मार्च आते ही समूचे भारत में लाल, नारंगी और पीले फूल वसंत का स्वागत करते हैं. झारखण्ड का राजकीय पुष्प पलाश तो राजस्थान के नारंगी रोहिड़ा के फूल तो पहाड़ों पर बुरांश अपनी लाली बिखेरता है. इस लाल रंग के तरंगदैर्घ्य के साथ सुदूर केरल से लेकर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड आदि प्रदेशों की सड़कों पर एक लाल फूल झांकता नज़र आता है. भारतीय संस्कृति अपनी विशिष्टता बनाए रखते हुए भी लगातार दूसरों को अपनाकर समृद्ध होती है. इसका एक हिस्सा यह है कि विदेशों से आए अनेक पेड़ -पौधे, और फसलें, यहाँ तक कि कई खान-पान तक आज भारत में हमारे अपने हो गए हैं. जनवरी 2023 में रांची एयरपोर्ट पर सुर्ख लाल बड़े फूल को देखकर मैं पलाश समझ बैठा, पर जनवरी की शुरुआत में फूलों से लदा पलाश...कुछ अटपटा लगा और तब समझ में आया कि यह पलाश तो नहीं पर फूलों से लदा यह पेड़ कुछ और ही है. खोजबीन की तो रांची, भोपाल, दिल्ली, कोलकाता समेत कई शहरों में इसे लालिमा फैलाते हुए पाया. बंगाल और झारखण्ड में यह इस बार दिसम्बर में ही खिला दिख गया, जिसके खिलने का समय भारत में थोड़ा अलग-अलग है, बेंगलुरु में यह सालों भर दिखता है तो मुंबई में यह पेड़ फरवरी से अप्रैल तक खिलता है, जबकि पुणे में फूल का मौसम नवंबर से दिसंबर तक होता है. ऐसा माना जाता है कि यह लाल फूल वाला पेड़ लगभग उन्नीसवी सदी के अंत में एक सजावटी पौधे के रूप में पूर्वी अफ्रीका के अंगोला से भारत लाया गया था.
पहली बार खोजा गया था 1787 में
इसे पहली बार यूरोपियन खोजियों द्वारा 1787 में गोल्ड कोस्ट में खोजा गया, ये वही समय था जब बड़े पैमाने पर यूरोप के खोजी नए-नए जगहों और वहां पाए जाने वाले पेड़-पौधों और जंगली जानवरों की पहचान कर जीव विज्ञान का खजाना भर रहे थे. इस खास फूल वाले पेड़ का नाम अफ्रीकन ट्यूलिप दिया गया. फिर वही से विश्व के कोने -कोने तक सजावटी पेड़ के रूप में पंहुचा, जिसमे ऑस्ट्रेलिया महादेश भी शामिल है जहाँ आज इसे एक प्रमुख (इसे विश्व के 100 प्रमुख) इनवेसिव स्पेशीज माना गया है. यह कुछ देशों की स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में स्थानीय प्रजातियों पर हमलावर की तरह कार्य करता है. इसको अफ्रीकन ट्यूलिप (स्पैथोडिया कैंपानुलता) का नाम शायद इसके फूल के दूर से ट्यूलिप जैसा दिखने के कारण दिया गया हो, क्यूंकि ट्यूलिप से इतर, रगतूरा पलाश जैसा बड़ा पेड़ होता है. हालांकि, इसका फूल भी ट्यूलिप से ज्यादा पलाश जैसा होता है. इसका सामान्य नाम कोरोला या पंखुड़ी के आकार के कारण ग्रीक शब्द 'स्पेथ' (ब्लेड) से आया है, जबकि इसका विशिष्ट नाम कैंपैनुला से संबंधित है, यह नाम लियोनहार्ट फुच्स द्वारा दिया गया था. इस फूल की कली पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा) के समान होता है और रंग की प्रकृति रुद्र या उग्र होती है, इसलिए शायद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे (शांतिनिकेतन में इसे) रुद्रपलाश का नाम दिया होगा. भारत में जहाँ-जहाँ अंग्रेजो द्वारा सजावटी पेड़ के रूप में इस्तेमाल किया गया वहां-वहां इसने अपना खास स्थानीय नाम पाया जैसे कन्नड़ में नीरुकाई मारा, बंगला में रूद्रपलास, मराठी में पिचकारी, तेलगु में गोनुगंटा, तमिल में पटाडी और हिंदी भाषियों में रंगतूरा नाम पाया.
