किसान आंदोलन के 100 दिन पूरे हो रहे हैं. अगर इसमें जुलाई से पंजाब हरियाणा में चल रहे धरना प्रदर्शन को शामिल कर लिया जाए तो दिन दो सौ पार पहुंचते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि आने वाले सौ दिनों में क्या होगा. किसान आंदोलन की दशा दिशा क्या है? किसान आंदोलन ने क्या मोदी सरकार और बीजेपी को चिंता में डाला है? क्या किसान आंदोलन देश में आंदोलन के इतिहास में अपनी तरह के नायाब आंदोलन के रुप में याद किया जाएगा? इन सभी सवालों के कुछ-कुछ जवाब तो मिलने भी शुरू हो गये हैं. आंदोलन के बाद पंजाब में स्थानीय निकाय के चुनाव होते हैं. सभी जगह कांग्रेस को भारी बहुमत मिलता है.
आम आदमी पार्टी के साथ-साथ अकाली दल का भी सूपड़ा साफ हो जाता है. इन दो दलों का जिक्र इसलिए क्योंकि दोनों ही किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं. अकाली दल ने तो इस मसले पर एनडीए से ही नाता तोड़ा है. हरसिमरत कौर ने मोदी सरकार से इस्तीफा दिया है, लेकिन किसानों ने उन्हें माफ नहीं किया. ऐसा इसलिए क्योंकि जब मंत्रिमंडल में तीन कानूनों पर चर्चा हो रही थी तब मंत्री के नाते हरसिमरत कौर उसका हिस्सा थी लेकिन तब इस्तीफा नहीं दिया. कानून लागू होने के बाद भी इस्तीफा नहीं दिया. जब संसद में हंगामा हुआ तो मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा.
'आप' ने साथ दिया लेकिन किसानों का विश्वास हासिल नहीं कर पाई. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने शुरू से ही किसानों का साथ दिया. केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अपने नये कानून बनाने वाला पंजाब देश का पहला राज्य बना. अब सवाल उठता है कि बीजेपी ने इस हार से क्या सबक लिया? कहने को तो कहा जा सकता है कि बीजेपी पंजाब में वैसे भी अकाली दल के भरोसे ही थी. ऐसे में स्थानीय निकाय चुनाव में हार से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन यही बात हरियाणा के लिए नहीं कही जा सकती, जहां खट्टर सरकार वैसे भी जेजेपी के दुष्यंत चौटाला के दस विधायकों के भरोसे ही टिकी हुई है. उस पर किसान आंदोलन का कितना असर होता है यह आने वाला समय बताएगा.
बीजेपी को सबसे ज्यादा चिंता पश्चिमी यूपी की है, जहां विधानसभा की सौ से ज्यादा सीटें आती हैं. राजस्थान में भी किसान आंदोलन फैला है, सचिन पायलट किसान सम्मेलन कर रहे हैं, राहुल गांधी चार जिलों का दौरा कर चुके हैं. वहां किसान आंदोलन क्या गुल खिलाएगा यह तो 2023 में ही पता चलेगा जब विधानसभा चुनाव होंगे. जाहिर है कि इसमें देरी है लेकिन यूपी में तो विधानसभा चुनाव अगले साल ही होने हैं. किसान आंदोलन के सौ दिनों में से अगर 26 जनवरी के दिन को हटा दिया जाए तो आंदोलन को नायाब ही कहा जाएगा. 26 जनवरी को किसान लाल किले पर आ गये थे. तिरंगा जहां फहराता था वहां धार्मिक ध्वज फहरा दिया था, पुलिस के साथ झड़पें हुई थी और जनता की नजरों से उतरा था. लेकिन उसके बाद किसान संभल गये. यहां तक कि रिहाना से लेकर ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट भी उसके समर्थन में आए. दिशा रवि के ट्वीट पर दिल्ली पुलिस ने राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया लेकिन अदालत में उसे मुंह की खानी पड़ी. इससे भी किसान आंदोलन ने खोई हुई सहानुभूति फिर से हासिल कर ली.
बदनाम करने की भरपूर कोशिश
इससे पहले बीजेपी ने कभी किसान आंदोलन के नेताओं को खालिस्तानी समर्थक बताया तो कभी नक्सल समर्थक. कभी पाकिस्तान तो कभी चीन से प्रभावित बताया. कुल मिलाकर आंदोलन को बदनाम करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन बीजेपी भूल गयी कि आंदोलन करने वाले मुसलमान नहीं है. सिख हैं और सिखों की देशभक्ति पर सवाल उठाए नहीं जा सकते. जहां एक ही परिवार का एक बेटा सेना में हो और दूसरा हल जोत रहा हो वहां राष्ट्रवाद के नाम पर तोड़ने की कोशिश गलत रणनीति रही. बीजेपी को इसका अहसास भी जल्द हो गया, लेकिन बीजेपी अभी तक यही कह रही है कि आंदोलन पंजाब-हरियाणा तक ही सीमित है, बड़े किसानों तक ही सीमित है और छोटे सीमांत किसानों का समर्थन उसे हासिल है. ऐसा नहीं है कि तीनों कानून खामियों से भी भरे पड़े हैं. तीनों कानूनों में कुछ अच्छी बातें हैं. किसानों की जिंदगी बदलने का माद्दा रखते हैं लेकिन बीजेपी यह बात आम भारतीय तक पहुंचाने में असफल ही रही.
इस आंदोलन ने दिखाया है कि कैसे शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन चलाया जा सकता है. जनता के सहयोग से चलाया जा सकता है. जनता से चंदा लेकर चलाया जा सकता है. प्रतीकों के सहारे अपनी बात पहुचाई जा सकती है. ट्रेक्टर रैली हो या सामूहिक लंगर हो या शहीद भगतसिंह के नाम पर कोई आयोजन हो या पुलवामा के शहीदों को याद करने की प्रार्थना सभा हो... सब कुछ बेहद व्यवस्थित ढंग से हुआ. साफ तौर पर लग रहा है कि आंदोलन के पीछे कुछ समझदार दिमाग काम कर रहे हैं जो आंदोलन करना भी जानते हैं और जनता की नब्ज भी समझते हैं. सरकार के साथ बातचीत करना लेकिन न तो सरकार की चाय पीना और न ही नमक खाना... यह इसी बात का सबूत है कि काफी सोची समझी रणनीति के साथ आंदोलन किया जा रहा है. किसानों को उठने की जल्दी नहीं है. वह तय करके आए हैं कि खाली हाथ लौटना नहीं है. ऐसे आंदोलनकारियों से निपटना आसान नहीं होता.
अब ताजा सूरत यह है कि सरकार 18 महीनों तक कानूनों पर अमल करने पर रोक लगाने को तैयार है बशर्ते किसान मान जाएं लेकिन किसान कानून वापसी की मांग पर अड़े हुए हैं. कैप्टन ने 18 की जगह 24 महीने कानून के अमल पर रोक की बात कही लेकिन इस पर न तो सरकार की तरफ से प्रतिक्रिया आई और न ही किसानों ने कैप्टन का साथ दिया. साफ है कि गतिरोध बना हुआ है. कैसे टूटेगा पता नहीं. यह बात साफ है कि बात करने से ही बात बनेंगी लेकिन गालिब का शेर याद आता है- क्या बने बात जहां बात बनाए न बने.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)