोगों ने कदम जरूर रखा लेकिन वो बड़ी पहचान नहीं बना पाए. अमेरिकी में भारतीयों की आबादी अभी भी एक फीसदी से थोड़ी ही ज्यादा है. अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में उन्होंने हमेशा बहुसंख्यवाद के शोषण से बचने के लिए बराबर अधिकारों की मांग की है.


यह बात किसी से छुपी नहीं है कि भारतीय-अमेरिकी भारत में अल्पसंख्यक समुदाय की दुर्दशा पर हमेशा चुप रहा है. असम में बीस लाख मुस्लिमों का भविष्य अधर में लटका दिया गया और पिछले कुछ सालों में मुस्लिम-दलित समुदाय लिचिंग का भी शिकार हुआ, पर भारतीय-अमेरिकी इस पर पूरी तरह से चुप रहे. अमेरिका में यही भारतीय का अल्संख्यक समुदाय अपने साथ होने पर गलत व्यवहार पर कभी चुप नहीं रहता है और बराबर अधिकारों की मांग करता है. इनमें से जो लोग बिजनेस से जुड़े हुए हैं वो रिपब्लिकन पार्टी के साथ जा सकते हैं, पर उस पार्टी ने कभी भी अल्पसंख्यक समुदाय के हित की बात नहीं की है.


रिपल्बिकन का अफ्रीकी अमेरिकियों के लिए विरोध भारतीय-अमेरिकियों के लिए समस्या नहीं है. ज्यादातर भारतीय-अमेरिकी भले ही इस बात को स्वीकार ना करें लेकिन वो व्हाइट्स की ब्लैक को आलसी, परिवार में विश्वास ना रखने वाली, क्राइम करने वाले समझने वाली धारणा में ही विश्वास करते हैं. हालांकि उन्हें यह अहसास है कि नस्लवाद का असर बाकी दूसरे अल्पसंख्यकों में तक भी फैलता है और ट्रंप के कार्यकाल के दौरान असुरक्षा की भावना में बढ़ोतरी भी देखने को मिली है. दरअसल, वर्तमान हालात में भारतीय-अमेरिकी अपने आप को बेहद कमजोर समझते हैं और वीजा की नीतियों में बदलाव होने की वजह से बदलाव होने की वजह से उनकी मुश्किलें काफी बढ़ी हैं. अमेरिका में बहुत सारे भारतीय गरीबी रेखा के नीचे के की श्रेणी में आते हैं और बहुत ही कम टैक्स चुका पाते हैं. जो भी अमेरिकी ज्यादा टैक्स देने की वकालत करेंगे उसके समर्थन में भी बहुत कम भारतीय खड़े हो पाएंगे.


यह पूरी तरह साफ होना चाहिए कि भारतीय बड़ी तादाद में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को वोट करते हैं लेकिन उनका झुकाव रिपब्लिकन पार्टी की नीतियों की तरफ है. एक सवाल और है कि क्या मोदी के इवेंट से अमेरिका मे नेशनल लेवल पर भारतीयों का आगमन हुआ है? कई लोग ऐसा सोचेंगे और पत्रकार सोनिया पॉल ने तो इसे भारतीय अमेरिकी लोगों के राजनीतिक प्रदर्शन के रूप में बयां भी किया है. ऐसा हो सकता है, पर ऐसे आकलन का कोई आधार नहीं है. भारतीय अमेरिकी अल्पसंख्यक समुदाय बेशक मायने रखता है, लेकिन वह अभी भी वोटिंग में एक बड़ा फर्क साबित नहीं हो सकता है. कई भारतीय जो अमेरिका में पिछले दो दशक में अपनी जगह बना चुके हैं वो भारत को मोहरा बनाने के बारे में सोचते हैं और भारत में ही महत्वपूर्ण प्लेयर बनना चाहते हैं.


लेकिन भारतीय अमेरिकियों को खुद को राजनीतिक शक्ति के तौर पर बधाई देने से पहले कुछ और करना चाहिए. अमेरिकी मुख्य तौर पर अपने ही राज्य से जुड़े रहते हैं और बाकी विश्व में क्या हो रहा है वह इस बात से अनजान रहते हैं. उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं है कि अगर उन्हें कनाडा भी जाना पड़ा जाए तो कितनी मुश्किल हो सकती है. सेंट्रल अमेरिका जिसे ट्रंप नशे का अड्डा बताते रहते हैं ज्यादातर अमेरिकियों के लिए मानचित्र पर उसके खोजना भी मुश्किल होगा. ऐसे परिदृश्य से समझा जा सकता है कि ज्यादातर अमेरिकी लोगों के लिए भारतीयों का क्या मतलब है. कुछ दशक पहले एक कोटा के तौर पर वह मायने नहीं रखते थे और आज वो भले ही मायने रखते हैं, लेकिन अभी भी बहुत कम.


अपना 56 इंच का सीना दिखाने के बाद मोदी ने सोचा कि वह इस इवेंट को अपनी एक ताकत के रूप में दिखाएंगे. वह एक पहलवान से लेकर cowboy तक बन चुके हैं. यह उनके सोचने की एक सीमा है और यही भारतीय-अमेरिकी समुदाय की सोच की भी सीमा है. अमेरिका में एक ताकत के रूप में बनने में भारतीय समुदाय को अभी बहुत समय लगेगा.


विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. 


वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal


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ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)