फूलों से लदा रगतूरा बिखेरता है लालिमा
चूँकि फूलों से लदा रगतूरा पलाश की तरह ही दूर से जंगल में आग जैसी लालिमा बिखेरता दिखाई देता है तो पलाश जैसे इसे भी ज्वालामय वृक्ष या जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है. इसका एक नाम और है 'फाउंटेन ट्री' जिसे मराठी में पतारी या पिचकारी कहा जाता है. इसके फूलों की कलियों में पानी होता है. पेड़ पर फूल तभी खिलना शुरु करता है जब वह तीन या चार साल का होता है. एक फूल की कलियों में एक पतला छेद होता है जिसको सामने से दबाने पर कलियों का पानी तीर जैसे तेजी से बाहर निकलता है, जिसे अफ्रीकी बच्चे 'वॉटर-गन' खिलौने की तरह इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा, जब फूल खिलते हैं, तो उनकी जोड़ीदार पंखुड़ियों में बारिश या ओस का पानी जमा हो जाता हैं, जिसे पक्षी 'फव्वारे' से पीते हैं. शांतिनिकेतन में इसके बीज और पंखुड़ियों से बने रंग से होली खेलने की और इसे पिचकारी की तरह इस्तेमाल करने परम्परा रही है. सुर्ख लाल रंग और पंखियों में पानी भरा रहने के कारण फूलों से लदा रगतूरा पक्षियों के हलचल का केंद्र बना रहता है, वही बारबेट और कठफोड़वा जैसे पक्षी इसके तने में छेद करके अपना घोंसला बनाते है.
आक्रामक होता है इसका व्यवहार
इसका फूल और पराग फूल पर आकर्षित होने वाले मधुमक्खी और अन्य कीड़ो के लिए प्राकृतिक जहर का काम करता है. पारिस्थितिकी विज्ञानी जेमी गार्सिया ने अफ्रीकी ट्यूलिप के फूलों के फाइटोकेमिकल परीक्षण में अच्छी मात्रा में फ्लेवोनोइड्स और एल्कलॉइड्स पाया, लेकिन शोध यह नहीं बता सका कि ये पदार्थ कीड़ों की मौत के असली कारण थे. एक अन्य सिद्धांत यह है कि फूलों की भीतरी दीवार चिपचिपी होती है जो कीड़ों को बाहर रेंगने से रोकती है और उनकी मृत्यु का कारण हो सकती है. हो सकता है कि प्राकृतिक रहवास में रगतूरा के फूलों की ये खास प्रवृति पारिस्थितिकी तंत्र के किसी खास कम को सिद्ध करती हो, शायद एक तरह का सुरक्षा कवच. रगतूरा की छाल, पत्तियों और फूलों का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है. फूल प्राकृतिक रंग के स्रोत है, तो लकड़ी ड्रम और लोहार की धौंकनी बनाने के काम आता है. इसके बीजों को जहर निकालने के लिए अफ्रीका में इसके बीज को उबालकर शिकार के लिए जहर बनाने का रिवाज है, जिसे शिकारी फरमेंट करके तीर के लिए जहर बनाते है.
कई समस्याओं के लिए आशा की भी किरण
इसकी लकड़ी बहुत मुलायम होती है, पर जल्दी जलती नहीं है, अग्निरोधी होती है, जो धरती के बढ़ते तापमान और जंगल में आग की बढती समस्या के समाधान की लिए रगतूरा का प्रभावित जंगलो में प्लांटेशन एक आशा की किरण हो सकती है. रगतूरा के बीज काफी हलके होते है, जिनका प्रकीर्णन हवा द्वारा आसानी से दूर-दूर तक होता है. एक खास तरीके से बारिश से बचाव का तरीका भी अपनाते हैं. हवा में ज्यादा नमी होने पर इसके पॉड बंद हो जाते है, जिससे बरसात में बीज भींगने से बच जाते हैं, वहीं सूखे में खुल जाते हैं. कुछ पक्षी इसके बीजों को खा जाते हैं, जो पारदर्शी कागज में अटके दिल की तरह दिखाई देते हैं. यह दिल ऐसा लगता है जैसे किसी ने मार्कर पेन से सावधानी से आकृति बनाई हो. इसके नाव जैसे बीजपोड के खोल में 500 तक बीज होते हैं जो हल्के होने के कारण हवा में दूर-दूर तक नए-नए पौधे को प्रसार करते हैं.
विषुवतीय अफ्रीका के जंगलो का यह पेड़ भले ही भारत के पुणे और बंगलौर में बहुत आम हो गया है, पर विश्व के कई नम और सूखे इलाको में आक्रामक प्राणी के रूप में फ़ैल रहा है, वहां के स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर कहर बन रहा है, जिसमें हवाई द्वीप, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका शामिल है. इसके बीजों की संख्या और प्रकीर्णन के तरीके को देखने के बाद इसपर नज़र रखने की जरुरत है क्योंकि हमारे देश की जलवायु में यह अपनी उचित ऊँचाई प्राप्त कर खिलता भी है, जहाँ से इसके बीज का दूर-दूर तक प्रकीर्णन आसान हो जाता है. तभी तो इसे विश्व के सबसे खतरनाक 100 इनवेसिव प्राणी में शामिल किया गया है. एक बार अगर इसने पैठ बनाई तो यह मेहमान एक आक्रमणकारी की तरह व्यवहार कर हमारे मूल पेड़ों को विस्थापित कर खुद का साम्राज्य स्थापित कर सकता है.
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